इस संग्रह की कविता ‘कन्यावरण’ की पंक्तियां :

‘किसी नक्षत्र को अशुभ मान लेना / किसी नदी को अपवित्र / किसी वृक्ष को अस्पृश्य / किसी अक्षर को अवांछित / किसी स्त्री से भी ऐसे ही व्यवहार करना / नक्षत्रों के नामों वाली / नदियों के नामों वाली / वृक्षों के नामों वाली / ‘ल’ और ‘र’ पर ख़त्म हो जिसका नाम / ऐसी किसी स्त्री से विवाह न करना / लेकिन जब कोई स्त्री चीन्ह ले / तुम्हारी आंखों में / तुम्हारा सारा दुःख / तब भूल जाना सब कुछ / और बना लेना उसे अपनी / सांसों से भी ज्यादा ज़रूरी’


कविता संग्रह : चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान

लेखक : अविनाश मिश्र

प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन

कीमत : 125 रुपए


‘कामसूत्र’ भारतीय साहित्य की संभवतः पहली और इकलौती ऐसी किताब है जिसे आज भी छिपकर सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है. एक ऐसी किताब जिसके कई मनचाहे भावानुवाद हुए हैं. एक ऐसी किताब जिसने स्त्री-पुरुष के सबसे पुराने यौन व्यवहार को न सिर्फ स्वीकार किया, बल्कि उस पर खुलकर कुछ कहने का साहस भी किया. हां, यह सब प्रयास पुरुष दृष्टि से हुए और स्त्री दृष्टि से एक दूसरा कामसूत्र लिखे जाने की जरूरत है! लेकिन यह अलग विषय है. हिन्दी के युवा और लीक से हटकर एक लेखक अविनाश मिश्र का यह कविता संग्रह ‘चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान’ इसी ‘कामसूत्र’ से प्रेरित होकर लिखा गया है. यह कविता संग्रह एक अनोखा और पठनीय प्रयास है. खासतौर से इस मायने में कि यहां कवि ने कामसूत्र से प्रेरित होकर भी अपनी कविताओं में काम की नहीं बल्कि प्रेम की प्रतिष्ठा ज्यादा की है!

प्रेमिका की देह को भी पढ़ने से अविनाश का कोई इंकार नहीं है. बल्कि वे स्वीकार करते हैं ‘चौंसठ सूत्र’ शीर्षक खंड में समाई कविताओं और ‘कामसूत्र’ का सम्बन्ध बस इतना ही है कि इनका कवि ‘कामसूत्र’ और प्रेम में बिल्कुल एक ही समय में डूबा हुआ रहा. लेकिन कवि के देह में डूबने के समय की अभिव्यक्ति में भी एक शालीनता है, सहज मादकता है, न कि उत्तेजित करने वाला कोई सोचा समझा या नासमझी भरा छिछला प्रयास. कवि ‘कामसूत्र’ के ज्यादातर शब्द समुच्चयों को नया अर्थ देता है. जो शब्द सिर्फ भोग और संभोग की ही विभिन्न तरह से व्याख्या करते आए थे, अविनाश की कविताएं उन शब्दों में इश्क के नए अर्थ भर देती हैं.

ऐसी ही एक कविता है ‘समरत’. जिसका अर्थ है समान स्त्री-पुरुष का संभोग. लेकिन कवि यहां देह के भोग से ऊपर उठकर उसे परस्पर प्रेम और एक-दूसरे का ख्याल रखने के भाव में भर देता है. इसी कविता की पंक्तियां -

‘कभी तुम्हारे पैरों में दर्द होगा / तब मैं दबा दूंगा / कभी मेरे पैरों में भी / दर्द होगा..../ हम पहले और अकेले नहीं होंगे / दर्द में’

इसी मिजाज की एक अन्य कविता ‘अभिमानिकी’ की पंक्तियां -

‘बहुत असभ्य और अश्लील हैं अंधेरे मेरे / तुम हो रही सुबह की तरह सुन्दर हो / प्रेम है अस्तित्व की एक अवस्था / और तुम इसमें मेरा पता / मुझ तक पहुंचने के लिए / ज़रूरी है जानना तुम्हें’

