लोकसभा चुनाव की तारीखें घोषित होने के दो दिन बाद केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने महंगाई और औद्योगिक उत्पादन से संबंधित आंकड़े जारी किए. इन आंकड़ों के मुताबिक, फरवरी 2019 में खुदरा महंगाई 2.57 फीसद पर पहुंचकर पिछले चार महीनों के उच्चतम स्तर पर रही. इसके अलावा जनवरी, 2019 में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर चौंकाने वाली रफ्तार से घट कर 1.7 प्रतिशत पर ही रह गई. सामान्य नजरिये से देखें तो महंगाई का बढ़ना और औद्योगिक उत्पादन का घटना, दोनों खबरें अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी नहीं हैं. लेकिन, पिछले वित्तीय वर्ष में महंगाई का अर्थव्यवस्था के अन्य आंकड़ों के साथ जो रिश्ता रहा है, उसे इस सामान्य नजरिये से देखना ठीक नहीं होगा.
आर्थिक जानकार मानते हैं कि पिछले एक साल से मोदी सरकार के लिए महंगाई का ज्यादा होना नहीं बल्कि कम होना समस्या बनता जा रहा है. इस वजह से आरबीआई अप्रैल में होने वाली अपनी अगली मौद्रिक समिति (एमपीसी) की बैठक में मंहगाई के बजाय औद्योगिक उत्पादन को ध्यान में रखते हुए अपनी ब्याज दरों में कटौती कर सकता है. जानकारों का मानना है कि ऐसा इसलिए भी होगा कि महंगाई बढ़ने के बाद भी अभी भी काफी हद तक नियंत्रित है. लेकिन अर्थव्यवस्था के व्यापक परिदृश्य को देखें तो इसके पीछे और भी कारण होंगे.
पिछले साल भर के महंगाई के आंकड़ों पर गौर करें तो साफ पता चलता है कि महंगाई कम होने की सबसे बड़ी वजह मांग और उपभोग का कम होना रहा है. यह कमी सबसे ज्यादा देश के ग्रामीण इलाकों में दर्ज की गई. साल 2015 तक लोगों का निजी उपभोग खर्च मोटे तौर पर जीडीपी में 60 फीसद हिस्सेदारी रखता था. इसके बाद से इसके घटने की शुरुआत हुई और एक मोटे अनुमान के तौर पर दिसंबर 2018 तक यह आंकड़ा 54 फीसद पर पहुंच चुका है. जाहिर सी बात है कि इसका असर अंत में जीडीपी वृद्धि दर या विकास दर पर पड़ने वाला है. सरकार इसकी भरपाई के लिए अपना खर्च बढ़ा रही है लेकिन इसकी वजह से राजकोषीय घाटा और बढ़ रहा है. यह आर्थिक सुधारों के लिहाज से चिंताजनक है.
अगर बीते कुछ महीनों को देखें तो महंगाई के रसातल में होने के बाद भी देश में न तो खपत बढ़ी और न खर्च. जबकि महंगाई कम होने पर सामान्य आर्थिक समझ कहती है कि खर्च बढ़ना चाहिए.
कम महंगाई का अगर थोड़ा और विश्लेषण करें तो देश के ग्रामीण क्षेत्रों की बदहाली की वजह भी साफ हो जाती है. पिछले पूरे साल अगर खाद्य पदार्थों की महंगाई की बात करें तो यह या तो नकारात्मक रही या स्थिर. इसका मतलब यह है कि पिछले साल अनाज और दालों की कीमतें बढ़ने के बजाय घटी हैं. शहरी मध्यम वर्ग के लिए यह राहत की बात हो सकती है, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है किसानों को लगातार अपनी फसलों की औसत कीमत भी नहीं मिल रही है.
अगर इस हिसाब से देखें तो पिछले महीने महंगाई का बढ़ना कुछ राहत की बात माना जा सकता है. लेकिन फरवरी में 2.57 फीसद पर पहुंची महंगाई दर को गौर से देखने पर पता चलता है कि महंगाई के सूचकांक में बढोतरी की वजह स्वास्थ सेवाओं, शिक्षा और आवास की कीमतों में वृद्धि है. इसके अलावा कच्चे तेल के दामों में बढ़ोत्तरी ने भी महंगाई बढ़ाई है. इसके उलट खाद्य खुदरा महंगाई अभी भी ऋणात्मक बनी हुई है. यानी कि कृषि क्षेत्र में आय और रोजगार के मौके पहले से घटे हैं और स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी चीजों पर खर्च बढ़ गया है. जानकार मानते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढोत्तरी और अन्य योजनाओं का जमीन पर कुछ खास असर नहीं हुआ है और अर्थव्यवस्था में ग्रामीण संकट और गहरा रहा है.
