एक कथा पढ़िए. लघु नहीं है लंबी भी नहीं लेकिन प्रेम पर है. सिनेमा के प्रेम पर. लेकिन कथा से पहले एक लघु कथा के बारे में जानते हैं. बात 2013 की है. फिल्मों का रेस्टोरेशन (पुनरोद्धार) और आर्काइव (संग्रहण) करने के लिए मशहूर ‘फिल्म हैरिटेज फाउंडेशन’ के संस्थापक शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर के दफ्तर में मुंबई का एक कबाड़ीवाला अपना फोन नंबर छोड़ जाता है. डूंगरपुर कबाड़ीवालों से पुरानी फिल्मों के कबाड़ प्रिंट और फिल्म रील इकट्ठा किया करते हैं, यह बात कबाड़ीवाला जानता है. डूंगरपुर के फोन करने पर वह अपने पास एक फिल्म होने की बात करता है जिसे पहले तो डूंगरपुर गंभीरता से नहीं लेते. आखिर में जब वह कहता है कि किसी बेहद पुरानी फिल्म की रीलों के दस कैन उसके पास हैं और वह उन्हें जलाने की सोच रहा है तो वे तुरंत उससे मिलने पहुंच जाते हैं.
कबाड़ रीलों का वह ढेर 1963 में आई गुरुदत्त और आशा पारेख की फिल्म ‘भरोसा’ का ‘ओरिजनल’ कैमरा निगेटिव था. इसके निर्देशक के शंकर थे. अगर डूंगरपुर नहीं होते, तो वह मूल प्रिंट आग में जलकर खुदा को प्यारा होने की तैयारी में था, और आप नहीं जानते इसलिए बता देते हैं, उन ओरिजनल रीलों के लिए कबाड़ वाले ने डूंगरपुर से कुल दो सौ रूपए ही लिए थे. यह पूरी दिलचस्प जानकारी 2014 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म समीक्षक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतने वाले तनुल ठाकुर के एक शानदार रिपोर्ताज में मिलती है.
एक और जरूरी जानकारी. 1964 से पहले बनी हमारी भारतीय फिल्मों में से सत्तर-अस्सी प्रतिशत फिल्में हम खो चुके हैं. न उनके निगेटिव हमारे पास हैं न ही कोई डुप्लीकेट कापी. सत्यजीत रे की महानतम अपु ट्रायलॉजी इसी दौरान 1955 से 1959 के बीच बनी थी.
अब कथा पढ़िए. मौत से 24 दिन पहले सत्यजीत रे ने गंभीर बीमारी में लाइफटाइम अचीवमेंट ऑस्कर ग्रहण किया था. वे इकलौते भारतीय हैं जिन्हें यह सम्मान मिला है. अभी तक. उसी साल उन्हें ऑस्कर देने के बाद दुनिया में इस चेतना का संचार हुआ कि सत्यजीत रे की फिल्में बुरी अवस्था में हैं. यानी उनकी फिल्मों के ओरिजनल निगेटिव्स को अभी नहीं बचाया गया (1992-93 में), तो आने वाली पीढ़ियां उनके अच्छे प्रिंट्स से महरूम रह जाएंगी. जैसे हम ‘आलम आरा’ देखने से महरूम हैं, क्योंकि इस फिल्म का ओरिजनल प्रिंट नहीं बचा है. बची है तो बस सामान्य ज्ञान की यह जानकारी कि आलम आरा हमारे हिंदुस्तान की पहली बोलती फिल्म थी.
