किस्सा करीब तीन दशक पहले का है. मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को मंजूरी देने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह अपने लोकसभा क्षेत्र फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) पहुंचे थे. लेकिन उनके अपने राजपूत समुदाय के लोग नाराज़गी के चलते उनसे मिलने नहीं आए. वीपी सिंह ने संदेश भिजवाया कि चुनाव में समर्थन भले ही मत देना, लेकिन बातचीत बंद मत करो!

उनकी इस अपील के बाद भीड़ जुटी तो सही, लेकिन अपने (सवर्ण) बच्चों का भविष्य बर्बाद कर देने के उलाहने के साथ. बताते हैं कि अपनी सफाई में वीपी सिंह ने समुदाय से आने वाले प्रशासनिक अधिकारियों की गिनती मांगी. जवाब उंगलियों पर सिमट गया. तब उन्होंने क्षेत्र के सभी अधिकारियों की जानकारी चाही तो अधिकतर के जवाब में दुबे, मिश्रा, त्रिपाठी और उपाध्याय जैसे उपनाम शामिल थे. वीपी सिंह मुस्कुराकर वहां से चल दिए. ठाकुर समुदाय के लोग अपने नेता का इशारा समझ चुके थे.

हालांकि इससे पहले कि वीपी सिंह पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण लागू कर पाते, उनकी सरकार गिर गयी और यह उपलब्धि 1991 में सरकार में आई कांग्रेस के नाम दर्ज़ हुई. वे इस मामले में भी बदकिस्मत ही रहे कि मसीहा जैसा भूमिका के बावजूद पिछड़े वर्ग ने उन्हें अपने नेता के तौर पर कभी स्वीकार नहीं किया. लेकिन हां, एक मोर्चा ऐसा जरूर था जहां उनकी इस ऐतिहासिक कवायद को सफल माना गया और वह था हिंदी पट्टी के कई राज्यों में राजनीति पर काबिज रहे ब्राह्मणों को हाशिये पर लाना.

उदहारण के तौर पर- 1956 में मध्य प्रदेश के गठन के बाद साल 1990 तक 34 साल में वहां पांच ब्राह्मण मुख्यमंत्री चुने गए थे, जिन्होंने तकरीबन 20 वर्षों तक सत्ता की बागडोर को थामे रखा. लेकिन उसके बाद प्रदेश में कोई ब्राह्मण नेता इस ओहदे तक नहीं पहुंच पाया. बिहार में ब्राह्मणों की स्थिति इससे समझी जा सकती है कि 2014 में जब जीतनराम मांझी मुख्यमंत्री बने तब उनके मंत्रिमंडल में एक भी ब्राह्मण नहीं था, जबकि वहां ब्राह्मणों की आबादी करीब पांच फीसदी यानी 90 लाख से अधिक बताई जाती है. सर्वाधिक ब्राह्मण आबादी वाले उत्तर प्रदेश में भी पिछले करीब तीन दशक से कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है. जबकि 1950 में हुए प्रदेश के पहले चुनाव से 1990 तक 40 वर्षों में वहां छह ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने जिन्होंने करीब 23 वर्ष तक प्रदेश की जिम्मेदारी संभाली थी.

राजस्थान भी इनसे अलग नहीं. 1949 से साल 1990 के बीच राज्य को इस समुदाय से पांच मुख्यमंत्री मिले थे. लेकिन सूबे में करीब दस फीसदी आबादी के साथ दूसरे पायदान पर माने जाने वाले ब्राह्मण बीते करीब तीन दशक से इस मामले में खाली हाथ रहे हैं. इस दौरान प्रदेश के दोनों ही प्रमुख दलों- कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने ब्राह्मण विधायकों के टिकटों में भी जबरदस्त कटौती की. वहीं, लोकसभा चुनावों में समुदाय की स्थिति और ख़राब हो गई. बानगी के तौर पर इस बार के लोकसभा चुनाव देखे जा सकते हैं जहां भाजपा और कांग्रेस ने सिर्फ दो-दो ब्राह्मण नेताओं को मौका दिया. जबकि अलग-अलग समय में कांग्रेस और भाजपा, दोनों पर ही ‘ब्राह्मणों की पार्टी’ होने का आरोप लगता रहा है.

पर क्या इस स्थिति के लिए सिर्फ़ मंडल आयोग की सिफ़ारिशें जिम्मेदार थीं? राजस्थान के मामले में यह सवाल इसलिए मौजूं हो जाता है क्योंकि यहां ब्राह्मणों से तकरीबन आधी और बिखरी हुई आबादी होने के बावजूद राजपूत समुदाय ने राजनीति के मामले में खुद को सम्मानजनक स्थिति में ला खड़ा किया है. जबकि 1952 के पहले चुनाव को छोड़कर इस समुदाय ने खुद को करीब तीन दशक तक चुनावी प्रक्रिया से दूर रखा था. इस लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ने राजस्थान में कुल पांच राजपूत नेताओं को मैदान में उतारा. वहीं ब्राह्मणों से संख्या में कुछ ही ज्यादा जाट समुदाय के मामले में यह आंकड़ा 11 का रहा.

