बच्चे अपनी मां से, नानी से या दादी से रात में ही कहानियां क्यों सुनते हैं, इस सवाल के जवाब में कृश्न चंदर ने कहा था, ‘रात का डर मिटाने के लिए’. पर उन्होंने यह नहीं लिखा कि लिखने वाले किस डर से लिखते हैं? हां, यह ज़रूर कहा था कि उन्होंने क्यों लिखा?
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कृश्न चंदर की आपबीती है - ‘बचपन में एक बार मेरे पिता राजा बलदेव सिंह (एक रियासत के राजा) को देखने गए जो बीमार थे, उनके साथ में भी गया. वहां मेरी मुलाकात दो राजकुमारों से हुई, उन्होंने मुझे अपने खिलौने दिखाए और मुझसे पूछा, “डॉक्टर के बेटे! तुम्हारे पास क्या है दिखाने को?” मैंने झेंप कर कहा, ‘कुछ नहीं है’. उन्होंने मेरी जेब टटोलकर उसमें से सफ़ेद हत्थी वाला चाकू निकाल लिया. जब मैंने अपना चाक़ू मांगा तो राजकुमारों ने नहीं दिया. मैंने उन्हें चांटा मार दिया. वो दोनों मुझ पर पिल पड़े और ख़ूब मारा. मेरे रोने पर पिताजी आये और माजरा जानकर उन्होंने मुझे ही चांटा मारते हुए कहा “बदमाश! राजकुमार पर हाथ उठाता है” वह चाकू वापस नहीं मिला.’
कृश्न चंदर लिखते हैं, ‘यह तो मुझे बाद में मालूम हुआ कि लोग इसी तरह करते हैं. सफ़ेद हत्थी वाला चाकू, कोई हसीन लड़की, ज़रख़ेज़ ज़मीन का टुकड़ा, सब इसी तरह हथिया लेते हैं. फिर वापस नहीं करते. इसी तरह तो जागीरदारी चलती है. मगर अच्छा नहीं किया इन लोगों ने. दो आने के चाक़ू के लिए इन्होंने मुझे अपना दुश्मन बना लिया. वो सफ़ेद चाक़ू आज तक मेरे दिल में खुबा हुआ है. इसी तरह आज तक मैंने जो कुछ लिखा है वो इसी सफ़ेद चाकू को वापस लेने के लिए लिखा है’
इतना काफ़ी है समझने के लिए कि कृश्न चंदर साम्यवादी लेखक थे और चाकू छीनने वाले पूंजीपति व्यवस्था के मालिक. उन्होंने यह जंग ताज़िन्दगी लड़ी. पर इस लेखक की एक समस्या है. उसके किरदार अक्सर उसी की ज़ुबान ही बोलते हैं. क्या करें! समस्या है तो है. कृश्न चंदर साम्यवाद से इस कदर प्रभावित थे कि 1944 के प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा, ‘अब वक़्त आ गया है कि हम लेखक खुल्लमखुल्ला साम्यवाद का प्रोपैगेंडा शुरू कर दें क्यूंकि अब हमारे दो ही रास्ते हैं- निरंतर गतिशील साम्यवादी विचारधारा या निष्क्रिय और निश्चेष्ट मृत्यु.’
पर हर बार ऐसा नहीं हुआ कि इस लेखक ने किरदार बनकर हमारे ज़हन में कुछ ठूंसा हो. ‘महालक्ष्मी का पुल’ में किरदार सामने नहीं आता. वह एक तरफ़ जहां पुल की एक रेलिंग पर टंगी हुई मटमैली, फटी, बदरंगी साड़ियों के ज़रिये उन्हें पहनने वाली औरतों का कोलाज बनाता है, तो दूसरी रेलिंग पर सूख रही महंगी और चमकदार साड़ी पहनने वालियों का पोर्ट्रेट. वो हमसे समाजवादी बनने को नहीं कहता. बस इतना भर मालूम करने की कोशिश करता है कि हम पुल के किस ओर खड़े हैं? यह पूछना तो ग़लत नहीं कहा सकता! वह ‘चाक़ू न पाने की टीस’ हर सर्वहारा के दिल में है और उसी टीस को कृश्न चंदर ने लिखा है.
