दुनिया में इन दिनों हर तरफ दृश्य-अदृश्य दीवारें खड़ी करने के सपने पल रहे हैं. इस सनकी दौर में नफरत इस कदर कहर बरसा रही है कि केवल हिंदुस्तान में ही लोगों को जात-पात-नस्ल के नाम पर नहीं बांटा जा रहा. ट्रंप साहब शिद्दत से चाह रहे हैं कि उनके पड़ोसी देश मैक्सिको की सीमा पर मौजूदा दीवार से भी लंबी-चौड़ी एक दीवार खड़ी कर दी जाए, ताकि वहां से अमेरिका की तरफ होने वाला पलायन रोका जा सके. ब्रिटेन के कई नेतागण और नागरिक चाहते हैं कि उनका देश यूरोपीय संघ से अलग हो जाए और सिमटकर एक ताकतवर मुल्क बनने का सपना देखे.
चीन में इंटरनेट पर अदृश्य दीवारें पहले से तैनात हैं (फायरवॉल) और हर सूचना सरकार से छनकर नागरिकों तक पहुंचती है. नॉर्थ और साउथ कोरिया के बीच एक लंबी अभेद्य दीवार लंबे समय से मौजूद है. हमारे यहां भी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के बहाने असम में अदृश्य दीवार खड़ी की जा रही है और फिर 1947 का विभाजन तो है ही, जिसने हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच दृश्य-अदृश्य दोनों तरह की दीवारें खड़ी की हुई हैं.

वजहें कितनी भी अलग क्यों न नजर आती हों, हमारे समय का सच यही है कि दुनिया भर के कई मुल्क अपनी-अपनी सीमाओं पर नए सिरे से दीवारें खड़ी करना चाहते हैं. खुद की नस्ल से प्यार करने और दूसरों से नफरत करने की ग्रैफिटी इन दीवारों पर सजा देना चाहते हैं.
ऐसे सनकी समय में विश्व सिनेमा की उन फिल्मों की महत्ता बहुत ज्यादा बढ़ जाती है, जो लोगों को बांटने के लिए खड़ी की गईं दीवारों से प्रभावित जिंदगियों का दस्तावेज बनी थीं. कुछ अभी भी बन रही हैं, जैसे कि हाल ही में एचबीओ द्वारा ब्रेक्जिट के पीछे की राजनीति पर टेलीविजन के लिए बनाई गई ब्रेक्जिट : द अनसिविल वॉर (2019) नाम की फिल्म. इसमें बेनेडिक्ट कम्बरबैच जैसे असाधारण अभिनेता ने ब्रिटिश राजनीतिक रणनीतिकार डोमिनिक कमिंग्स की मुख्य भूमिका अदा की है. डोमिनिक को उस विवादास्पद ‘वोट लीव’ कैंपेन का कर्ता-धर्ता माना जाता है जिसके द्वारा इंग्लैंड के बाशिंदों को मैन्युपुलेट करके यूरोपीय संघ छोड़ने के लिए उकसाया गया था. यह फिल्म सिलसिलेवार परदे के पीछे का राजनीतिक खेल दिखाती है और जो बात नोम चोम्स्की अपनी किताब ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट’(1988) में अमेरिका के लिए कह चुके हैं वही बात यहां नयी तकनीकों से लैस ब्रिटेन के लिए भी लागू मालूम होती है.
ऐसी एक दीवार बर्लिन वॉल के नाम से भी मशहूर है. साम्यवाद और पूंजीवाद के वैचारिक मतभेदों की वजह से खड़ी हुई इस ऐतिहासिक बर्लिन की दीवार (1961-1989) पर कई असाधारण फिल्में बन चुकी हैं. 2015 में आई टॉम हैंक्स अभिनीत हिस्टॉरिकल ड्रामा फिल्म ‘ब्रिज ऑफ स्पाइज’ ने बर्लिन की दीवार के निर्माण के दौरान (1961) अमेरिका, जर्मनी और सोवियत संघ के बीच के राजनीतिक तनाव का बेहतरीन चित्रण किया था.
