इसी संग्रह की कविता ‘स्त्री : चार’ :
‘वे जो चल रही हैं कतारबद्ध / गुनगुनाती, अंडे उठाए चीटियां / स्त्रियां हैं. / वे जो निरंतर बैठी हैं / ऊष्मा सहेजती डिंब की / चिड़िया, स्त्रियां हैं / जो बांट रही हैं चुग्गा / भूख और थकान से बेपरवाह / स्त्रियां हैं. / जीभ से जो हटा रही हैं तरल दुःख / और भर रही हैं जीवन / चाटकर नवजात का तन / स्त्रियां हैं. / जो उठाए ले जा रही हैं / एक-एक को / पालना बनाए मुंह को / स्त्रियां हैं. / स्त्रियां जहां कहीं है / प्रेम में निमग्न हैं / एक हाथ से थामे दलन का पहिया / दूसरे से सिरज रही दुनिया.’

कविता संग्रह : इसी से बचा जीवन
लेखक : राकेशरेणु
प्रकाशक : लोकमित्र प्रकाशन
कीमत : 250 रुपए
महिलाओं की भूमिका न सिर्फ सृजन में ज्यादा है बल्कि पालन-पोषण में भी वही मुख्य कर्ता-धर्ता हैं. अधिकतर लोग इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि महिलाएं सिर्फ एक नए जीव को ही जीवन नहीं देती, बल्कि ऐसा और भी बहुत कुछ है जिसे वे रचती हैं, गढ़ती हैं, पालती-पोसती हैं. प्रकृति से लेकर संस्कृति तक वे असंख्य चीजों के बनने और बढ़ने में बिना थके-हारे, बिना रुके, लगी रहती हैं. हर हाल में डटी रहती हैं. अधिकतर संवेदी पुरुष भी इस बात को न सिर्फ स्वीकार करते हैं बल्कि मन ही मन स्त्री के इस सृजन के प्रति नतमस्तक रहते हैं.
इन संवेदी पुरुषों में से कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी रचनाओं में महिलाओं की इस अंतहीन रचनात्मकता और अनथक प्रयासों के प्रति अपना आभार व्यक्त करते नजर आते हैं. राकेशरेणु भी इन्हीं में से एक नजर आते हैं. उनका कविता संग्रह ‘इसी से बचा जीवन’ हमें सृष्टि की इस अदभुत कृति स्त्री के प्रति सम्मान से झुक जाने वाली कुछ प्रभावी कविताएं दे जाता है.
स्त्रियों के नि:स्वार्थ रचने, प्रेम करने, समर्पित होने, जीवन देने और हद दर्जे की विपरीत परिस्थिति में भी अपनी जिजीविषा बनाए रखने की क्षमता के प्रति राकेशरेणु लगभग अभिभूत से लगते हैं. यूं तो इस संग्रह में महिलाओं पर कवि की सिर्फ छह ही कविताएं हैं, लेकिन उनसे अलग भी कविता संग्रह की कई कविताओं में वे स्त्रियों की जीवटता गहराई से महसूस करते हैं. कवि के इस मनोभाव का चरम इस बात से भी महसूस होता है कि वह स्वयं भी स्त्री जन्म लेकर स्त्री जीवन की असीम विडम्बनाओं को जीना चाहता है. इसी भाव की कुछ बहुत खूबसूरत पंक्तियां :
‘उनकी सतत मुस्कुराहट / पनीली आंखें / कोमल तंतुओं का रचाव / और उत्स समझना चाहता हूं / मरते हुए जीना चाहता हूं / जीते हुए मरना चाहता हूं / मैं स्त्री होना चाहता हूं’
कवि स्त्री के असीम प्रेम में रहने को ही उसकी जीवटता का, रचनात्मकता का, सृजन का मूल मानता है. इसी भाव की एक कविता है ‘स्त्री : तीन’ की कुछ पंक्तियां :
‘स्त्रियां जो थीं, जहां थीं / प्रेम में निमग्न थीं / उन्होंने जो किया- / जब भी जैसे भी / प्रेम में निमग्न रहकर किया / स्त्रियों से बचा रहा प्रेम पृथ्वी पर / प्रेममय जो है / स्त्रियों ने रचा’
अपने दारुण समय को लेकर राकेशरेणु के मन में टीस है. हालांकि इस भाव को व्यक्त करती हुई बहुत ज्यादा कविताएं इस संग्रह में नहीं हैं, लेकिन जो इक्का-दुक्का उस मिजाज की हैं, वे अपने आप में इस निर्दयी दौर को बहुत सटीक तरीके से दर्ज करती हैं.