कृश्न चंदर का जन्म गुजरांवाला, पाकिस्तान में हुआ था. पूत के पांव पालने में ही दिख गए थे. स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही अपने मास्टर पर व्यंग्य लिखकर उन्होंने पिता की मार और कसम खाई कि अब ऐसा नहीं करना है. पर ऐसा नहीं हो पाया. पढ़ाई के बाद आकाशवाणी में नौकरी तो लगी पर जी नहीं. 1939 में शाया (प्रकाशित) होने वाले कहानी-संग्रह ‘नज़ारे’ की भूमिका में कुछ यूं लिखा: ‘उस कृश्न चंदर की याद में, जिसे गुज़िश्ता नवम्बर की एक थकी और उदास शाम को ख़ुद इन हाथों ने गला घोंटकर हमेशा के लिए मौत के घाट उतार दिया.’
ख़ुशक़िस्मती कहिये वे ‘मरे’ नहीं, बस नीमजां (अधमरा) हुए और जल्द नौकरी छोड़ होशमंद कहलाए. इस दौरान कृश्न चंदर ने कुछ नाटक, कहानियां और उपन्यास लिखे. ‘शिकस्त’ इस कड़ी में सबसे ऊपर रखा जा सकता है जिसने उन्हें मुख्तलिफ़ स्टाइल का क़िस्सागो के तौर पर मशहूर कर दिया.
वैसे कृश्न चंदर का अदबी सफ़र ‘जेहलम पर नाव में’ से शुरू होता है. इसमें किरदार दो औरतों- एक ख़ूबसूरत और एक बदसूरत- के साथ नाव में जेहलम नदी पार रहा है. कृश्न चंदर कहानी में कुंठा दिखाते वक़्त भी ईमानदार थे. वे लिखते हैं ‘वह (ख़ूबसूरत लड़की) किसी बिछड़े प्रेमी की याद में रो रही थी. मैंने चाहा कि मैं गुलाब की नर्म नाज़ुक पंखुड़ियों से उसके आंसू पोंछ डालूं और उससे पूछूं, “बता हे सुंदरी! तुझे क्या ग़म है?” इसके बजाय मैंने उस बदसूरत औरत की निगाहें अपने चेहरे पर जमी हुई देखीं.
इससे याद आता है, कृश्न चंदर ने अपने बारे में एक निबंध ‘सेल्फ़ पोर्ट्रेट’ में लिखा है, ‘मैंने अनेक बार झूठी कसमें खाई हैं, अपने आप को और दूसरों को धोखे दिए हैं, ख़ुशामदें की हैं, लड़ा हूं, शराब पी है, भंग और चरस भी. मैं अपनी प्रशंसा से खुश हुआ हूं, दूसरों की प्रशंसा से जला हूं. जब किसी से काम पड़ता है तो उसके पीछे हो लेता हूं और काम होते हुए उसे ऐसे फ़रामोश कर देता हूं जैसे वह मेरी ज़िंदगी में कभी था ही नहीं. कई बार दोस्तों ने मुझसे उधार मांगा, जेब में होते हुए भी मैंने पैसे नहीं दिए. कई बार जब मैंने उधार मांगा और उन्होंने मुझे नहीं दिए तो मैंने दिल-ही-दिल में उन्हें गाली दी. कई बार मैंने सड़क पर चलती औरतों को बहका लिया, क्यूंकि वे ख़ूबसूरत थीं. अब अगर वे सही सलामत घर पहुंच गयी हैं तो यह उनकी और कानून की ख़ुशकिस्मती है. वरना जहां तक मेरे इरादे का ताल्लुक है मैं उन्हें बहका और बरगला चुका हूं.’
वे आगे लिखते हैं, ‘इसी तरह मैंने कई बार किसी बात बार तैश खाकर उसे क़त्ल कर दिया है और अब अगर वह शख़्स जिंदा है और चलता-फिरता है तो महज़ अपनी शारीरिक शक्ति के बलबूते पर. वरना जहां तक मेरा ताल्लुक है मैं उसे क़त्ल कर चुका हूँ. मैंने इस तरह अंदाज़ा लगाया है कि मैं पचास औरतों को बहका-बरगला चुका हूँ, दो सौ आदमी क़त्ल कर चुका हूँ. इनमें ख्वाजा अहमद अब्बास, सरदार जाफ़री, राजिंदर सिंह बेदी, माओत्से-तुंग, विंस्टन चर्चिल, दिलीप कुमार, धर्मवीर भारती और मेरा सगा भाई महेंद्र नाथ भी शामिल है.’
