आज संत रैदास की जयंती है. भारत के किसी भी संत को शायद ही इतने अलग-अलग नामों से पुकारा गया होगा, जितना कि रैदासजी को. पंजाब के लोगों ने अपने उच्चारण की सहजता में उन्हें रविदास कहा. ‘आदि ग्रंथ’ या गुरु ग्रंथ साहिब में जहां कहीं भी उनके पद संकलित हैं, वहां उनका नाम ‘रविदास’ ही लिखा गया है. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उन्हें रैदास के नाम से ही जाना जाता है. गुजरात और महाराष्ट्र के लोग उन्हें ‘रोहिदास’ के नाम से पुकारते हैं, और बंगाल के लोग उन्हें ‘रुइदास’ कहते हैं. कई पुरानी पांडुलिपियों में उन्हें रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास के नाम से भी देखा गया है. इसका एक मुख्य कारण यह भी कहा जा सकता है कि भक्ति और मुक्ति का प्रतीक बन चुके रैदास को अलग-अलग भाषा-भाषियों ने इतने अपनापन से आत्मसात किया कि उन्होंने उनके नाम तक को अपने अनुरूप ढाल लिया.

कहते हैं कि जिस तरह चंद्रमा अपनी कलाएं बदलते-बदलते पूर्णिमा के दिन जाकर पूर्ण हो जाता है, उसी तरह साधक भी साधना करते-करते एक दिन पूर्णता और समता को प्राप्त करके संत बन जाता है. यह भी एक कारण हो सकता है कि भारतीय परंपरा में संतों और बुद्धों के जन्म और मरण को प्रायः पूर्णिमा से जोड़ा जाता है. कबीर, नानक और गौतम बुद्ध का जन्मदिन हम खास महीनों की पूर्णिमा को ही मनाते हैं. संत रैदास के जन्म के बारे में भी ऐसा ही है. उनके जन्म का ठीक-ठीक साल और उसकी तारीख हमें मालूम नहीं है. लेकिन इतना जरूर माना जाता है कि माघ महीने की पूर्णिमा को उनका जन्म हुआ था.
उनके नाम ‘रवि-दास’ के आधार पर कुछ लोग उनका जन्म रविवार को हुआ मानते हैं और इसी को आधार बनाकर वह पन्द्रहवीं शताब्दी की उस माघी पूर्णिमा को उनका जन्म बताते हैं जिस दिन रविवार पड़ा होगा. लेकिन जैसा कि संतों के साथ होता है कि उनका जीवन और उनके विचार किसी खास नाम, रूप, देश और काल के दायरों में बंधे नहीं होते. अपने आराध्य आत्माराम के साथ एकाकार होने के बाद उनका जो कुछ शेष रहता है वह सार्वकालिक और सार्वजनीन हो जाता है.
मध्यकालीन भारत के संतों में एक खास बात यह देखी जाती है कि उन्होंने स्वयं श्रम करते हुए अपना गुजारा किया. लगभग सभी संतों ने अपना पेशा आजीवन जारी रखा. कबीर कपड़ा बुनते रहे, संत सैन ने नाई का पेशा बरकरार रखा, नामदेव ने कपड़े पर छपाई जारी रखी, दादू दयाल ने रुई धुनने का काम नहीं छोड़ा और गुरु नानक ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष खेती करते हुए ही बिताए. लेकिन इन सबमें रैदास का पेशा एकदम जुदा था. वे मोची थे. जूते बनाते थे और उसकी मरम्मत भी करते थे. समाज की भाषा में उनकी जाति कथित ‘चमार’ की थी. लेकिन राम और गोविंद की लगन ऐसी लगी थी कि रैदास नाम ही ‘भक्त’ का पर्याय बनता जा रहा था. इतना तक कि कबीर जैसे महान संत ने भी कह दिया कि ‘साधुन में रविदास संत है’.
