इस संग्रह की दो कविताएं :
‘यह कहना / तर्कसंगत लग रहा है / कि बनारस / एक सुन्दर / प्रियतमा है / जो / सवेरे-शाम करने के लिए श्रृंगार / लिये रहती है / हाथों में / सदा / गंगा का आईना!’
‘धन्य है / धरती बनारस की / जो हर इक आत्मा को / शान्ति / प्रदान करती है / जो सारी आत्माओं से बुरी नज़रों के / हर प्रभाव को / धो डालती है / हर बला को टालती है.’

पुस्तक : चिराग़-ए-दैर
लेखक : मिर्ज़ा ग़ालिब
अनुवादक : सादिक़
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
कीमत : 299 रुपए
बनारस शहर का नाम पूजा, प्रार्थना, प्रयाण और मुक्तिदाता के रूप में ही लिया जाता रहा है. लेकिन हाल के दिनों में संभवतः पहली बार वही बनारस इन सब कारणों से नहीं, बल्कि सिर्फ राजनीति के कारण चर्चा का विषय ज्यादा है. चुनावी चर्चाओं का तूफान थमने और थकान उतरने के बाद बनारस फिर अपने उसी पुराने अंदाज में सामने आ चुका है. राजनीतिक नजरिये से हटकर बात करें तो यह शहर अपनी रंगत और मिजाज में कुछ सूफियाना सा है, जो भी व्यक्ति यहां आता है उस पर इस शहर की आबो-हवा का गहरा असर होता है. मिर्ज़ा ग़ालिब भी जब बनारस आए तो इस शहर के जादुई प्रभाव से बच न सके.
मिर्ज़ा ग़ालिब की बनारस-यात्रा काफी प्रसिद्ध है. जाहिर है एक महान कवि और महान तीर्थ का मिलन असाधारण ही होगा. मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी प्रिय काव्यभाषा फ़ारसी में बनारस शहर की स्तुति में ‘चिराग़-ए-दैर’ नाम से एक मसनवी लिखी थी. ‘चिराग़-ए-दैर’ नाम का यह कविता संग्रह उसी का हिन्दी अनुवाद है. यह संग्रह मिर्ज़ा ग़ालिब के बनारस के प्रति गहरे इश्क से हमें रूबरू करवाता है.
‘काशी खण्ड’ के मुताबिक बनारस को 12 अलग-अलग नामों से याद किया जाता है. ग़ालिब ने अपनी मसनवी में इसके दो ही नामों का प्रयोग किया है, बनारस और काशी. इस संग्रह में बनारस के साथ आज की दिल्ली (उस वक्त की देहली) से जुड़ी भी काफी कविताएं हैं. देहली के साथ मिर्ज़ा ग़ालिब का रिश्ता कुछ सख्त सा था. उन्हें देहली से प्यार भी था और शिकायत भी. वे यह भी कहते थे, ‘कौन जाएगा ग़ालिब छोड़कर दिल्ली की गलियां.’ लेकिन बनारस में कुछ दिनों रहने के बाद वे देहली छोड़कर वहीं बस जाना चाहते थे. इस संग्रह में दिल्ली पर लिखी बहुत सी मार्मिक कविताएं भी हैं. मिसाल के तौर पर –
‘मेरा / देहली से निकलना / ऐसा लगता है कि / अपने अंग से / दरिया ने मोती / आप ही / बाहर किया है / लौह ने / जैसे कि अपना सार / जान के बेकार / राख की मानिन्द / यकदम / तज दिया है’
या
‘मुझको जब / क़िस्मत ने मेरी / शहर देहली से / निकाला / तो / सरो-सामान सारा / विस्मरण की तेज़ आंधी के हवाले / कर दिया’
या फिर
‘यह न कहना / जी जला डाला है / दिल्ली से विरह की / आग ने / तो आंख नम है / सच तो यह है कि मुझे / अपने इन्हीं / यारों की / बे-मेहरी का ग़म है’
दिल्ली बेशक राजनीतिक रूप से अहम रही, सत्ता का केंद्र रही पर ग़ालिब ने बनारस की यात्रा के बाद, उसका दर्जा दिल्ली से ऊपर रखा. वहां की फिजा, रंग, रंगत, रूहानियत और खुशबुओं की गिरफ्त में आए मिर्ज़ा ग़ालिब का दिल इस धरती पर आ गया था. दिल्ली के ऊंचे रुतबे को वे बनारस के कदमों में रखते हैं और इस बात पर फख्र महसूस करते हैं कि यही दिल्ली बनारस के चक्कर काटती है. इसी ख्याल की कुछ कविताएं –