अब यह सिर्फ़ लेखक की ईमानदारी है या समाज की हक़ीक़त, यह लंबी बहस है. सआदत हसन मंटो पर जब अश्लीलता का मुकदमा चला तो उन्होंने अपनी सफाई में कहा कि वही लिखते हैं जो समाज में व्याप्त है. साहिर ने कहा था, ‘दुनिया ने तजरबात ओ हवादिस की शक्ल में. जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं’.
खैर, बात कृश्न चंदर के साहित्यिक सफ़र की हो रही थी. उनकी कहानियां लगातार कई अखबारों और पत्रिकाओं में छपीं और वे लोकप्रिय होते चले गए. बहुत जल्द वे उर्दू के आलातरीन अफ़सानानिगारों में गिने जाने लगे. यह वह कहकशां थी जिसमें मंटो, राजिंदर सिंह बेदी, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ और इस्मत चुगतई जैसे लोग शामिल थे.
कृश्न चंदर ताउम्र आपने राजनैतिक सिद्धांतों पर डटे रहे. सर्वहारा का दर्द उनकी कहानियों का थीम था. पर यह विचारधारा ईसा के मात्र कहने देने भर कि ‘दुनिया हो जाये और हो गई’ जैसी नहीं है. कृश्न चंदर ने एक लंबा सफ़र तय किया. फैज़ अहमद फैज़ की तरह उन्होंने भी रुमानीवाद से शुरुआत की और फिर साम्यवाद में उन्हें रोमांटिसिज्म नज़र आया.
कृश्न चंदर ख़ुशक़िस्मत लेखक रहे हैं या शायद अकेले उर्दू के लेखक रहे हैं जिन्होंने किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी के दम पर अपना जीवन गुज़ार लिया. उनके हिस्से में 32 कहानी संग्रह, 46 नॉवेल, 15-20 नाटक, कुछ किताबों की एडिटिंग, दो एक फ़िल्में, कुछ के स्क्रीनप्ले डायलॉग और वृहद बच्चों का साहित्य है. प्रेमचंद और रबीन्द्रनाथ ठाकुर के बाद वे ऐसे तीसरे लेखक हैं जिनकी रचनाओं का 16 भारतीय और 65 से अधिक विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है. चूंकि वे साम्यवादी थे, इसलिए सोवियत रूस में काफ़ी पसंद किये गए.
वह समय कृश्न चंदर का था और जब आठ मार्च 1977 को यह समय पूरा हुआ तो उससे एक रात पहले उन्होंने अपनी पत्नी सलमा सिद्दीकी से कहा, ‘सलमा, नेचर से इतनी जंग करना ठीक नहीं. मेरा बुलावा आ ही गया है तो मुझे मुस्कुराते हुए रूखसत करो और मेरे मरने के फ़ौरन बाद यहां से चली जाना. रोने-धोने की ज़रूरत नहीं. यहां और भी कई दिल के मरीज़ हैं. मुमकिन है, रोने धोने से उन्हें तकलीफ़ हो. मैं जानता हूं कि मेरी ज़िंदगी का सफ़र ख़त्म हो चुका है और इस बात पर तुम फूहड़ता से मातम नहीं करोगी.’
कृश्न चंदर साम्यवादी तो थे पर जंग के ख़िलाफ़. ‘नए जाविये’ की भूमिका में उन्होंने लिखा, ‘लड़ाई से कोई हस्सास (संवेदनशील) अदीब ख़ुश नहीं होता...जब एक सिपाही मरता है तो एक दुनिया मरती है. एक ख़याल मरता है, एक उम्मीद मरती है और एक किताब मरती है. साइंस की नयी ईजाद, सच्चाई, सौन्दर्य सब मर जाता है और दुनिया पहले से अधिक वीरान, ग़रीब और कमज़ोर हो जाती है.’
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