कवि के भीतर इस त्रासद समय के प्रति जिम्मेदारी का गहरा बोध तो है. लेकिन शायद वह इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हो पा रहा है कि कविताओं को हथियार बनाकर इस हिंसक समय में लड़ा जा सकता है. लेकिन ऐसे विचलन के बावजूद भी राकेशरेणु लेखक वर्ग को इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं करते कि वे अपने समय के जख्मों पर मरहम न लगाएं, निरंकुश होती सत्ता पर सवाल न उठाएं और तटस्थ हो जाएं. कुछ इसी मिजाज की एक अच्छी कविता है ‘नजीर अकबराबादी के लिए’. इसकी कुछ पंक्तियां :
‘अचानक पूछा उसने- / कवि क्या कर रहे हो तुम लोग / मेरे शहर में दंगा हुआ पहली बार / पहली बार बेकसूर मारे गए / पहली बार रिश्ता टूटा यकीन का / शहर के धमाके मेरी नींद उड़ा ले गए हैं / तुम सो कैसे पाते हो कवि? / कोई जवाब नहीं सूझ रहा था / ग़ला ख़ुश्क / क्या उत्तर दूं उनको / कवि, जब घर जल रहा हो तुम्हारा / क्या आग बुझाने नहीं बढ़ोगे? / जब आदमी देखता हो आदमी को शक की निगाह से / और फट गई यकीन की चादर / क्या कविता तुम्हारी नहीं आएगी आगे / रफ़ूगर का सूई धागा बनकर?/ तुमसे बहुत उम्मीदें हैं तुम्हारे समय और समाज को / तुम कब तक वसंत गीत गाओगे / कब तक खुद को झुठलाओगे / कब तक सोओगे कवि? / मैं भक्क हूं और तलाश रहा हूं उसे / लेकिन वह कहीं नहीं है मेरी नींद की तरह / सिर्फ अंधेरा है और अकुलाहट / मानो बारूदी धुआं और गंध जले हुए आदमी की / घुस रही हो मेरे नथुनों में.’
प्रेम को लेकर राकेशरेणु ने इस संग्रह में कई कविताएं लिखी हैं. लेकिन ऐसी ज्यादातर कविताएं प्रेम की तीव्रता महसूस कराने में सफल सी होती नहीं दिखती. हां, लेकिन उन पूरी प्रेम कविताओं की कुछ पंक्तियां प्रेम के अथाह समंदर की थाह देती जरूर मालूम होती हैं. वे चंद पंक्तियां ही प्रेम की वैसी उजास फैला देती हैं, जैसी की पूरी प्रेम कविता से अपेक्षा जगती है. ‘प्रेम : एक’ कविता की ऐसी ही चंद पंक्तियां :
‘जैसे पृथ्वी का बदल लेना अपनी कक्षा / समा जाना दूसरी आकाश गंगा में / पाने के लिए अपने-से प्रेम पगे ग्रह की निकटता.../ प्रेम में संभव सब कुछ / प्रेम में संभव, असंभव.’
कुछ ऐसी भी कविताएं इस संग्रह में हैं, जिनका शीर्षक प्रेम संबंधी नहीं है फिर भी उनमें प्रेम की सघनता महसूस होती है. प्रेम कविताओं की सफलता इसी बात में है कि पाठक पढ़ते ही प्रेम की उस तीव्रता को शिद्दत से अनुभव करन के लिए कुछ पलों के लिए ठहर जाए, उनमें डूब जाए. ‘लौट आओ’ कविता की कुछ पंक्तियां ऐसे ही ठहराने वाले पलों में आपको ले जाती हैं. एक बानगी :
‘लौट आओ / मुहावरे में जैसे लौटता है / सुबह का निकला पक्षी / लौटो हहराती नदी की तरह / समुद्री ज्वार की तरह / बर्फ़ीले तूफ़ान की तरह / हर उस चीज की तरह लौटो / जिसमें / बहाकर ले जाने की / डुबोने की क्षमता हो!’
इस कविता संग्रह का नाम ‘इसी से बचा जीवन’ क्यों रखा गया है, पूरा संग्रह पढ़ने के बाद भी यह स्पष्ट नहीं हो पाता. यहां तक कि इस संग्रह में इस शीर्षक की कोई कविता भी नहीं है. हां लेकिन इस संग्रह का नाम ‘स्त्री से बचा है जीवन’ हो सकता था, क्योंकि स्त्रियों की सिरजने की क्षमता से राकेशरेणु अभिभूत से नजर आते हैं. पूरे संग्रह में कई बार कवि के ये भाव साफ तौर पर महसूस होते हैं. संग्रह में स्त्री और प्रेम विषय से जुड़ी कविताएं ही सबसे ज्यादा हैं, लेकिन इनमें से कुछ कविताएं ही सम्मोहन रच पाती हैं.
कुल मिलाकर ये कविताएं जीवन के, आस्था के, प्रेम के, अनवरत संघर्ष और शांति के गीत गाती हैं. अपने दौर में बढ़ रही हिंसक संस्कृति के प्रति शर्मिंदा ये कविताएं, व्यष्टि से लेकर समष्टि तक प्रेम का परचम लहराने की वकालत करती हैं.
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