‘बनारस का वजूद / इतना अनूठा / और मनोरम है / कि देहली शहर भी / इसको पसंद करता है / यूं कहिए कि / इसके हुस्न पे मरता है / और इसका / बड़ा सम्मान करता है / सदा / देता दुआएं / और / मंगल गान करता है’
या
‘बनारस के तईं / देहली के दिल में / जो भी हो / उसको / ‘हसद’ (ईर्ष्या) / कहना ता बेअदबी है / फिर भी / बनारस पर अगर आता है / उसको ‘रश्क’ / तो हैरत नहीं है’
या फिर
‘ज़माने भर में / यह स्थल / मुंक़ाम-ए-फ़ख्र कहलाता है / देहली शहर भी / इसकी / परिक्रमा को / आता है’
बनारस की तरफ रुख करने से पहले और वहां पहुंचने के रास्ते में मिर्ज़ा ग़ालिब काफी बीमार पड़े थे. लेकिन बनारस की धरती पर कदम रखते ही वे न सिर्फ स्वस्थ हुए बल्कि वहां की आबो-हवा, प्राकृतिक दृश्य, मंदिर, गंगा तट पर होने वाली आरती, यहां के लोगों और उनके व्यवहार आदि हर चीज ने उन्हें गहरे तक प्रभावित किया. यहां की फ़ज़ाओं ने उनकी सेहत और मिज़ाज दोनों को सुकून पहुंचाया. यहां की रूहानी और रूमानी फ़जा ने उन्हें इस कदर प्रभावित किया कि यहां आकर अपने एक मित्र को लिखे गए पहले ही खत में उन्होंने बनारस पर बारह शेर लिखकर भेजे. वे बनारस के बारे में उनके सबसे पहले शेर थे. उन्हीं में से एक शेर में गालिब कहते हैं कि बनारस का रुतबा इतना बुलंद है कि वहां तक किसी इंसान की कल्पना भी नहीं पहुंच सकती. बनारस की शान में लिखी गई उनकी कुछ कविताओं की झलक -
‘नहीं हैरत की / कोई बात / अगर / इस शहर की आबो हवा के / फ़ज़ा में / सांस लेने वाले / सारे जिस्म / रूहों में / बदल जायें’
या
‘जो भी कोई / गर्व के आनन्द के / परिचित नहीं है / वो / यहां आए / ज़रा पल-छन / बनारस के / परीज़ादों को देखे / मुझे विश्वास है / जो उनका / जलवा देख पायेगा / वो ख़ुद पे गर्व करना / ख़दुबख़ुद ही / सीख जाएगा
ग़ालिब ने फ़ारसी में जो कुल ग्यारह मसनवियां लिखीं, उनमें से ‘चिराग़-ए-दैर’ उनकी तीसरी मसनवी है. इन कविताओं को बनारस पर लिखी गई श्रेष्ठतम कविताओं में जगह मिलती है. इस संग्रह की सबसे खास बात यह भी थी कि यह ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और उज्बेकिस्तान के निवासियों को हिंदुओं के महान तीर्थ बनारस की अहमियत से परिचित कराने वाली पहली रचना है. यूं तो अनुवाद ही काफी जटिल काम है, ऐसे में कविताओं का अनुवाद और भी दुसाध्य है. क्योंकि यहां लक्ष्य सहज, सरल और सही अनुवाद के साथ पद्य की लयात्मकता भी बनाकर रखना होता है. सादि़क ने इस चुनौती को स्वीकार किया है और फारसी मूल की कविताओं का बेहतरीन हिन्दी अनुवाद पेश किया है.
अनुवादक सादिक़ ‘चिराग़-ए-दैर’ को किसी विदेशी भाषा में बनारस पर लिखी गयी पहली कविता मानते हैं. इस किताब में बनारस के प्राकृतिक दृश्यों के साथ-साथ शहर की रूहानी और रूमानी फ़ज़ाओं का वर्णन है, यहां की रवां-दवां ज़िन्दगी का चित्रण है. बनारस या फिर मिर्ज़ा ग़ालिब की मोहब्बत में गिरफ्तार लोगों को यह संग्रह पसंद आएगा.
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