इसी चिंता के साथ तकरीबन चालीस साल पहले - 1955 - से बन रहीं सत्यजीत रे की फिल्मों को, रे की मृत्यु के अगले साल लंदन की मशहूर हैंडरसन फिल्म लेबोरेट्री में रेस्टोरेशन के लिए भेजा गया. यह काम होता उससे पहले ही जुलाई 1993 में इस लैब में आग लग गई, और रे की ज्यादातर फिल्में जलकर खराब हो गईं. फिल्मों के ओरिजनल निगेटिव इतने ज्यादा जल चुके थे कि उनपर काम करना अब संभव नहीं था. सिनेमा के दीवाने समझ गए थे कि अब उन्हें हमेशा ही खराब, डार्क और दानेदार प्रिंट में ही रे की फिल्में देखनी होंगी. बावजूद इसके ऑस्कर देने वाली संस्था एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंसेज ने इन अधजले-अधबचे ओरिजनल निगेटिव्स को लंदन से लॉस एंजेलिस भेज दिया, अपनी फिल्म आर्काइव में सुरक्षित रखने. रे की फिल्मों के ओरिजनल जले हुए निगेटिव्स फिर अगले 20 साल तक वहां के सुरक्षित तालों में ही सोते रहे.
इस तरह सत्यजीत रे के मास्टरपीस फिर जिंदा हुए
पुरानी फिल्मों को सहेजने का संजीदा काम करने वाली अमेरिका की क्राइटीरियन कलेक्शन नामक कंपनी ने 2013 में रे की तीन फिल्मों की ‘अपु ट्रायलॉजी’ को सहेजने का जिम्मा उठाया. आपको शायद लगे कि 2013 में तो तकनीक इतनी बेहतर हो चुकी होगी कि आसानी से ये फिल्में रिस्टोर हो सकें. गलत. क्राइटीरियन कलेक्शन ने ऑस्कर एकेडमी से उन फिल्मों के जले-बचे नेगेटिव्स तो ले लिए लेकिन अगले एक साल तक उसे ऐसे टेक्नीशियन ही नहीं मिले जो इन पर काम कर सकें. लंबे अरसे बाद, इटली में मौजूद दुनिया की श्रेष्ठतम रेस्टोरेशन लैबों में से एक के टेक्नीशियनों की मदद लेकर, ढेर सारा पैसा खर्च कर, और कई महीनों व हजारों घंटों की मेहनत लगाकर, तीनों फिल्मों का कुछ-कुछ हिस्सा रिस्टोर किया गया. जो जले हुए प्रिंटों में नहीं मिल सका उसे दुनिया भर की फिल्म संस्थाओं के पास मौजूद डुप्लीकेट लेकिन ठीकठाक क्वालिटी वाले प्रिंटों से हासिल किया गया.
अपु ट्रायलॉजी की तीन फिल्मों में पहली ‘पाथेर पांचाली’ की सिर्फ नौ ओरिजनल फिल्म रीलें ही आग से बची थीं. ‘अपराजितो’ की किस्मत तीन फिल्मों में सबसे बेहतर थी, इसलिए जलने के बावजूद 11 बची फिल्म की रीलें इस लायक थीं कि रिस्टोर हो सकें. लेकिन ‘अपुर संसार’ के सिर्फ दो निगेटिव आग से बच पाए, वे भी बुरी दशा में. यहां पर ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट और दूसरी संस्थाओं के पास मौजूद डुप्लीकेट निगेटिव काम आए और अपु ट्रायलॉजी की इस आखिरी फिल्म को भी उच्च क्वालिटी में रिस्टोर कर लिया गया.
इस स्तर की असाधारण मेहनत के बाद ही सत्यजीत रे की अपु ट्रायलॉजी डिजिटली रिस्टोर हो पाई और जब 2015 की मई में न्यूयॉर्क के ऐतिहासिक म्यूजियम आफ मॉडर्न आर्ट में ‘4के’ क्वालिटी में ‘पाथेर पांचाली’ का प्रीमियर हुआ, लोगों की तालियों और आसुंओं से वह दिन हमेशा के लिए यादगार हो गया. जिस 60 साल पुरानी फिल्म का ठीक-ठाक डीवीडी प्रिंट तक मौजूद न था अब वह लेटेस्ट ‘4के’ तकनीक के सहारे ब्लू रे में दिखाए जाने लायक बन गई थी.
