इसी उपन्यास का एक अंश :

‘वे एक-दूसरे को प्रेम करते हों, ऐसा भी सुनाई नहीं पड़ता था. वह सखी नहीं थी, प्रिया नहीं थी, प्रेमिका नहीं थी...इस गर्ल-फ्रेंड में जाने क्यों उसे भावना नहीं, शरीर-सम्बन्ध अधिक व्यंजित होता लगता था. वर्तमान के लिए ही नहीं, भविष्य में भी उसका विवाह की ओर मुड़ना अनिवार्य नहीं लगता था...क्या वह शब्द, रक्षिता, रखैल या उसके जैसा कोई भाव दर्शाता था, पर वह यह सब नहीं चाहती थी. वह तो अपनी बहू चाहती थी. अपने बेटे की पत्नी, अपने पोते-पोतियों की मां. किन्तु विभु ने कहा था कि व्यक्ति जिस समाज में रहता उसी के रीति-रिवाज और प्रचलन के अनुसार उसे चलना पड़ता है. वह अमेरिका में रह रहा है या अमरीकी समाज में, अमरीका में रहने वाले भारतीय यह नहीं कहेंगे कि वे जिस समाज में रह रहे हैं, उसका चलन अपने समाज से कुछ भिन्न है. देश अलग हैं, किन्तु वह उनका समाज नहीं है. उनका अपना समाज तो भारतीय समाज ही है, चाहे भारत में रहें या अमरीका में.


उपन्यास : सागर-मन्थन

लेखक : नरेन्द्र कोहली

प्रकाशन : वाणी प्रकाशन

कीमत : 695 रुपए


दो संस्कृतियों का मिलन दो नदियों या समंदरों के संगम जैसा सहज, सरल, लयात्मक और खुद को पूरी तरह दूसरे में विलीन कर देने वाला नहीं होता. दो सभ्यताओं की मुठभेड़ में एक सबसे बुनियादी तत्व होता है सामने वाली सभ्यता के सामने खुद को सर्वश्रेष्ठ मानना. कदम-कदम पर दूसरी सभ्यता को किसी भी तरह नीचा दिखाने के मौके ढूंढ़ना. तब कहीं जाकर चाहे-अनचाहे दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे में हिल-मिलकर कर आगे बढ़ना सीखते हैं. यह एक ‘टू वे ट्रैफिक’ जैसा है, जिसमें किसी एक तरफ से अपनाने की पूरी पहल नहीं की जा सकती. नरेन्द्र कोहली का उपन्यास ‘सागर-मन्थन’ भारत और अमेरिकी सभ्यताओं का परस्पर मेल कराने वाले दो परिवारों की कहानी कहता है. यहां एक-दूसरे की सभ्यता को नीचा दिखाने जैसा भाव तो नहीं है, लेकिन दो मुल्कों के परिवारों द्वारा हो रहा संस्कृतियों का यह मिलन कोई उत्सव भी नहीं रचता.

दो भिन्न संस्कृतियों के लोगों का आपस में मिलना, साथ रहना, एक-दूसरे की पसंद को स्वीकार करना कैसी-कैसी जटिलताओं को लेकर आता है, इसका वर्णन उपन्यास में बहुत ही सटीक है. ईसाई धर्म के कई पादरियों ने भारत में अपने धर्म को फैलाने के संकल्प के साथ ही यहां कदम रखा था. जाहिर है भारतीय मानस में ऐसे लोगों के प्रति कोई अच्छी भावना नहीं होगी. लेकिन ईसाई धर्म के किसी भी व्यक्ति के लिए वह पादरी बहुत ही सम्मानित और पूजनीय व्यक्ति होगा. क्या हो यदि एक की पादरी को सम्मानित और घृणित मानने वाले दो लोग एक ही परिवार का हिस्सा बन जाएं? उपन्यास में आने वाली ऐसी ही जटिल स्थिति का एक टुकड़ा -

‘वे भारत की धरती से पूर्व के धर्मों को उखाड़ फेंकने और उनके स्थान पर ईसाई मत को स्थापित करने के दृढ़ संकल्प के साथ आये थे...पूरी 18वीं और 19वीं शताब्दी में भारत पर बलात ईसाई मत को आरोपित किया गया.

मैं सारा दिन सोचता रहा...कैसी विडम्बना थी. जिनके विषय में पढ़कर मेरा रक्त खौल उठता था, जिनके प्रति मेरे मन में तनिक भी सम्मान नहीं था, जिन्हें मैं सन्त नहीं अपना, अपने धर्म का और देश का शत्रु मानता था, उन्हें यह लड़की महान सन्त मानती थी और उनके दर्शन करने तथा उनको माथा टेकने के लिए यह इतनी दूर से आई थी...और यह लड़की मेरी बहू बनकर मेरे परिवार का अंग बनेगी. मेरे पौत्र और पौत्रियों की मां बनेगी.’