ब्राह्मणों की इस स्थिति पर समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता पंडित रामकिशन हम से तफ़सील से बात करते हैं. भरतपुर (राजस्थान) से चार बार विधायक और एक बार सांसद रह चुके 90 वर्षीय रामकिशन कहते हैं, ‘आजादी के आंदोलन में मध्यम और उच्च मध्यमवर्ग से आने वाले लोगों, जिनमें अधिकतर संख्या ब्राह्मणों की थी, ने सबसे ज्यादा हिस्सा लिया था. चूंकि उस समय समाज में यही समुदाय शिक्षित हुआ करता था इसलिए आजादी के बाद भी राजनीति और प्रशासन में इस वर्ग का आधिपत्य रहा. बाद में शिक्षा का प्रसार होने से पिछड़े और दलित वर्ग को भी अपने अधिकारों का भान हुआ और वे भी आगे बढ़ने लगे. यह एक स्वभाविक प्रक्रिया है कि जो ऊपर होगा वह नीचे आएगा और नीचे वाला ऊपर जाएगा.’

पंडित रामकिशन आगे जोड़ते हैं, ‘सभी सवर्णों समेत ब्राह्मणों ने भी यह बड़ी गलती की कि वे अपने राज को स्थाई मान बैठे. ग्रामपंचायत, नगर परिषद से लेकर विधानसभा और संसद में उन्होंने एकतरफ़ा आधिपत्य जमा लिया. दलितों और पिछड़ों को वह स्थान लोकतंत्र आने के बाद भी नहीं दिया गया जिसके कि वे हक़दार थे. यदि उन्हें हाशिए पर धकेलने की बजाय आगे बढ़कर स्वराज में उनका स्वागत किया जाता तो आज ये स्थिति नहीं आती.’ पंडित रामकिशन ने सवर्णों के विरोध के बावजूद दलितों को साथ लाने के लिए क्षेत्र में बड़े स्तर पर अभियान छेड़ा था.

वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ इस बात को आगे बढ़ाते हैं कि लोकतांत्रिक राजनीति से राजपूतों के पीछे हट जाने की वजह से सामाजिक-राजनैतिक नेतृत्व ब्राह्मण नेताओं के हाथ आया. जनआंदोलन और समाजवाद से जुड़े होने की वजह से उनमें से अधिकतर नेता समावेशी राजनीति करते थे और दलित और आदिवासियों के प्रखर पैरोकार थे. इसलिए उन्हें इन समुदायों का जबरदस्त समर्थन भी हासिल था. लेकिन बाद के दशकों में ब्राह्मण नेताओं ने अपना दायरा ख़ुद ही तक सीमित करना शुरु कर दिया. इस बात से दलित, पिछड़े और आदिवासी चौंके तो सही, लेकिन लिहाज़ के चलते चुप रहे. परंतु इन समुदायों की नई पीढ़ियां आक्रामक थीं जिन्होंने ब्राह्मण राजनीति की जमकर मुख़ालफत शुरु कर दी.

नारायण बारेठ कहते हैं, ‘ब्राह्मण समाज की नई पीढ़ी इस बात से अनभिज्ञ रही कि उनके बुज़ुर्गों ने हाशिए पर मौजूद लोगों के हक़ के लिए लंबी लड़ाइयां भी लड़ी थीं. समाज के जिन कुछ लोगों को अपने इस इतिहास का भान था, वे इस जानकारी को आगे नहीं बढ़ा पाए. इसका बड़ा नुकसान ये हुआ कि पिछड़ों को लेकर ये पक्ष अपनी जिम्मेदारी भूलता गया और सामने वाले पक्ष के सामने सिर्फ़ बुरे उदाहरण आते रहे, जिन्हें जानकर उनमें ब्राह्मणों के प्रति कटुता बढ़ती गई.’

अन्य सवर्णों की तुलना में ब्राह्मणों के राजनैतिक तौर पर पिछड़ने के कारणों का ज़िक्र करते हुए वरिष्ठ समाजशास्त्री राजीव गुप्ता कहते हैं, ‘पिछले कुछ दशकों में राजनीति धार्मिक राष्ट्रवाद से सैन्य राष्ट्रवाद की तरफ़ ध्रुवीकृत हुई है. यही कारण है कि लोकसभा चुनाव में राम मंदिर मुद्दा गौण हो गया और पुलवामा ज्यादा हावी है. क्षत्रिय समाज की छवि सैन्य राष्ट्रवाद के इस खांचे में सर्वाधिक फिट बैठती है. जबकि ब्राह्मण चाहकर भी अपनी पहचान ऐसी नहीं बना सकते. हालांकि वैश्यों को भी इस परेशानी का सामना पड़ा. लेकिन व्यवसायिक संसाधनों पर नियंत्रण की वजह से उन्होंने खुद को बचा लिया. क्योंकि राष्ट्रवाद चाहे किसी भी प्रवृति का हो, अर्थ के बिना सफल नहीं हो सकता.’