लेकिन रैदास अपने पेशे और जाति को लेकर किसी प्रकार की आत्महीनता का शिकार न थे. उन्होंने बल्कि अपने पद, बानी और सबद में इसका कई बार उल्लेख किया. उनके समकालीनों और परवर्ती संतों ने भी उनकी जाति का भरपूर उल्लेख किया. आदि ग्रंथ अथवा गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित रैदास जी के कुछ पदों में उनकी जाति का वर्णन इस तरह मिलता है- ऐसी मेरी जात बिखिआत चमारं, हिरदै राम गोबिंद गुन सारं. एक अन्य पद में वह कहते हैं- हम अपराधी नीच घरि जनमे, कुटुंब लोग करै हांसी रे। कहै रैदास राम जपि रसना, काटै जम की फांसी रे।। एक पद में तो वह इतना तक कहते हैं- जाति ओछा पाती ओछा ओछा जनमु हमारा। राजा राम की सेव ना कीनी कहि रविदास चमारा।।
लेकिन संत रैदास जी के संपूर्ण भक्तिमय काव्य को देखकर इसका अंदाजा सहज ही हो जाता है कि अपनी जाति का वर्णन वह अपनी भावप्रवणता में अपने आराध्य के प्रति भक्तिविभोर होकर ही करते हैं. न कि किसी आत्महीनता या सामाजिक द्रोहभाव के वशीभूत होकर. आत्माराम के प्रति भक्तिपूर्ण समर्पण और आत्मविवेक की चेतना के अलावा अन्य कोई भाव उनकी बानी में नहीं उतरता. ‘प्रभुजी तुम चंदन हम पानी’ जैसे उनके भजनों में डूबकर ऐसा लगता है, मानो उन्हें इस तरह की उपमा ढूंढ़नी नहीं पड़ती, वे उन उपमाओं में स्वयं को उसी रूप में देख रहे होते हैं और उनकी बानी में वह स्वतः व्यक्त हो जाती है.
रैदासजी की यही बालसुलभ निश्छलता, सहजता और सरलता उन्हें उनके आराध्य से ऐसे जोड़े रखती है, जैसे वे कभी उनसे अलग हों ही नहीं. और इसलिए अपनी जाति की चर्चा भी वे सायास नहीं करते. वे अपने आराध्य के साथ लगातार भावपूर्ण संवाद में जब जितनी निकटता पाते हैं, जितना खुलते हैं, जितना विनम्र होते हैं, उनसे इसका जिक्र हुआ चला जाता है. एकबार तो वे गोपीवत प्रेम में डूबकर अपने कृष्ण से कहते हैं-
कहै रैदास सुनिं केसवे अंतहकरन बिचार। तुम्हारी भगति कै कारनैं फिरि ह्वै हौं चमार।।
(रैदास कहता है कि हे केशव, मेरे अंतःकरण की बात सुनो. तुम्हारी भक्ति की खातिर मुझे एक बार फिर से चमार बनने दो.)
तभी तो सिखों के चौथे गुरु रामदास ने कहा- साधू सरणि परै सो उबरै खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु चंडालु चंडईआ। नामा जैदेउ कबीरु त्रिलोचनु अउजाति रविदासु चमिआरु चमईआ।। (आदि ग्रंथ, अंग-835/6) यानी साधुओं की शरण में जो जाता है वह मुक्ति पाता है, चाहे वह क्षत्रिय हो, ब्राह्मण हो, शूद्र हो या वैश्य हो, या कथित अछूत से अछूत ही क्यों न हो. जैसे नामदेव, जयदेव, कबीर, त्रिलोचन और कथित नीच जाति के रविदास चमार.
और पांचवें गुरु अर्जन देव ने तो रैदास का ईश्वर तत्व में घुलकर एकाकार ही हो जाने की महिमा का इस तरह गान किया- भलो कबीरु दासु दासन को ऊतमु सैनु जनु नाई। ऊच ते ऊच नामदेउ समदरसी रविदास ठाकुर बणि आई।। (आदि ग्रंथ, अंग-1207/1) यानी कबीर तो भले हैं, दासों के दास हैं; विनम्र नाई सैन भी उत्तम हैं. नामदेव तो ऐसे उत्तमोत्तम हैं जिन्हें सब एक समान दिखाई देता है, और रविदास तो ईश्वर के साथ एकाकार ही हैं.