अब बात, औद्योगिक या फैक्ट्री उत्पादन (आईआईपी) के आंकड़ों की. जनवरी 2019 में इसकी दर घटकर 1.7 फीसद पर आ गई है. जबकि दिसंबर, 2018 में यह आंकड़ा 2.6 फीसद था. अगर आईआईपी के आंकड़ों को क्षेत्रवार देखा जाए तो विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर) क्षेत्र में दिसंबर के 2.65 के मुकाबले वृद्धि दर सिर्फ 1.9 फीसद ही रह गई. बिजली क्षेत्र में यह गिरावट 4.45 से 0.8 फीसद पर आ गई है. इसके अलावा कैपिटल गुड्स (फैक्ट्रियों में उत्पादन के लिए इस्तेमाल होने वाला सामान) पर खर्च 5.9 फीसद से घटकर 3.2 पर आ गया है. यह सीधे तौर पर निवेश में गिरावट को बताता है.
आर्थिक जानकारों के मुताबिक मोटे तौर पर औद्योगिक उत्पादन में गिरावट का अर्थ राष्ट्रीय आय में गिरावट होता है. वैसे औद्योगिक उत्पादन में किसी एक महीने में गिरावट से बहुत ज्यादा अनुमान नहीं लगाया जा सकता. लेकिन फिर भी कैपिटल गुड्स और उपोभक्ता वस्तुओं के सेक्टर में लगातार गिरावट चिंतित करने वाली है. जानकार मानते हैं कि फैक्ट्री उत्पादन में गिरावट के आंकड़े इसलिए भी चिंतित करने वाले हैं कि मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान 2015 से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की हिस्सेदारी जीडीपी में घटी ही है. विश्व बैंक की एक रपट के मुताबिक, मैन्युफैक्चिरंग सेक्टर का बीते तीन सालों में जीडीपी का योगदान 15 फीसद के आसपास रहा है. और यह सब मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रमों के बारे में खूब चर्चा होने के बाद हुआ है.
कुल मिलाकर ये आंकड़े बताते हैं कि अर्थव्यवस्था में खपत, निवेश से लेकर बचत तक के आंकडों में गिरावट है. और किसानों की कर्ज माफी और फिर पीएम किसान योजना के तहत नगद पैसे देने की योजना के बाद भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ती नजर नहीं आ रही है. नोटबंदी के बाद से ही परेशानी झेल रहे लघु उद्यमों में भी अभी तक रौनक नहीं आ पाई है. और ऐसा सरकार और अन्य संस्थाओं की कई कोशिशों के बाद भी नहीं हो पा रहा है.
आरबीआई ने अपनी पिछली एमपीसी की बैठक में कर्ज सस्ते किए लेकिन जानकारों का मानना है कि इसका असर अभी तक लघु उद्योगों पर नहीं दिखा है. हो सकता है कि चुनाव के बीच होने वाली एमपीसी में आरबीआई एक बार फिर ब्याज में कटौती करे, लेकिन यह अर्थव्यवस्था के बुनियादी क्षेत्रों पर फौरी असर डालेगी, इस पर जानकार बहुत आश्वस्त नहीं दिखते हैं. जानकार मान रहे हैं कि पिछले कुछ महीने से बैंकों के धड़ल्ले सेे कर्ज बांटने के बावजूद लघु उद्यमों पर उनका असर नगण्य है. इसके अलावा जीएसटी के तहत तमाम सहूलियत घोषित होने के बाद अभी भी आम कारोबारी इसे मकड़जाल मान रहा है.
लोकसभा के चुनावी शोरगुल के बीच इन आंकड़ों को बहुत गौर से सुना जाएगा, ऐसा नहीं लगता है. फिलहाल अर्थशास्त्र पर राजनीति भारी है. लेकिन मई में चुनावी नतीजे किसी भी पार्टी के पक्ष में जाएं, नई सरकार के लिए सबसे बड़ी मुश्किल अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर ही आने वाली है.
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