हम क्या सोचते हैं और क्या हो जाता है. हम तामीर कुछ करते हैं कुछ और ही बन जाता है, अक्सर यूं महसूस होता है कि ख़ुद की ज़िंदगी जैसे अपने कब्ज़े ही में नहीं. रास्ता कुछ है, मंजिल कहीं और. बावजूद इसके जो लोग कोशिश करना नहीं छोड़ते, वो एक रोज़ अपनी मंज़िल पा ही लेते हैं. फिर वे सफर की थकान भूल जाते हैं. अपने दौर के मशहूर संगीतकार रवि ने गायक बनने के लिए कई पापड़ बेले पर क़िस्मत ने उन्हें संगीतकार बना दिया, और ऐसा कि अपना दौर गुज़र जाने के बाद भी जब मौका मिला, उन्होंने कमाल का संगीत रच दिया.
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रविशंकर शर्मा गायक बनने आये थे. कई साल धक्के खाने के बाद वे हेमंत कुमार के सहायक बनने में कामयाब हुए. फ़िल्म ‘जागृति’(1954) का गीत ‘हम लाये हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के’ का संगीत रवि ने ही दिया था पर क्रेडिट हेमंत कुमार को मिला. कहा जाता है कि फ़िल्म नागिन के गीत ‘मेरा मन डोले, मेरा तन डोले’ में रवि ने बीन बजाई थी. लेकिन असल में यह बीन नहीं, क्लेवायलिन था.
खैर, रवि के संघर्ष की बात हो रही थी. समय ने पलटा खाया और प्रोडूसर देवेन्द्र गोयल ने उनका हाथ थाम लिया. उन्हें फ़िल्म ‘वचन’ मिली जो सिल्वर जुबली हुई. उसका गीत ‘चंदा मामा दूर के, पुए पकाएं बूर के’ आज तलक गया जाता है. पंकज राग ‘धुनों की यात्रा’ में लिखते हैं, ‘बहुत कम ही मालूम है कि इस गीत के अंतरे और मुखड़े में जो इंटरल्यूड बजता है, उसी को लेकर लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने फ़िल्म ‘तेज़ाब’ का गीत ‘एक दो तीन चार’ रचकर मशहूर माधुरी दीक्षित को अमर बना दिया है’. सोचने की बात है कि क्या ये बात माधुरी को मालूम होगी? यह गाना सुनिए और फिर देखिये.
रवि के संगीत की ख़ास बात यह है कि वे फ़िल्म के बैकड्रॉप के हिसाब से संगीत देते थे. यानी कि अगर फिल्म पौराणिक है तो उन्होंने भक्ति रस वाले गीत रचे और अगर मुस्लिम समाज की कहानी है तो ग़ज़लों और नज़्मों पर नाज़ुक संगीत देकर उस तहज़ीब को गीतों में जिंदा कर दिया. मिसाल के तौर पर ‘दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अंखियां प्यासी रे’ आज भी सर्वश्रेष्ठ भजनों की फ़ेहरिस्त में आता है. दूसरी तरफ़ ‘चौदहवीं का चांद’ जैसा गाना भी है. यह फ़िल्म बॉलीवुड में मील का पत्थर है. मजेदार बात यह है कि गीतकार शकील बदायूंनी और संगीतकार नौशाद की जोड़ी ने बेहतरीन गाने दिए हैं पर शकील को पहला फिल्मफ़ेयर सम्मान ‘चौदहवीं का चांद’ गाने के लिए मिला. इस गीत का छायांकन, बोल, रफ़ी साहब की आवाज़, रवि का संगीत और वहीदा रहमान की ख़ूबसूरती ने सिनेमा में रोमांस की परिभाषा ही बदल कर रख दी और रवि को रातों-रात हिंदुस्तान में मशहूर कर दिया. हालांकि, यह फ़िल्म ब्लैक एंड वाइट में थी, पर इस गीत की रंगीनियत रंगीन में कुछ और है बन पड़ी है.
रवि उन चंद संगीतकारों में से एक हैं जो हर गीत के लिए कई- कई धुनें बनाया करते थे. फ़िल्म ‘गुमराह’ का वह अमर गीत ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों’ के लिए उन्होंने 31 धुनें बनायी थीं. इस नज़्म में साहिर लुधियानवी का फ़लसफ़ा पुरज़ोर तरीक़े से नुमायां हुआ. यह नज़्म साहिर का अपना क़िस्सा भी है. उन्होंने कहा, ‘वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन उसे एक खुबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा’. साहिर के दिल पर सुधा मल्होत्रा से जुदा होने का ज़ख्म ताज़ा था, रवि अपने उरूज़ पर थे और ये गीत आज तक उफ़ुक (क्षितिज) पर है जहां कोई दूसरा गीत नहीं पंहुच पाया.
साहिर तो ख़ैर अपनी ज़िंदगी में बार-बार हर अफ़साने को ख़ूबसूरत मोड़ देकर आगे बढ़ते रहे और सिनेमा पर फ़लसफ़े गढ़ते रहे. पर रवि के लिए साहिर का साथ मानो अलादीन का चिराग़ था. यह ऐसा इत्तेफ़ाक था जिसने रवि को एलीट यानि अभिजात्य श्रेणी का संगीत रचने के लिए प्रेरित किया. असल में बात यह है कि बीआर चोपड़ा कैंप के संगीतकार थे एन दत्ता और साहिर उनके स्थाई गीतकार थे. दत्ता की ख़राब सेहत के चलते बीआर चोपड़ा ने रवि को चुन लिया. यहां से चोपड़ा-साहिर-रवि की तिकड़ी बनी.