एक और भी बात हुई. कई संतों ने संत रैदास को पूर्व जन्म का ब्राह्मण माना. भक्त कवि नाभादास ने भी अपने ग्रंथ ‘भक्तमाल’ में रैदास जी को पिछले जन्म का ब्राह्मण घोषित किया. यह भी कहा गया कि वे चूंकि उन्होंने अपने पिछले जन्म में मांस-भक्षण किया था, इसलिए इस जन्म में उन्हें कथित ‘अछूत’ के घर जन्म लेना पड़ा. संत श्री गुरुदास लिखते हैं- ‘पूरब जन्म विप्र ही होता, मांस न छाड़यो निस दिन श्रोता। तिहि अपराधि नीच कुल दीना, पाछला जनम चीन्ही तिन लीना।।’
हालांकि यह स्पष्ट है कि संत रैदास की सिद्धि, प्रसिद्धि और लोकप्रियता देखकर ही उन्हें पिछले जन्म का ब्राह्मण माना जाने लगा होगा. एक ऐसा समाज जो किसी समय कथित ‘अछूतों’ को पूजा-उपासना तो दूर पढ़ने-लिखने तक का अधिकार नहीं देता था, वही समाज एक ‘अछूत’ को अराध्य संत के रूप में उदारता से स्वीकार भी कर लेता है।
परवर्ती संतों ने जहां-जहां भी संतों की महिमा का गान किया है वहां रैदास की भक्ति का ऐसा चित्रण किया है मानो रैदास हमेशा अपने आराध्य में विलीन ही रहते थे. ऐसी भक्ति उनमें प्रवेश कर गयी थी कि सबको लगता मानो स्वयं रैदास ही भक्ति में प्रवेश कर गए हों. दादू दयाल एक स्थान पर कहते हैं- दादू कहां लीन शुकदेव था, कहां पीपा रैदास।। दादू साचा क्यों छिपे, सकल लोक परकास।।
और दादू के अग्रणी शिष्य रज्जब जो जन्म से मुस्लिम थे, उन्होंने रैदास के बारे में कहा- आदि जयदेव आत रैदास, भाव भक्ति कटै कर्म फास। भक्ति का जो प्रकाश रैदास को मिला वह रैदास के व्यक्तित्व में ही समा गया था. इसे रज्जब ने आगे एक स्थान पर कहा- आदि मिली जयदेव को, रैदास समानी, सो दादू घर पैठियो, क्यों रहै निमानी।
स्वयं रैदास जी एक ऐसे युग में हिन्दू-मुसलमानों को एक साथ एक ही तत्व को ईश्वर मानने की सीख देते हैं जब उनके बीच घनघोर वैमनस्यता थी और अपने धर्म के बारे में अपेक्षाकृत अधिक सतर्क मुस्लिम शासक देश पर शासन कर रहे थे. रैदास कहते हैं-
‘कृष्ण-करीम, राम-हरि-राघव, जब लग एक न पेषा।
वेद-कतेब-कुरान-पुरानन सहज एक नहिं वेषा।।’
आगे लिखते हैं-
‘मन्दिर मस्जिद एक है, इन मंह अंतर नाहिं।
रैदास राम रहमान का, झगड़ऊ कोऊ नाहिं।।
रैदास हमारा राम जोई, सोई है रहमान।
काबा कासी जानि यहि, दोऊ एक समान।।’
एक स्थान पर तो हिन्दू और मुसलमानों की तुलना ‘कनक’ और ‘कंगन’ से करते हुए कहते हैं-
‘रैदास कंगन और कनक महिं, जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसउ ही अंतर नहीं, हिन्दुअन, तुरकन मांहि।।’
संत कबीर ने जब कहा होगा कि ‘जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान’ तो कहीं न कहीं उन्होंने यह भी संदेश दिया था कि साधुता हासिल करने के बाद कोई व्यक्ति किसी जाति का नहीं रह जाता. और इसलिए उन्होंने आगे भी कहा था कि साधुता हासिल करने के लिए भी तुम्हें सबसे पहले अपने जातिभाव से मुक्त होना पड़ेगा, चाहे तुम कथित ब्राह्मण हो या वैश्य. उनके शब्दों में- जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय। कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय।। और यह भी कि ‘भक्ति करै कोई सूरमा, जाति बरन कुल खोय.’