‘नए शेखर की जीवनी’ नामक किताब में भी अविनाश साहित्य के मठाधीशों से लेकर समाज के प्रगतिशील तबके तक के अंधेरे कोनों को उजाले में लाते हैं. बिना लाग-लपेट के सच कहने का हौसला उन्हें हमारे समय का साहसी लेखक बनाता है, जो साहित्यिक खेमों और धड़ों से दूर रहकर सृजन में यकीन रखता है. ‘चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान’ कविता संग्रह में भी वे प्रगतिशीलों और मानवीयता के बात करने वालों पर कटाक्ष करने से नहीं चूकते. खास बात यह है कि सामने वाले को कटघरे में खड़ा करने के लिए अविनाश कोई लंबी-चौड़ी भूमिका नहीं बनाते. वे कम शब्दों में, बेखौफ, बेझिझक अपनी बात कहकर निकल पड़ते हैं. इसी तेवर की एक कविता है ‘स्त्रीपुरुषशीलावस्थापन’. इसी की पंक्तियां –

‘एकल रहना है स्त्रीवाद / ‘मुझे चांद चाहिए’ कहना है स्त्रीविरोधी / कौमार्य की चाह में न बहना है प्रगतिशीलता / इस संसार के पार भी है एक संसार / जहां एक रोज़ तुम्हारा बहुत सुन्दर लगना / रोज़ तुम्हें ग़ौर से न देखना है’

अविनाश स्त्रियों से मानवीय तरीके से पेश आने, उनकी उपेक्षा न करने, उनकी देह और दिमाग की जरूरत को सम्मानित तरीके से समझने और पूरा करने को ही उन्हें व्यक्ति रूप में स्वीकारना मानते हैं. स्त्रियों के प्रति मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक हिंसा को कवि बहुत गहराई से महसूस करता है. वह जानता है कि स्त्री के साथ हिंसा सिर्फ शरीर को छूकर या उसके साथ जबरदस्ती करके ही नहीं की जाती. एक विवाहित स्त्री की ऐसी ही दुखती रग को अविनाश बहुत शिद्दत से समझते और लिखते हैं –

‘विवाहपूर्व यौन सम्बन्ध / विवोहतर यौन सम्बन्ध / विवाह पश्चात भी हस्तमैथुन / हमउम्र मित्रों या कमउम्र बच्चों के साथ / अप्राकृतिक और अशोभनीय आचरण / कभी-कभी कुत्तों / या निर्जीव वस्तुओं के साथ अराजक हो जाना / तमाम माध्यम हैं / विवाह कर लाई गई एक लड़की को / बग़ैर छुए प्रताड़ित करने के’

इस दौर में जहां प्रेम कामसूत्र की कलाओं के व्यावहारिक प्रयोग से शुरू होता हो. इस समय में जहां प्रेम के नाम पर कामसूत्रीय वर्णन लेखकों को अपना अधिकार लगता हो. उस साहित्य में जहां हर दौर के लेखकों को रीतिकालीन मनोदशा में रहने की असीमित छूट है...अविनाश मिश्र कामसूत्र का नाम लेकर भी न कामोत्तेजना जगाने की कोई छूट नहीं लेते और अपनी ज्यादातर कविताओं में प्रेमासन्न बने रहते हैं. अविनाश अपने काव्य संग्रह के शीर्षक से तो पाठकों को कामातुर करते हैं, लेकिन फिर ज्यादातर कविताओं में खालिस प्रेम की अभिव्यक्ति करके छलते हैं!...यह एक सुखद लगने वाला छल है! कुछ कविताएं मेरे जैसी सीमित समझ वाले पाठकों को संभवतः समझ में न आएं, पर वे भी पढ़ने में भली सी लगती हैं.

प्रेम के नाम पर कामसूत्रीय वर्णन की भरमार तो हमारे साहित्य में हर दौर में रही है. लेकिन कामसूत्र का नाम लेकर भी देहातीत प्रेम के वर्णन का अपने-आप में संभवतः यह पहला ही प्रयास है! कामसूत्र के विशिष्ट शब्दों की पारिभाषिक शब्दावली से पाठकों को रूबरू कराता यह एक अतिविशिष्ट कविता संग्रह है, जिसे पढ़ा जाना चाहिए. खासतौर से इसलिए भी क्योंकि ये कविताएं देह में डूबकर विशुद्ध प्रेममयी आत्मा के रूप में उबरने के प्रयास से उपजी-सी लगती हैं.