बीते बुधवार को जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी की अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती का एक बयान सुर्खियों में रहा. उनका कहना था कि राज्य में गठबंधन सरकार के समय भाजपा जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर पर प्रतिबंध लगाना चाहती थी, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं होने दिया. इससे पहले महबूबा मुफ्ती ने जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर पर पाबंदी लगाने के केंद्र के फैसले के खिलाफ छह मार्च को अनंतनाग में एक रैली की अगुवाई भी की थी. संगठन पर यह पाबंदी आतंकी संगठनों से करीबी संबंध होने के आरोप में लगाई गई है.
बीते महीने जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर पर यह पाबंदी लगने के बाद से इस पर लगातार शिकंजा कसा जा रहा है. इसके दफ़्तर और खाते सील कर दिए गए है. पार्टी मुखिया अब्दुल हामिद फयाज़ और अन्य बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए हैं. पार्टी द्वारा संचालित स्कूलों की तलाशी ली गई है.
पूरे कश्मीर में इस कार्रवाई का विरोध किया जा रहा है. महबूबा मुफ्ती के अलावा नेशनल कांफ्रेंस के उमर अब्दुल्ला भी जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर पर प्रतिबंध को ग़लत मानते हैं. उनका कहना है कि इसका गहरा सामाजिक असर पड़ेगा. उधर, महबूबा मुफ़्ती की दलील है कि यह संगठन सिर्फ ग़रीब मुसलमान बच्चों को दीनी इल्म देने का काम करता है और साथ ही यह कई नौजवानों को रोज़गार भी मुहैया करा रहा है. जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर के महासचिव फ़हीम मोहम्मद रमज़ान भी यह बात दोहराते हैं. वे संगठन पर प्रतिबंध को संविधान के खिलाफ बताते हैं.
जमात-ए-इस्लामी और मौलाना मौदूदी
जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर की जड़ें 1941 तक जाती हैं जब इस्लामी विचारक मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी ने जमाते इस्लामी की स्थापना की थी. बाद में इसके कई धड़े बन गए. इनमें जमात-ए-इस्लामी हिंद, जमात-ए-इस्लामी-पाकिस्तान और जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश और जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर प्रमुख हैं. अब ये सभी स्वतंत्र रूप से काम करते हैं.
जमात-ए-इस्लामी की स्थापना मौलाना मौदूदी ने इंडियन नेशनल कांग्रेस (आईएनसी) और मुस्लिम लीग के विकल्प के तौर पर की थी. उनकी नज़र में कांग्रेस भारत में हिंदू शासन स्थापित करने की फ़िराक में थी और मुस्लिम लीग पश्चिम की पार्टियों की भोंडी नक़ल थी. ज़ाहिर है, हिंदुस्तान की आज़ादी के आसपास उठ रहे सवाल ‘अब मुसलमान कहां जाए?’ का जवाब देने के लिए जमात की स्थापना हुई.
मौदूदी एक तरफ चिश्तिया सिलसिले यानी अजमेर वाले ख्वाजा ग़रीब नवाज़ और दूसरी तरफ़ मुस्लिम समाज सुधारक सैयद अहमद खान के वंशज थे. हिंदुस्तान की कई मुस्लिम रियासतों जैसे हैदराबाद, रामपुर आदि में मुस्लिम शासन के ख़ात्मे और देश में धर्मनिरपेक्षता के उभार से वे परेशान थे. इसलिए देश भर में इस्लाम की झंडाबरदारी करते हुए मौदूदी मुस्लिम समुदाय को अपने साथ जोड़ना चाह रहे थे. लेकिन कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रभाव के चलते उन्हें कुछ ख़ास सफलता हासिल नहीं हुई.
जमात बनने के छह साल बाद ही आज़ादी आ गयी और मौदूदी ने पाकिस्तान का रुख कर लिया. इससे पार्टी के दो फाड़ हुए-जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान और जमात-ए-इस्लामी हिंद. पाकिस्तान में मौदूदी का काफी दख़ल रहा. ज़िया-उल हक़ की सरकार का कट्टरवाद को बढ़ावा देना और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को फांसी की सज़ा की हिमायत करना उनकी ही देन थी. मौदूदी कट्टरवाद और रुढ़िवाद के समर्थक थे. मिसाल के तौर पर वे औरतों को परदे और हरम में रखने के हक़ में थे, अहमदिया मुसलमानों को वे मुसलमान ही नहीं मानते थे.
1948 में एक भाषण में मौलाना मौदूदी ने कहा था कि भारत एक राष्ट्र नहीं हो सकता. उनका कहना था, ‘इस्लाम और राष्ट्रवाद के सिद्धांतों और मकसदों पर सरसरी तौर पर भी नज़र डाली जाए तो समझ आता है कि ये दोनों दूसरे के विपरीत हैं.’ मौदूदी का मानना था कि जहां राष्ट्रीयता है वहां इस्लाम कभी फल-फूल नहीं सकता और जहां इस्लाम है वहां राष्ट्रीयता के लिए कोई जगह नहीं है. उनका कहना था, ‘राष्ट्रीयता की तरक्की के मायने यह हैं कि इस्लाम के फैलने का रास्ता बंद हो जाए और इस्लाम के मायने यह हैं कि राष्ट्रीयता जड़ से उखड़ जाए. जाहिर है एक शख्स एक वक्त में इन दोनों में से किसी एक का हामी ही हो सकता है.’