पर अभी एक इत्तेफ़ाक और होना बाकी था. यह कि मोहम्मद रफ़ी और बीआर चोपड़ा में फ़िल्म ‘धर्मपुत्र’ के दौरान किसी बात पर अनबन हो गई और इसका फ़ायदा महेंद्र कपूर को हुआ. इस चौकड़ी ने उस दशक में धूम मचा दी. ‘वक्त’, ‘गुमराह’, ‘हमराज’ फ़िल्मों के नायाब गाने बने. ‘हमराज़’ के गीत ‘नीले गगन के तले’ के लिए महेंद्र कपूर को फिल्मफ़ेयर अवार्ड मिला. इस गीत में साहिर ने जिस तरह क़ुदरत की ख़ूबसूरती और प्रेम की पवित्रता को गूंथा वह अन्य किसी और गीत में किसी अन्य गीतकार से नहीं हो पाया. बरसों बाद, एक प्रोग्राम में जावेद अख्तर ने कहा था कि साहिर इतना बढ़िया इसलिए लिख पाते थे क्यूंकि वे इश्क़ को कुदरत की उपमा देते थे. यह महेंद्र कपूर की किस्मत थी वरना वे सारे गीत शायद रफ़ी साहब के हिस्से आ जाते.
रवि के लिए उत्कृष्ट शायरी बेहद ज़रूरी थे और यह ईंधन उन्हें साहिर से मिलता था. इसीलिए कोई ताज्जुब नहीं कि रवि उन चंद संगीतकारों में से थे जो बोलों पर संगीत देते थे. साहिर को भी यही भाता था. इस बात याद आता है कि एक बार कैफ़ी आज़मी से किसी ने फ़िल्मी गीतों के गिरते हुए स्तर पर पूछा तो उन्होंने कहा ‘अब धुनों पर बोल बिठाये जाते हैं. ये कुछ ऐसा है कि पहले कफ़न ले आते हैं और फिर उसके हिसाब से लाश लाई जाती है.’
फ़िल्म ‘वक़्त’ का भी संगीत भी ऊंचे दर्ज़े का था. हर एक गीत हिट हुआ. फ़िल्म तो कमाल ही थी. मन्ना डे का ‘ऐ मेरी ज़ोहरा ज़बीं’ या रफ़ी का गाया टाइटल सांग ‘वक़्त के दिन और रात’ या आशा भोंसले का ‘आगे भी जाने ना तू’ और महेंद्र कपूर के डुएट सब सराहे गए.
1970 के सालों में फ़िल्मों में शायरी कुछ हलकी हुई और संगीत का पहलू कमज़ोर हुआ तो कई लोग उस आंधी में उड़ गए. उस दौर में भी ‘आदमी सड़क का’ फ़िल्म में रवि का एक गीत बड़ा मशहूर हुआ - ‘आज मेरे यार की शादी है’. यह गीत आज भी हर शादी में बजाया जाता है और हम आज तक उस पर नाचते हैं. ऐसे ही हर बच्चे के जन्मदिन पर बजने वाला गीत ‘हम भी अगर बच्चे होते’ रवि ने ‘एक फूल दो माली’ के लिए रचा था. इस फ़िल्म में मन्ना डे का गाया ‘तुझे सूरज कहूं या चंदा’ भी कालजयी गीत है.
1980 के दौर में एक फिल्म आई थी - ‘निकाह’. बीआर चोपड़ा ने एक नयी हीरोइन को लांच किया था. नाम था, सलमा आगा. वे जितनी ख़ूबसूरत थीं, उतनी ही ख़ूबसूरत और खनकती हुई उनकी आवाज़ थी. शायद शमशाद बेग़म साहिबा के बाद ऐसी आवाज़ आई थी जो पंजाबी पुट लिए हुई थी. रवि के संगीत में उन्होंने उन्होंने बड़े दिलकश गाने गाये. ‘दिल के अरमां आंसुओं में बह गए’ बहुत हिट हुआ. निकाह के तकरीबन सभी गाने खूब चले. पर एक गीत ‘फ़ज़ा भी है जवां जवां’ में गीतकार हसन कमाल ने साहिर के बराबर तो नहीं, पर फिर भी ख़ूबसूरत फ़लसफ़ा दिया. इसके बोल थे ‘बुझी मगर बुझी नहीं जा जाने कैसी प्यास है, क़रार दिल से आज भी न दूर है न पास है, ये खेल धूप छांव का, ये क़ुर्बतें ये दूरियां, सुना रहा है ये समां सुनी-सुनी से दास्तां.’
यहां तक आते-आते बॉलीवुड अब रवि से धूप-छांव का खेलने लग गया था. बीआर चोपड़ा कुछ ख़ास नहीं कर पा रहे थे. संगीत बदलने लगा था और शायरी कमतर होती गई थी. लिहाज़ा, रवि मुंबई से दूर होते चले गए. उन्होंने मलयालम फ़िल्मों में संगीत दिया. वहां भी सराहे गए. पर एक बार हाशिये पर आ जाने के बाद पलटने की हिम्मत और उम्र में अक्सर सीधा-सीधा रिश्ता होता है. रवि का ज़ेहन तो काम कर रहा था पर जिस्म थक गया था. उन्होंने ज़्यादा कोशिश नहीं की और न ही किसी ने ज़हमत उठाई कि उन्हें मुख्यधारा में लाया जाए. इस इंडस्ट्री का निज़ाम जंगल के निज़ाम से जुदा नहीं है. पर यह भी सच है कि रवि का संगीत आज भी लोगों के दिलों से जुदा नहीं है.
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