इस पुस्तक का एक अंश :

‘हां, हम सब अभिनय ही कर रहे थे - बिना एक-दूसरे को जतलाए हुए. ज्यादा से ज्यादा सहज, बेफिक्र बने रहने का अभिनय, खुश होने का अभिनय…पर न जाने क्या था जो अंदर लगातार खुरचता जा रहा था. हम उस खरोंच को यत्न से छुपाते, सामने खुले नये खरीदे हल्के सूटकेसों में ‘उसके’ साथ जाने वाला सामान जमा रहे थे. शर्ट, पैंट, जीन्स, पुलोवर, मफलर और कोट भी सोचा था, सब नया ही खरीदेंगे. आखिर अमेरिका जा रहा है! कोई मामूली बात है? लेकिन हर बार खरीदते समय पैसे कम पड़ जाते हैं. दो-चार चीजें छूट ही जातीं. बिना लिये लौटते. पैसे जोड़-जुटा फिर से लाई जातीं. इसे हंसते-हंसते ही बताया जाता. कुशल अभिनय के साथ...

और आखिरी दिन, छीना-झपटी बन्द हो चुकी थी. शरारतों में दमखम नहीं था. सांसे रुकी जा रही थीं जैसे. पिता सामानों की लिस्ट लिये, यूं ही बीच-बीच में आ जाया करते. वेणु को देखते और लौट जाते. बातें ऐसे होतीं, इतनी कम, जैसे हम एक दूसरे से बच रहे हों! कहीं ऐसा न हो कि...

अब वह टूटी बटनों, उधड़ी सीवनों की दुरुस्ती कराने कभी नहीं आएगा.’


उपन्यास : कौन देस को वासी

लेखिका : सूर्यबाला

प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन

कीमत : 399 रुपए


मनुष्यों के साथ-साथ कुछ पंछी भी प्रवासी होते हैं. ऐसे पंछी अपने देश में आबो-हवा बिगड़ने पर अच्छे मौसम की तलाश में दूसरे मुल्कों में कुछ समय के लिए अपना बसेरा बना लेते हैं. लेकिन प्रवासी पंछियों और प्रवासी नागरिकों में एक बड़ा फर्क है. प्रवासी पक्षी कुछ खास समय में और अल्पावधि के लिए ही अपने देश को छोड़कर दूसरे देशों में जाते हैं और अपने देश में अनुकूल मौसम होने पर वापस लौट जाते हैं. लेकिन प्रवासी नागरिकों के बारे में कोई तय नहीं कि वे कभी लौटकर अपने देश आएंगे या नहीं. या कहें कि लगभग तय ही है कि अब वे नहीं आने वाले!

पता नहीं कि उन प्रवासी नागरिकों के लिए अपने देश में लौटने लायक अनुकूल परिस्थितियां ही नहीं आती या फिर वे नए परिवेश को ही अपना मान लेते हैं. ‘कौन देस को वासी’ उपन्यास भी प्रवासी भारतीयों के देश छोड़ने और फिर हमेशा के लिए छूट जाने से उत्पन्न हुए हर्ष, विषाद, द्वंद्व, दुख, खुशी, तड़प आदि मनोभावों को लेकर लिखा गया एक बेहतरीन उपन्यास है. वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला के इस उपन्यास को प्रवासी भारतीयों की मार्मिक महागाथा कहना गलत नहीं होगा.

ज्यादातर प्रवासी भारतीय अपने देश से विदेशों में एक कैद से छूटने के से अहसास से जाते हैं. हालांकि वहां जाकर उन्हें अपने देश की कैद से भी एक सम्मोहन-सा होने लगता है, लेकिन वे फिर भी लौटते नहीं. वे अपनी सुख-सुविधाओं और संपन्नता के चलते उस टीस भरे सम्मोहन को दूर से ही जीना चाहते हैं और उसके पास वापस आना नहीं चाहते. आसमान में उड़ने वाले हवाई जहाज तक को देखकर, विदेश गए और फिर कभी लौटकर न आने वाले बच्चों की मांओं का कलेजा जब-तब मुंह को आता रहता है. इसी मौन वेदना को दर्ज करती हुई सूर्यबाला लिखती हैं -

‘आया, रहा और लो, वापसी. जैसे वह जाने के लिए ही आया था! हमारा वेणु, भगवान हो गया दीदी! उतना ही दुर्लभ!...

शायद सिलसिले अब वापसियों के ही होने हैं. आने से ज्यादा जाने के. दूर-दूर होते जाने के...!

तुझे नहीं मालूम, अब जब भी कोई हवाई जहाज उड़ता देखती हूं - आसमान में, लगता है, एक वेणु उसमें है

सोचने की आदत-सी पड़ गई है. हवाई जहाज - यानी कोई वेणु जा रहा है, जाने कब वापस आने के लिए!