फिल्म रेस्टोरेशन होता कैसे है?
फिल्म रेस्टोरेशन के लिए किस तरह के फिल्म निगेटिव की जरूरत पड़ती है, यह भी जानना दिलचस्प है. आजकल डिजिटल पर जो भी शूट होता है, उसके लिए निगेटिव और फिल्म रील की जरूरत नहीं होती. लेकिन पुरानी फिल्मों के पास डिजिटल मीडियम तो था नहीं, जो भी शूट होता फिल्म रील पर ही होता था. रील पर फिल्म शूट होने के बाद तीन तरह के निगेटिव बनते हैं. ओरिजनल कैमरा निगेटिव, मास्टर पॉजिटिव और डुप्लीकेट निगेटिव.
ओरिजनल कैमरा निगेटिव अनमोल होता है क्योंकि इसी पर फिल्म शूट होती है और असली इमेज इसी फिल्म रोल पर कैप्चर होती है. रेस्टोरेशन के लिए यही हाई क्वालिटी फिल्म का मिलना आदर्श माना जाता है. अगर किसी पुरानी फिल्म का ओरिजनल कैमरा निगेटिव मिल जाए, तो डूंगरपुर जैसे रेस्टोरर के लिए यह लॉटरी लगने जैसा है. इसी ओरिजनल निगेटिव से फिर जो पहली कापी बनती है उसे मास्टर पाजिटिव कहते हैं, जिसके बाद ओरिजनल निगेटिव को ऐहतिहात से सुरक्षित रख दिया जाता है. इसके बाद मास्टर पाजिटिव से डुप्लिकेट निगेटिव बनता है जिसे ड्यूप निगेटिव कहते हैं और इस ड्यूप निगेटिव से ढेर सारे रिलीज प्रिंट बनते हैं, और यही रिलीज प्रिंट सिनेमा हाल में चलाए जाते हैं.
लेकिन यह खर्चीला काम है. इसीलिए जो फिल्में हिट या सुपरहिट होती हैं उनके तो ज्यादातर निगेटिव मिल जाते हैं, लेकिन जो फिल्में अपने जमाने में पैसा नहीं कमा पातीं, उनके निगेटिव या तो बनाए नहीं जाते या संरक्षित नहीं किए जाने की वजह से खराब हो जाते हैं. जैसे एक जमाने में अगर किसी फिल्म का बजट 40 लाख होता था, तो ड्यूप निगेटिव बनाने का खर्चा ही 10 लाख आता था. छोटे और मंझले स्तर के निर्देशक के लिए यह खर्चा पहले भी मुमकिन नहीं था, आज भी नहीं है.
फिल्म रेस्टोरेशन से जुड़ी एक छोटी-मोटी क्रांति भारत में भी चल रही है
इस कथा को इसकी पूरी संपूर्णता में पढ़ाने का मकसद वजन के साथ यह बताना है कि फिल्म रेस्टोरेशन कितनी मुश्किल कला है, और हमारे समय के लिए यह कितनी जरूरी है. पुरानी फिल्में जो महान हैं लेकिन सहेजी नहीं जा सकीं, पैसों की कमी की वजह से और लापरवाही की वजह से, उन्हें आज जिलाने के लिए हमारे पास तकनीक भी है और महत्वाकांक्षा भी. खुशी की बात है कि अगर रेस्टोरेशन जरूरी है तो आज बाजार भी उसके साथ है, इसलिए विश्व भर में पिछले कुछ सालों से फिल्म रेस्टोरेशन को लेकर गंभीर प्रयास हो रहे हैं.