मौदूदी जॉन स्ट्रेची के ख़याल से सहमत थे. ब्रिटिश इंडिया के इस आईसीएस अफसर ने ‘इंडिया’ नाम की अपनी एक क़िताब में लिखा था, ‘भारत एक देश नहीं है. ये कई देशों से मिलकर बना हुआ महाद्वीप है. स्पेन और इंग्लैंड में समानता हो सकती है, बंगाल और पंजाब में बिलकुल भी नहीं है.’ ठीक इसी प्रकार मौदूदी का कहना था कि यूरोप की विभिन्न राष्ट्रीयताओं से भी कहीं गहरी असमानताएं भारत के हिंदू और मुसलमान राष्ट्रों (तब तक राज्यों का विलय नहीं हुआ था) में हैं. मौदूदी के मुताबिक़ एक जाति दूसरी जाति से उतनी ही अलग है जितना मशरिक (पूर्व) मग़रिब (पश्चिम) से और यहां संस्कृतियों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है.
मौदूदी ने एक बार कहा था, ‘नेताओं के ख़यालात कि लोगों के कंधों पर से विदेशी जुए को हटाने के लिए राष्ट्रवाद का प्रचार, और इसके लिए राष्ट्रीयता का निर्माण, मतलब यह कि तमाम मौजूदा राष्ट्रीयताओं को ख़त्म कर एक नए राष्ट्रवाद का निर्माण करना होगा, बिलकुल बचकाने हैं. ऐसा देश जहां कई राष्ट्रीयताएं हैं उनको एक राष्ट्रीयता में ढालना ग़ैर ज़रूरी ही नहीं सैद्धांतिक तौर पर ग़लत होगा और इसके परिणाम भी बुरे ही होंगे.’ साफ है कि मौदूदी की नज़र में हिंदुस्तान के बजाय पाकिस्तान राष्ट्र की अवधारणा में सटीक बैठता था क्यूंकि वहां सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पूरी संभावना थी.
यहां एक और बड़ी दिलचस्प बात है. मौदूदी मुस्लिम पाकिस्तान नहीं चाहते थे. वे इस्लामिक पाकिस्तान के ख्वाहिशमंद थे. क्योंकि इस्लामिक मुल्क का कानून और संविधान क़ुरान पर टिका होता है. मुस्लिम मुल्क का संविधान कुछ भी हो सकता है.
मौदूदी के पाकिस्तान जाने के बाद यहां बचे जमात के ढांचे को जमात-ए-इस्लामी हिंद नाम दिया गया. इस पर काफ़ी अध्ययन कर चुके इरफ़ान अहमद का लिखना है कि इसके सिद्धांत मूल पार्टी से अलग नहीं थे. भारत में पार्टी का मकसद इक़ामत-ए-दीन यानी धर्म की स्थापना था और 1952 तक जम्मू कश्मीर में इसकी एकमात्र इकाई थी. पार्टी का कैडर निचले तबके का था जिसने मज़हबी तालीम हासिल की हुई थी. ज़ाहिर है, जमात-ए-इस्लामी हिंद पर मौदूदी का कट्टरवाद हावी रहा.
जमात ए इस्लामी हिंद का संविधान है- आम राय कायम करके समाज में सही क्रांति लाना. बहुत से लोग मानते हैं कि सही क्रांति से मतलब सीधे तौर पर धार्मिक प्रचार करके इस्लाम का बढ़ावा ही है. इसके कई कार्यकर्ता भारत में इस्लाम का प्रचार सही मानते हैं पर अफ़गानिस्तान में ईसाइयों को ऐसा करने से रोकने की तालिबान की मुहिम का समर्थन करते हैं. उनकी नज़र में इस्लाम मुकम्मल मज़हब है, ईसाई या हिंदू ग़लत मज़हब हैं.
भारत में ज़ाहिर तौर पर पार्टी मुस्लिम कट्टर विचारधारा को आगे लेकर चली है. जमाते-इस्लामी के अखबार ‘सहरोज़ा दावत’ के मुताबिक़ अमेरिका में ट्विन टावर्स पर हमले के पीछे ओसामा बिन लादेन नहीं बल्कि यहूदियों का हाथ था. यह बात छोटी सही पर अलग और यकीनन ग़लत नज़रिए को पेश करती है. नजरिया यह कि इस्लाम को दुनिया भर में ग़लत ढंग से प्रचारित किया जा रहा है और इसकी मुखालफ़त करने की जदोजहद में यह नजरिया ओसामा बिन लादेन को गुनाहगार नहीं मानता.
1953 में बनी जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर की सबसे पुरानी पार्टियों में से एक रही है. 1980 के दशक तक इसका ऐसा कोई इतिहास नहीं है जब इसने हथियार उठाये हों. बल्कि एक कश्मीरी आतंकवादी मकबूल भट्ट को जब फांसी की सज़ा सुनाई गयी थी तो जमात ने उससे हमदर्दी तो रखी पर उसकी मौत को शहादत का दर्ज़ा नहीं दिया था. बाद के सालों में इसी पार्टी से सैयद मोहम्मद युसूफ़ शाह उर्फ़ सैयद सलाउद्दीन निकला जो हिजबुल मुजाहिद्दीन का सरगना बना और जिसे अमेरिका वैश्विक आतंकी घोषित कर चुका है. हालंकि बाद में जमात ने किसी भी तरह की आतंकी घटनाओं से दूरी बनाने का दावा किया. वहीं सुरक्षा एजेंसियां दावा करती हैं कि जमात की धार्मिक गतिविधियां कश्मीर में नौजवानों को आतंक की राह पर डालने का काम करती हैं.
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