सुनो, जाकर कह-समझा आओ, दुनिया में जितने भी वेणु हैं, उनकी मांओं से कि - अच्छा हो, अब वे आसमान में उड़ने वाले हवाई जहाजों की गिनती करना बंद कर दें.’

यह उपन्यास बाहर जाने, रहने और बसने वाले परदेसियों की नजर से अपने देश, समाज को देखने की एक बिल्कुल नई दृष्टि भी देता है. अपनी जन्मभूमि से दूर किसी परायी धरती पर खड़े होकर अपने आप को, अपने मुल्क को, अपने लोगों और अपनी सभ्यता-संस्कृति को देखने का बिल्कुल ही नया नजरिया सामने आता है. ‘कौन देस को वासी’ उपन्यास हमें वह दृष्टि देता है, जिससे हम बिना प्रवासी बने भी अपने देश की बहुत सी चीजों को नए नजरिए से देखने लगते हैं.

बाहर जाकर बस गए बच्चे जब वापस अपने देश आते भी हैं तो फिर वे अपने घर के सदस्य से ज्यादा एक मेहमान की तरह आते हैं. जिनकी खाने-पीने, रहने, सोने, साफ-सफाई की आदत से लेकर सोच तक हर चीज बदल चुकी होती है. फिर घर वालों को अपने ही घर के एक सदस्य का विदेशियों की तरह से ख्याल रखना पड़ता है. ऐसे में समझना मुश्किल है कि वह व्यक्ति कौन-से देश का वासी बन जाता है! न वह पहले जैसा भारतीय रह पाता है, जिसका पेट बिना उबले पानी को पीकर भी खराब न हो! और न ही वह विदेशी बन पाता है. ऐसी ही त्रिशंकु स्थिति का वर्णन लेखिका बहुत ही सधे और मारक अंदाज में करती हैं. वे लिखती हैं -

वे लोग भारत आते हैं तो हम संभाल भी कहां पाते हैं? ‘पानी उबालो’, मिनरल वाटर की टंकियां मंगाओं, बाथरूम सुखाओ, मक्खियां उड़ाओ...यहां ‘बग’, वहां कीड़े-उधर फ्लाई, इधर ‘मस्कीटो बाइट’...देख-सुनकर लज्जा, ग्लानि, दुःख (उसके लिए भी जो कुछ हमारे हाथ में नहीं) बिजली का जाना या पानी का न आना फर्श पर चींटे-चींटी का निकल आना, सड़क पर कुत्तों का भौंकना, लाउडस्पीकर का बजना - यह सब नहीं खटकता लेकिन वेणु, मेधा, बेटू के आने पर उनके सामने हम झेंपते, हीन होते जाते हैं जबकि कम-से-कम वेणु यह दिखाने की पूरी कोशिश करता है कि यहां वह आनन्द से है.

बेशक मन आनन्दित ही रहता है उसका लेकिन सुविधाओं और भिन्न जलवायु के अभ्यस्त हो गए शरीर का क्या करे वह? लग चुकी आदतों का क्या हो?’

‘कौन देस को वासी’ उपन्यास देश छोड़कर जाने की छटपटाहट से लेकर अपने देश लौटने की छटपटाहट तक प्रवासी लोगों के चेतन-अवचेतन से जुड़े बहुत से सवालों के जवाब ढ़ूढ़ने की कोशिश करता है. असीम लालसाओं के चक्रवात में फंसे जब हम अपनी धरती छोड़ते हैं, तब वह कितनी, कब तक और कहां तक छूट पाती है हमसे? अपने देश में रहते हुए हम क्यों नहीं महिमामंडित कर पाते अपनी ही चीजों को? वे चीजें जो यहां रहते हुए जब-तब कोफ्त का कारण बनती हैं और बाहर जाते ही गर्व का कारण कैसे बन जाती हैं? मनचाही जगह पहुंचकर सारी सुख-सुविधा, संपन्नता पाने के बाद भी हाथ रीते क्यों लगने लगते हैं? सूर्यबाला इन तमाम गहरे सवालों को बहुत नफासत से अपने उपन्यास में पिरोती हैं.

पूरे उपन्यास में पात्र सबसे ज्यादा बोलते हैं इस कारण इसकी पठनीयता जबरदस्त है. उपन्यास की मोटाई हालांकि डराती है, लेकिन बहुत जल्द ही इसके पात्र आपको अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं. और फिर उनकी समस्याएं, उनके उत्सव, उनके जीवन की पेचीदगियां आपकी अपनी हो जाती हैं. कुल मिलाकर ‘कौन देस को वासी’ प्रवासी भारतीयों के जीवन पर एक बेहद पठनीय उपन्यास है. यह बहुत गहराई और विस्तार में जाकर प्रवासियों और उनसे जुड़े लोगों के दिल-दिमाग को बहुत संवदेना और धैर्य से पढ़ता है.