2012 में आई जर्मन फिल्म ‘बारबरा’ ने 1980 के दौर के कम्युनिस्ट ईस्ट बर्लिन में दमन का शिकार एक युवती की धीमी गति की उम्दा कैरेक्टर स्टडी परदे पर रची थी. 2000 में आई ‘द लेजेंड ऑफ रीटा’, 2001 की ‘द टनल’, और 1987 की अद्भुत ‘विंग्स ऑफ डिजायर’ भी बर्लिन की दीवार के बैकड्रॉप पर बनी खासी मशहूर फिल्में हैं. हॉलीवुड की कई मसाला स्पाई फिल्में विभाजित बर्लिन के बैकड्रॉप की तरफ आकर्षित रही हैं और बॉन्ड व बॉर्न फिल्मों से लेकर हाल के वर्ष की ‘द मैन फ्रॉम अंकल’ (2015) जैसी स्पाई थ्रिलर फिल्में चंद उदाहरण भर हैं.
फिर, 2006 में रिलीज हुई जर्मन फिल्म ‘द लाइव्स ऑफ अदर्स’ तो अलग ही स्तर की उत्कृष्टता लिए है. बेहद कुशलता से यह फिल्म दिखा चुकी है कि 80 के दशक के साम्यवादी पूर्वी जर्मनी में किस तरह सरकार विरोधी कलाकारों का दमन होता था और जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य (जीडीआर) का जासूसी विभाग ‘स्टाजी’ किस तरह छिप-छिपकर विरोधियों की बातें सुनता था. सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा की फिल्म का ऑस्कर जीतने वाली इस ब्रिलियंट फिल्म पर हम किसी दिन अलग से लिखेंगे.
उपरोक्त सभी गंभीर व डार्क फिल्में हैं, जिनमें से ज्यादातर कम्युनिस्ट ईस्ट बर्लिन को अलोकतांत्रिक खलनायक के तौर पर पेश करती हैं. वेस्ट बर्लिन के लोकतंत्र और पूंजीवाद से छिटकने वाला कम्युनिस्ट ईस्ट बर्लिन, सोवियत संघ की मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा पर चलकर 28 सालों तक एक ‘क्लोज्ड सोसाइटी’ के रूप में सांस लेता रहा था. इन जर्मन व अमेरिकी फिल्मों के अनुसार यह एक ऐसी जेल थी जिसमें से पूर्वी बर्लिन के नागरिकों को पश्चिम बर्लिन और पश्चिमी यूरोप तक में जाने की इजाजत नहीं थी. सीमित संसाधनों के साथ जीवन-यापन करना नियम था और पश्चिम बर्लिन की उभार पर रहने वाली पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विपरीत साम्यवाद के सिद्धांतों पर चलने वाली इसकी सादी अर्थव्यवस्था में ‘विकास’ अपने तड़क-भड़क वाले मशहूर रूप में मौजूद नहीं था. साथ ही कम्युनिस्ट सरकार की दमनकारी नीतियां भी वजह रहीं कि दुनियाभर में पूर्वी बर्लिन को लेकर नकारात्मकता हमेशा बनी रही.
इन दस्तावेज रूपी बेहतरीन फिल्मों के इतर ‘गुड बाय लेनिन!’ का दृष्टिकोण बेहद अलहदा है. 2003 में बनी यह ट्रैजिकॉमेडी बर्लिन की दीवार पर बनी शायद सबसे चर्चित जर्मन फिल्म भी है जो कि विश्वभर में सफर कर चुकी है और हर पृष्ठभूमि, हर विचारधारा के सिनेप्रेमी द्वारा सराही जा चुकी है.