सन् 1560 के आस-पास ओरछा में जन्म से ब्राह्मण नामधारी एक संत हुए. नाम था हरिराम व्यास. संतत्व हासिल करते ही स्वाभाविक रूप से उनकी जाति की भावना चली गई. उन हरिराम व्यास ने अपनी एक साखी में जब रैदास के बारे में लिखा तो क्या खूब लिखा- व्यास बड़ाई छाड़ि कै, हरि चरणा चित जोरि. एक भक्त रैदास पर, वारूं ब्राह्मण कोरि. जन्म से कथित ब्राह्मण हरिराम व्यास तो एक भक्त रैदास पर लाखों ब्राह्मण को वारने पर उतारू हो गए. इतना ही नहीं उन्होंने आगे भी रैदास को अपना सगा घोषित करते हुए कहा- ‘इतनौ है सब कुटुम हमारौ, सैन धना अरु नामा पीपा और कबीर रैदास चमारौ. ’
रैदास के लिए तो आध्यात्मिक साधना के अधिकार के मामले में स्त्री-पुरुष के लिए प्रचलित भेद तक न रहा. उनके शिष्यों से अधिक तो उनकी शिष्याएं ही नामवती हुईं देखी जाती हैं. किसी ने जमना रैदासिनी के बारे में लिखा है, तो किसी ने चितौड़ की रानियों, चाहे वे रानी झाली हों या उनकी बहू मीरा बाई के साथ उनके गुरुवत् संबंधों के बारे में लिखा है. किसी ने तो परभुता नाम की एक शिष्या की भी चर्चा की है, जिन्हें कुछ लोग उनकी पत्नी भी बताते हैं.
इसलिए चाहे वे चित्तौड़ की रानियां हों, चाहे ओरछा का ब्राह्मण हरिराम व्यास हो, चाहे रज्जब मुसलमान हो या गुरु रामदास और गुरु अर्जन देव जैसे सिख गुरु हों, सबने एक स्वर में रैदास चमार को अपना सगा, अपना गुरु और अपने आराध्य तक की श्रेणी में रखा है. रैदास के द्वारा और रैदास के ऊपर कहे गए पदों में जन्मना जाति की चर्चा तो है, लेकिन जाति कहीं नहीं है. वहां जाति अप्रासंगिक हो चुकी है. ‘एक नूर से सब जग उपजा’ की भावना लिए ये सब फिर से उसी नूर से प्रकाशित हो उसमें खो जाना चाहते हैं. जिसने भी उस नूर से फिर से एकत्व हासिल कर लिया, वह बाकी जगत के लिए सार्वजनीन हो गया. उसकी पहचान का आधार उसकी जाति और उसका नाम नहीं रहा. कम से कम उसके स्वयं के लिए तो नहीं ही रहा. बाकियों के लिए भी वह केवल एक सुविधा के रूप में रहा. तभी तो एक ही रैदास के कितने नाम सबने अपनी-अपनी सुविधा से अपनाए. वह अलग-अलग नामों में भी एक और सार्वजनीन रहे.
संत रैदास की इसी सर्वस्वीकार्यता और सार्वजनीनता को समझना और उसे बार-बार कहना और सुनना आज हमारे लिए और भी जरूरी हो गया है. रैदास किसी भी जातिमात्र से मुक्ति का वही मार्ग दिखा रहे हैं जो शुद्ध आध्यात्मिक है. आध्यात्मिक जातिमुक्ति का यह तरीका मर्मस्पर्शी है, व्यापक-विराट है, अहिंसक है, और कारगर है. इसमें राजनीति की छौंक लगाने से शायद वह मलिन हो सकता है. अध्यात्म में जो करुणा की जगह दिखाई देती है वह आज की राजनीति में दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती है. अध्यात्म समन्वय की भावभूमि पर जनमानस को जोड़ता है. राजनीति में भी समन्वय और जोड़ने की संभावना होती होगी, लेकिन उसने अपने अभी तक की अपनी यात्रा से यही साबित किया है कि उसका जोड़ और तोड़ केवल सतही ही रहा है।
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