ये प्रयास सिर्फ हॉलीवुड तक ही सीमित नहीं है. हमारे यहां भी ऐसी कोशिशें आसमान छू रहीं हैं. इसीलिए इस बार के कान समारोह में अगर 1941 में बनी ‘सिटीजन केन’ के डिजिटली रिस्टोर्ड वर्जन का प्रीमियर हुआ तो हमारे देश में भी रे की चारूलता, गुरूदत्त की कागज के फूल, मिर्च मसाला, जाने भी दो यारो, नमक हराम से लेकर कयामत से कयामत तक और माचिस तक का रेस्टोरेशन हुआ. हालांकि यह उस स्तर का रेस्टोरेशन नहीं है जैसा क्राइटीरियन कलेक्शन ने रे की फिल्मों का किया. यह ‘2के’ रेस्टोरेशन है जो तकरीबन 15 लाख रूपए में होता है और क्वालिटी के स्तर पर ‘4के’ के सामने कहीं नहीं टिकता.
कुछ समय पहले डूंगरपुर के फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन ने मार्टिन स्कोरसीज के ‘फिल्म फाउंडेशन’ का सहयोग लेकर मुंबई में फिल्म रेस्टोरेशन के कोर्स का संचालन किया था. इसमें इटली की उस लैब और क्राइटीरियन कलेक्शन से आए जानकारों ने तकरीबन चालीस छात्रों को रेस्टोरेशन की कला में माहिर करने की कोशिश की. ऐसे ही उठे कुछ नए कदम हैं जो उम्मीद जगा रहे हैं कि रेस्टोरेशन को लेकर हमारी यही सजगता आने वाले वक्त में कमाल कर सकती है.
फिल्म रेस्टोरेशन को लेकर गंभीरता और बाजार का हाथ तकरीबन 10 साल पहले साथ आए थे, जब हॉलीवुड के दिग्गज निर्देशक मार्टिन स्कोरसीज ने दुनिया भर की सिनेमा विरासत को सहेजने के लिए ‘फिल्म फाउंडेशन’ नाम की संस्था का गठन किया था. इसके अंतर्गत 2007 में कान फिल्म समारोह में ‘वर्ल्ड सिनेमा फाउंडेशन’ को लांच किया गया और एशिया की जो पहली फिल्में रिस्टोर की गईं, उसमें से एक उदय शंकर की ‘कल्पना’ थी, जिसे रिस्टोर करने में डूंगरपुर का भी अहम योगदान था.
1948 में बनी इस फिल्म के रिस्टोर्ड वर्जन की 2009 के कान फेस्टिवल में स्क्रीनिंग हुई जिसके बाद ही रेस्टोरेशन को लेकर हिंदुस्तान में माहौल बदला. तब से लेकर अब तक सैकड़ों फिल्मों का जीर्णोद्धार हो चुका है, और कुछ इस तरह की जागरुकता भारत आई है कि कुछ साल पहले खुद भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मृणाल सेन से उनकी उस पसंदीदा फिल्म के बारे में पूछा था जिसे वे रिस्टोर कराना चाहते हों, ताकि भारत सरकार के रेस्टोरेशन ड्राइव की शुरूआत उन्हीं की फिल्म से की जा सके. मृणाल दा ने 1983 में आई अपनी फिल्म ‘खंडहर’ का नाम लिया था.
फिल्म रेस्टोरेशन के बारे में और भी बहुत कुछ है जो दिलचस्प है, मजेदार है और ज्ञानवर्धक भी. लेकिन अभी बस इतना ही, बाकी कभी और. दिलचस्प जैसे कि ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों की रील में से चांदी निकलती थी. निर्माता उन फिल्मों को, जिनमें उनकी दिलचस्पी नहीं होती थी, कबाड़ियों को बेच देते थे और कबाड़ वाले उन फिल्म रीलों में से चांदी निकालकर बेचा करते. इसी लालच की वजह से कई फिल्मों के निगेटिव नष्ट हो गए. और क्या आप यह जानते हैं, ‘आलम आरा’ का जो ओरिजनल कैमरा निगेटिव था, वह फिल्म निर्देशक के बेटे ने पैसों की खातिर बेच दिया था. चांदी निकालने के लिए.
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