जर्मन फिल्मकार वुल्फगंग बेकर (Wolfgang Becker) द्वारा निर्देशित ये फिल्म ‘द लाइव्स ऑफ अदर्स’ और ‘बारबरा’ जैसी जर्मन फिल्मों की तरह साम्यवादी पूर्वी बर्लिन को दमनकारी स्टेट की तरह चित्रित नहीं करती. बल्कि दो विपरीत राजनीतिक विचारधाराओं के बीच फंसे बर्लिन के नागरिकों का कॉमेडी की टेक लेकर चित्रण करती है और ऐसे करती है कि ट्रैजेडी उभरकर सामने आती है.
यह उन दुर्लभ फिल्मों में से भी एक है जो कि पूर्वी बर्लिन के उन नागरिकों का नजरिया सामने रखती है जो कि अपनी साम्यवादी सरकार और विचारधारा के समर्थक थे. इस फिल्म को समझने तथा एप्रीशिएट करने के लिए आपको बर्लिन की दीवार से जुड़ा इतिहास तफ्सील से मालूम होना चाहिए क्योंकि निर्देशक ने इसे जर्मन दर्शकों को ध्यान में रखकर ही बनाया है. विश्वभर में उनकी फिल्म को प्रसिद्धि मिल सकती है, शायद इसका गुमान उन्हें पहले से नहीं था.
इस यूनिवर्सल प्रसिद्धि की वजह ‘गुड बाय लेनिन!’ की बेहद दिलचस्प कहानी है. साम्यवादी सरकार के तौर-तरीकों में कुछ खास विश्वास नहीं रखने वाला पूर्वी बर्लिन का युवा नायक एलेक्स 1989 में एक सरकार विरोधी आंदोलन में शिरकत करता है. यह वही शांतिप्रिय और ऐतिहासिक मार्च है जिसके बाद आग की तरह भड़की चेतना आम नागरिकों को साथ लायी थी और आखिर में बर्लिन की दीवार को गिरना पड़ा था.
लेकिन इस ऐतिहासिक घटना से पहले इस आंदोलन में नायक को शिरकत करते देख उसकी मां को हार्ट अटैक आ जाता है और वह आठ महीने के लिए कोमा में चली जाती है. नायक की मां पक्की सोशलिस्ट है और अपने देश पूर्वी बर्लिन की साम्यवादी विचारधारा में बेहद यकीन रखती है. इतना, कि पश्चिम बर्लिन की पूंजीवादी सरकार और वहां के जिंदगी जीने के तौर-तरीकों से नफरत करती है.
नायक की मां को जब होश आता है तब बर्लिन की दीवार गिर चुकी होती है और उसका प्यारा कम्युनिस्ट बर्लिन खत्म हो चुका होता है (1990). लेकिन डॉक्टर कह देते हैं कि मां को किसी तरह का सदमा नहीं लगना चाहिए नहीं तो अगला हृदयाघात प्राणघातक होगा. इसके बाद नायक अपनी मां के लिए गुजर चुके वक्त को ‘रीक्रिएट’ करता है और साम्यवादी पूर्वी बर्लिन को कॉमेडी की टेक लेकर वापस जिंदा किया जाता है. फिल्म दिखाती है कि किस तरह दीवार के गिरने के बाद पूंजीवाद के हुए आगमन के चलते पहले की उनकी जिंदगी पूरी तरह बदलने लगती है, और पश्चिमी प्रॉडक्ट्स के बाजार में फैल जाने से लेकर रहने के तौर-तरीकों तक में तेजी से अमेरिका प्रवेश कर जाता है!
फिल्म की यह थीम खासकर दुनियाभर के वामपंथी रुझान रखने वाले दर्शकों को बेहद रास आती रही है. पश्चिम की जिन बाजारू चीजों का विरोध वामपंथी विचारधारा करती आई है – कोका-कोला से लेकर बर्गर किंग, डिश टीवी और पश्चिमी मिजाज के फर्नीचर तक – और लेनिनवाद से जुड़ी जिन चीजों को खूब रोमेंटिसाइज किया करती है, उसका सिलसिलेवार चित्रण इस फिल्म ने बखूबी किया था.