राजीव गुप्ता आगे जोड़ते हैं, ‘शोषण का शिकार रही निम्न जातियों ने भी ख़ुद पर हुए तमाम अत्याचारों के लिए ब्राह्मणों का ही विरोध शुरू कर दिया. जबकि राजपूतों और वैश्यों का विरोध करने में आज भी कई वर्गों में झिझक महसूस की जा सकती है. दरअसल जमीनों पर अपने अधिकार के चलते क्षत्रिय या वैश्य ही निचले तबकों की आर्थिक जरूरतें पूरी करते थे. इसलिए भूमि-जजमानी संबंधों में शोषण के बावजूद राजपूत और वैश्यों का विरोध उतना प्रभावी नहीं हो पाया. जबकि ब्राह्मणों के पास कभी भी भू-स्वामित्व ज्यादा नहीं रहा.’

वहीं भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस; दोनों ही दलों से जुड़े ब्राह्मण नेताओं ने इस बारे में एक ही सी बात दोहराई कि गैरब्राह्मण नेताओं में डर है कि जरा सा मौका मिलने पर ब्राह्मण एक बार फिर पूरी राजनीति को हथिया लेंगे, इसलिए हमारे ख़िलाफ़ सभी लामबंद रहते हैं. वहीं कुछ का कहना था कि ब्राह्मण मतदाता प्रत्याशी की जाति नहीं बल्कि उसका संगठन देखकर वोट देता है. इसलिए ब्राह्मण का टिकट काटते समय राजनैतिक दलों को इस जाति के वोट छिटकने का डर नहीं रहता. इसके उदाहरण के तौर पर जयपुर शहर जैसी पारंपरिक ब्राह्मण लोकसभा सीट को देखा जा सकता है, जहां से कांग्रेस ने इस बार वैश्य प्रत्याशी को मौका दिया है.

वरिष्ठ पत्रकार गोपाल शर्मा इस बारे में कुछ अलग राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘राजस्थान की राजनीति में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (1998) और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे (2003) की एंट्री के बाद ब्राह्मण ही नहीं बल्कि हर तरह का जातीय नेतृत्व हाशिए पर गया है.’ प्रदेश में एक खास तरह के राजनैतिक विरोधाभास का ज़िक्र करते हुए शर्मा आगे जोड़ते हैं, ‘यहां जातिवाद तो बरक़रार है जिसे प्रत्येक चुनाव के टिकट वितरण में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है. लेकिन ऐसे प्रभावशाली नेता जो अपने-अपने समुदायों की आवाज़ को मुखरता से उठा सकते थे उन्हें इस दौरान उभरने ही नहीं दिया गया.’ उनके मुताबिक इसी का असर हुआ कि एक लोकसभा क्षेत्र का नेता जो दूसरे क्षेत्र में जाकर वोट मांग सकता था उसे अब दूसरी विधानसभा में भी वोट नहीं मिलते.’

पूर्व प्रशासनिक अधिकारी ज्ञान प्रकाश शुक्ला ब्राह्मणों की इस स्थिति के लिए उन्हीं को जिम्मेदार ठहराते हैं. वे कहते हैं, ‘तुलनात्मक तौर पर ब्राह्मण सबसे ज्यादा बंटे हुए हैं. इसकी प्रमुख वजह यह है कि कई ब्राह्मण नेताओं ने अपना-अपना संगठन खड़ा कर खुद को समाज का ख़लीफ़ा समझ लिया. ये लोग अपनी दुकान चलने देने के कारण समाज को एक नहीं होने देते. ये फतवा ज़ारी करते हैं, समाज का बड़ा हिस्सा उसे गंभीरता से नहीं लेता. यहीं से अलगाव पैदा होता है. हालांकि समाज में उभरती नेतृत्व की दूसरी लाइन सुखद उम्मीद जगाती है.’ वहीं सर्वब्राह्मण महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुरेश मिश्रा का इस बारे में कहना है, ‘ब्राह्मणों की ज्यादा समझदारी भी उनके अपने लिए ही नुकसानदायक साबित हुई. हममें से अधिकतर एक-दूसरे का ही विरोध करने में व्यस्त हैं.’

संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कौसलेंद्र शास्त्री समुदाय की इस स्थिति को समझाने के लिए हमारा ध्यान सामाजिक ताने-बाने की तरफ़ ले जाते हैं. वे कहते हैं, ‘आज़ादी के बाद जब राजपूत लोकतांत्रिक व्यवस्था से दूर होने लगे तो ब्राह्मणों ने उन्हें इस व्यवस्था के करीब लाने के लिए वैसा वैचारिक मार्गदर्शन नहीं दिया जिसकी अपेक्षा उनसे राजपूतों को सदियों से रहती आई थी. चूंकि लोकतंत्र में शासन के लिए तलवार की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए ब्राह्मणों के मन में राजपूतों को दरकिनार कर खुद ही सत्ता भोगने का लालच पैदा हो गया.’ बकौल शास्त्री, ‘राजपूत-ब्राह्मण गठजोड़ को ख़त्म करने में हमारा बड़ा हाथ रहा. हालांकि राजपूत तो अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के दम पर देर-सवेर वह मुक़ाम फिर हासिल करने में सफल रहे, लेकिन धीरे-धीरे ब्राह्मण इस खेल से बाहर होते चले गए.’