नरेन्द्र कोहली विदेशों में रह रहे भारतीयों की द्वंद्वात्मक दिमागी स्थिति का वर्णन इस उपन्यास में काफी अच्छे से करते हैं. ऐसे प्रवासी लोग न तो अपने देश से खुद को पूरी तरह अलग ही कर पाते हैं और न उसको उसकी कमियों के साथ स्वीकार ही कर पाते हैं. वे अपने देश को याद भी रखना चाहते हैं और उसे भूल भी जाना चाहते हैं. विडंबना यह है कि जिनके प्रति प्रेम है, उन्हें भूलना चाहते हैं और जिनसे प्रेम नहीं करते उन्हें अपनाना चाहते हैं. ‘सागर-मन्थन’ दो धुर विरोधी संस्कृतियों के बीच सामंजस्य बैठाने और नया कुछ बनाने की छटपटाहट की कथा है.

‘सागर-मन्थन’ उपन्यास अमेरिका में जाकर बस गए भारतीय परिवारों की अगली पीढ़ी के बच्चों से जुड़ी नई तरह की मुश्किलें हमारे सामने रखता है. यहां सबसे बड़ी दिक्कत ऐसे प्रवासी भारतीयों को पेश आती है जो विदेशों में जाकर बसने के बाद भी वहां के लिए बाहरी ही रहते हैं. ऐसे में न तो वे अपने देश की सभ्यता और संस्कृति को ही पूरी तरह भूल पाते हैं और न उस नए देश की संस्कृति और धर्म को ही अपना पाते हैं. अमेरिका या दूसरे देशों में बसे लगभग सभी भारतीय परिवार ऐसी ही त्रिशंकु की सी स्थिति में जीने को विवश हैं. लेखक ऐसी ही स्थिति में जी रहे एक भारतीय-अमेरिकी परिवार की नई पीढ़ी के विवाह के संदर्भ में इस हालात का वर्णन करता है. एक झलक -

‘भारत जाने को तो यह तैयार ही नहीं है. कहती है कि भारत ही भेजना था तो फिर यहां पढ़ाया-लिखाया क्यों? यहां का जीवन क्यों दिखाया? इसका अर्थ है कि इनके लिए लड़का भी यहीं खोजो. या भारत में ऐसा लड़का खोजो जो यहां आने को तैयार हो...

बात जगह की ही हो तो ठीक है जी, पर इनके हजार नखरे हैं. भारतीय लड़का होगा तो हिन्दी बोलने को कहेगा. मां-बाप के पैर छुआएगा. मन्दिर जाने को कहेगा. रामायण पढ़ने को कहेगा. क्या भरोसा है कि वैस्टर्न डेस पहनने ही न दे. साड़ी बांधने को कहे. कौन जाने किस-किस बात में हिन्दू धर्म और भारतीयता के नाम पर कैसे-कैसे बन्धन लगाकर इनका जीवन नष्ट कर देगा.’

पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक समाज की समस्याओं को और उनके समाधान को समाज के सामने प्रस्तुत करना नरेन्द्र कोहली की सबसे बड़ी विशेषता रही है. वे अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जीवन-शैली एवं दर्शन का सम्यक परिचय करवाते हैं. इस उपन्यास में भी वे अमेरिका में रहने वाले भारतीयों द्वारा वहां रहते हुए अपनी भारतीय सभ्यता न बचा पाने से आहत हैं. इस उपन्यास में नरेन्द्र कोहली दो संस्कृतियों के परस्पर संघर्षण को समुद्र-मन्थन की संज्ञा देते हुए इसका नाम ‘सागर-मन्थन’ रखते हैं.

लेखक का मानना है कि स्वामी विवेकानन्द जो अमृत अमेरिका की धरती पर बांटकर गए थे, आज वहां बसे भारतीय उस अमृत को भूलकर वहीं की संस्कृति में खोकर सिर्फ विष बांटने में लगे हैं. नरेन्द्र कोहली के मुताबिक यही विष दुनिया में बढ़ रहे युद्धों की शक्ल में सामने आ रहा है. लेकिन भविष्य में अमृत के रूप में शायद मानवता सामने आए, जिसके मूल में भारतीय संस्कृति के बीज होंगे. इस संदर्भ में यह उपन्यास बहुत गहरा और विराट अर्थ लिए हुए है. लेकिन अफसोस कि जितने गहरे अर्थ यहां हैं, यह उपन्यास उतनी विराट और प्रभावी कथा नहीं रच पाता.