2014 के लोकसभा चुनावों में जम्मू-कश्मीर की छह सीटों में से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने तीन-तीन सीटें जीती थीं. इस बार जहां पूरे देश के साथ साथ जम्मू-कश्मीर में भी भाजपा 2014 का प्रदर्शन दोहराती नज़र आई, वहीं पीडीपी ने अपनी तीनों सीटें गंवा दी हैं. भाजपा ने जम्मू, ऊधमपुर और लद्दाख सीटें जीती हैं. उधर, 2014 में पीडीपी को मिली तीन सीटें अनंतनाग, श्रीनगर और बारामुला नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) ने अपने नाम कर ली हैं.

श्रीनगर में एनसी अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला की जीत पहले से ही लगभग तय थी. उधर, बारामुला में भी लड़ाई एनसी के अकबर लोन और पीपल्स कॉन्फ्रेंस के राजा एजाज के बीच में देखी जा रही थी. हुआ भी वही. लोन करीब 30000 वोट से जीत गए.

लेकिन पीडीपी की सबसे बड़ी हार अनंतनाग लोक सभा सीट में हुई है. पार्टी की अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती न सिर्फ हारी हैं बल्कि वे तीसरे नंबर पर रहीं. एनसी के नौसिखिये उम्मीदवार जस्टिस हसैनन मसूदी 40180 वोट पाकर विजयी घोषित किए गए. कांग्रेस के ग़ुलाम अहमद मीर 33504 वोटों के साथ दूसरे नंबर पर रहे और महबूबा मुफ़्ती सिर्फ 30524 वोट ले पाईं. इसके बाद एक ट्वीट में महबूबा ने अपनी हार स्वीकार करते हुए कहा कि लोगों को अपना गुस्सा दिखाने का हक़ है.

यह महबूबा के राजनीतिक करियर की दूसरी और पीडीपी बनने के बाद पहली हार है. यह हार इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अनंतनाग लोकसभा सीट, जो दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग, कुलगाम, पुलवामा और शोपियां जिलों से बनती है, पीडीपी का गढ़ मानी जाती रही है. दक्षिण कश्मीर में स्थित राजनीतिक विशेषज्ञ, डॉ उमर गुल सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘इतनी कम वोटिंग, जिसमें 12 लाख में से सिर्फ एक लाख से थोड़े ज्यादा वोट पड़े हों, और उसमें भी महबूबा हार जायें तो उनके लिए गहरी चिंता का विषय है.’

उमर गुल के मुताबिक दक्षिण कश्मीर के वे थोड़े से भी लोग जिन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर वोट डाले, सिर्फ इसलिए बाहर आए थे कि पीडीपी को हराना है. वे कहते हैं, ‘महबूबा को लोगों ने सज़ा दी है और मेरे खयाल से उन्हें इस बात का अहसास है.’

सत्याग्रह ने कुछ समय पहले ही महबूबा मुफ्ती पर मंडराते खतरे के बादलों पर विस्तार से लिखा था. आज भी जानकारों से बात करें तो वे यही कहते हैं कि महबूबा की पार्टी दांव पर लगी हुई है. कश्मीर की राजनीति को करीब से देखते रहे शाह अब्बास बताते हैं, ‘पहले से ही उनकी पार्टी में बहुत अफरातफरी थी और अब उनकी हार के चलते उनकी पार्टी और उनके राजनीतिक कैरियर पर सवाल खड़े हो रहे हैं.’

यहां पर एक अहम सवाल खड़ा होता है कि अगर कश्मीर में पीडीपी को सत्ता में रहने के कारण विरोधी लहर का सामना करना पड़ा तो ऐसा जम्मू में भाजपा के साथ क्यों नहीं हुआ. भाजपा जम्मू और लद्दाख में इस बात के बावजूद जीती है कि एनसी और पीडीपी दोनों कांग्रेस को समर्थन कर रहे थे, चाहे खुलेआम या फिर अप्रत्यक्ष रूप से. जम्मू स्थित एक पत्रकार नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘इसके बावजूद भाजपा का अपनी तीन सीटें इतने आराम से ले जाना आश्चर्यजनक ज़रूर है.’ उनका मानना है कि उन्हें इसकी एक ही वजह समझ में आती है और वह है हिंदू राष्ट्रवाद.

खैर अब नतीजे जो हैं सो हैं. लेकिन कश्मीर घाटी के राजनेताओं के लिए मसला यह है कि उन्होंने अपना पूरा चुनाव प्रचार भाजपा को कश्मीरियों के लिए इकलौता खलनायक बताकर किया था. अब वे अपनी राजनीति आगे कैसे चलाते हैं, वह देखने लायक होगा. इस बात की झलक श्रीनगर सीट से जीते एनसी के मुखिया फारूक अब्दुल्ला की प्रेस कॉन्फ्रेंस में नज़र आई. फारूक ने कहा कि उनकी लड़ाई देश को धर्मनिरपेक्ष रखने के लिए जारी रहेगी. साथ ही साथ उन्होंने कश्मीर के साथ इंसाफ के लिए भी गुहार लगाई. उनका कहना था, ‘मुझे आशा है कि नयी सरकार कश्मीर के साथ इंसाफ करेगी और कश्मीर को अभी चल रहे जंग जैसे हालात से बाहर निकालेगी.’

यही भाव और राजनेताओं में भी नज़र आए. हाल में आईएएस अफसर से राजनेता बने शाह फैसल ने भी गुहार लगते हुए कहा कि उनको उम्मीद है कि इस दूसरी पारी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कश्मीरी लोगों कि तरफ हाथ बढ़ा कर इतिहास रचेंगे.

अब इतिहास रचा जाता है या नहीं, और रचा जाता भी है तो कैसे, यह देखने लायक होगा क्योंकि भाजपा ने अनुछेद 370 और 35-ए हटाने का वादा किया हुआ है.

साफ है कि आने वाले दिन कश्मीर के लिए काफी अहम होने जा रहे हैं.