‘गुड बाय लेनिन!’ की खासियत इसके वे जतन हैं जो कि अपने दोस्त की मदद लेकर इसका नायक पूर्वी बर्लिन को दोबारा जिंदा करने के लिए करता है. इससे हास्य पैदा होता है लेकिन यह पुरानी यूरोपियन फिल्मों के उस मिजाज का हास्य है जो ऑन योर फेस न होकर ड्रामा फिल्मों की शक्ल में धीरे-धीरे आगे बढ़ता है. मां जब बर्लिन की दीवार गिरने से जुड़ा कोई सच गलती से जान भी लेती है तब भी नायक अपने दोस्त की मदद लेकर फेक न्यूज तैयार करता है जिसमें सच्ची घटना को ऐसे तोड़ा-मरोड़ा जाता है जैसे कि वह पूर्वी बर्लिन और साम्यवाद का गुणगान करती हुई प्रतीक हो (‘अच्छा, कोका-कोला एक सोशलिस्ट ड्रिंक है!’). ऐसा करना छोटी-मोटी घटनाओं तक सीमित नहीं रहता, बल्कि मां की खुशी के लिए नायक कई ऐतिहासिक घटनाओं को पूर्वी बर्लिन के पक्ष में सर के बल पलट देता है. इसलिए, इतिहास में रुचि रखने वाले दर्शकों के लिए हास्य-व्यंग्य की काफी खुराक फिल्म में मौजूद मिलती है!
‘गुड बाय लेनिन!’ को ‘ऑस्टेल्जिया’ (Ostalgie) के बोल्ड चित्रण के लिए भी याद किया जाता है. यह वो नॉस्टेल्जिया होता है जिसमें एकीकृत जर्मनी में रहने वाले कई नागरिक कम्युनिस्ट ईस्ट बर्लिन में बिताए पुराने वक्त को खुशनुमा दौर की तरह याद करते हैं. जर्मन साहित्य से लेकर फिल्मों तक में इस ऑस्टेल्जिया को देखा-पढ़ा जा सकता है और ऐसा होने की मुख्य वजह पूंजीवादी मानसिकता के चलते दीवार गिरने के बाद एकीकृत जर्मनी में पनपी असमानता, बेरोजगारी और महंगाई को माना जाता है.
निर्देशक व सह-लेखक वुल्फगंग बेकर ने ऑस्टेल्जिया के इस जटिल व्यवहार की एक अलग व्याख्या करने की कोशिश अपनी फिल्म में की है. उन्होंने पूर्वी बर्लिन के साम्यवादी होने के फैसले को ट्रैजेडी और कॉमेडी की टेक लेकर सही तो बताया है, लेकिन अपने नायक के सहारे ही यह खासतौर पर रेखांकित किया है कि जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य (जीडीआर) पूर्वी बर्लिन में सही साम्यवाद कभी लागू नहीं कर पाया था. दोनों विचारधाराएं साथ पनप सकती थीं, ईस्ट और वेस्ट बर्लिन मिल-जुलकर साथ रह सकते थे, लेकिन आत्ममुग्ध लीडरों की दमनकारी नीतियों ने दीवार खड़ी कर शहर बांट दिया. देश बांट दिया. यूरोप को बांट दिया.
आज खड़ी हो रही दीवारें भी यही करेंगीं. राजनीतिक विचारधाराएं और परिस्थितियां कितनी भी अलग क्यों न हों आखिर में इन दीवारों के बनने से लोग ही बंटेंगे, छंटेंगे और मरेंगे. आने वाले भविष्य में ‘गुड बाय लेनिन!’ जैसी कई और ट्रैजिकॉमेडी फिल्में बनेंगीं और विश्व-सिनेमा की धरोहर कहलाई जाने के लिए विवश होती रहेंगीं.
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