लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की प्रचंड जीत ने भावी प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे कई नेताओं को ज़मीनी हक़ीक़त दिखा दी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लोगों ने जिस समर्थन के साथ सत्तारूढ़ दल को वोट दिया है, उसे अपने पाले में करने के लिए ये नेता और उनके दल अब क्या करेंगे, इसका फ़िलहाल किसी के पास कोई जवाब नहीं होगा.

दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी (आप) और उसके नेता और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी उन नेताओं में से एक हैं. उनके समर्थक उन्हें देश का भावी प्रधानमंत्री बताते हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान विपक्षी दलों की बैठकों में उन्हें जिस तरह अहमियत दी गई, उससे स्पष्ट होता है कि अब वे देश के बड़े नेताओं में शामिल हो गए हैं. लेकिन इस चुनाव ने अरविंद केजरीवाल की राजनीति के साथ दिल्ली की जनता पर उनकी पकड़ को लेकर भी सवाल खड़े कर दिए हैं, जो अगले विधानसभा चुनाव में उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं.

क्या ‘आप’ को अपने अकेले लड़ने की क्षमता पर संदेह है?

दिल्ली लोकसभा चुनाव का नामांकन भरने की अंतिम तारीख़ 23 अप्रैल थी. उससे पहले ‘आप’ की तरफ़ से बार-बार कांग्रेस से गठबंधन करने की कोशिश की ख़बरें आती रहीं. पार्टी ने कई बार इस तर्क के साथ सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि लोकतंत्र को बचाने के लिए वह कांग्रेस से गठबंधन के लिए तैयार है. इस दौरान अरविंद केजरीवाल कभी ‘आप’ के अकेले लोकसभा चुनाव लड़ने की बात कहते, तो कभी कांग्रेस से गठबंधन करने को लेकर आतुर दिखते. गठबंधन नहीं होने की निराशा भी उनके बयानों में साफ़ दिखी.

उधर, कांग्रेस की तरफ़ से कहा जा रहा था कि अगर ‘आप’ के साथ चुनावी गठबंधन हुआ तो यह केवल दिल्ली तक सीमित होगा. उसके मुताबिक़ ‘आप’ हरियाणा और पंजाब में भी गठबंधन के तहत सीटें चाहती थी जिसके लिए कांग्रेस अंतिम समय तक राज़ी नहीं हुई. जानकारों की मानें तो इससे कहीं न कहीं यह संदेश गया कि दिल्ली को लेकर आम आदमी पार्टी आश्वस्त नहीं है, वह नरेंद्र मोदी की चुनौती से फिर पार पा पाएगी यह आत्मविश्वास उसमें नहीं बचा है और इसी कारण वह कांग्रेस से समझौता चाहती है, जो राजधानी में तीसरे नंबर की पार्टी होने के बावजूद समझौते के लिए तैयार नहीं है. कई लोगों का कहना है कि ऐसा कर आप और अरविंद केजरीवाल ने अपनी छवि कमज़ोर करने का काम किया जिसका परिणाम उन्हें विधानसभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है.

आप-कांग्रेस के वोट मिला कर भी भाजपा के बराबर नहीं

2014 के लोकसभा चुनाव में ‘आप’ ने क़रीब 33 प्रतिशत वोट हासिल किए थे. उस समय वह राजधानी में दूसरे नंबर की पार्टी बनी थी और कांग्रेस तीसरे नंबर पर आ गई थी. फिर 2015 में हुए विधानसभा चुनावों में आप का मत प्रतिशत बढ़ कर 54.3 प्रतिशत हो गया. भाजपा 32.3 प्रतिशत मतों के साथ दूसरे नंबर पर आ गई और कांग्रेस 9.7 प्रतिशत वोट लेकर तीसरे नंबर की पार्टी बन गई.

लेकिन अब स्थिति बिलकुल बदल गई है. राजधानी में अरविंद केजरीवाल की पार्टी का लोकसभा का मत प्रतिशत 33 से गिर कर 18.1 प्रतिशत हो गया है. कांग्रेस पार्टी 22.5 प्रतिशत के साथ दूसरे नंबर पर पहुंच गई है और भाजपा 56.6 प्रतिशत वोटों के साथ पहले नंबर पर है. अगर यही ट्रेंड 2020 के विधानसभा चुनाव में रहा तो अपने दम पर तो दूर ‘आप’ कांग्रेस से गठबंधन करने के बाद भी चुनाव नहीं जीत पाएगी. तब भी भाजपा का वोट शेयर उनसे 16 प्रतिशत ज़्यादा रहेगा.

कांग्रेस से पिछड़ने का मनोवैज्ञानिक नुक़सान

यह तो नहीं कहा जा सकता कि लोकसभा चुनाव में तीसरे नंबर की पार्टी बनने से ‘आप’ दिल्ली के चुनावी दंगल से बाहर हो गई है. लेकिन कांग्रेस यक़ीनन वापसी करती दिखती है. जानकारों के मुताबिक़ आम चुनाव में ‘आप’ का कांग्रेस से पिछड़ना इस विचार को हवा दे सकता है कि दूसरे नंबर की पार्टी होने के चलते दिल्ली की चुनावी जंग मुख्यतः भाजपा और कांग्रेस के बीच होगी. हालांकि इस बारे में अभी कोई दावा करना जल्दबाज़ी होगी, लेकिन इससे मतदाताओं पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है.

मोदी की छवि 2014 के मोदी से बड़ी

इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा दिल्ली का अगला विधानसभा चुनाव भी नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ेगी. हालांकि 2015 के चुनाव में उसका यह सबसे बड़ा हथियार नाकाम साबित हुआ था. लेकिन इस बार बात अलग होगी. अब जिन नरेंद्र मोदी से ‘आप’ को टक्कर लेनी है, वे 2015 के नरेंद्र मोदी से भी बड़े हैं. उनके नेतृत्व में राजधानी में भाजपा का मत प्रतिशत दस प्रतिशत से ज़्यादा बढ़ा है. उनका हरेक प्रत्याशी अपने प्रतिद्वंद्वी से कम से कम 50 प्रतिशत ज़्यादा वोट लेकर चुनाव जीता है.

वहीं, बीते चार सालों के दौरान दिल्ली और केंद्र सरकार के बीच जो तल्ख़ी देखने को मिली है, उससे लोगों के बीच यह संदेश गया है कि इस केंद्रशासित प्रदेश में सुशासन के लिए ज़रूरी है कि यहां भी केंद्र के सत्तारूढ़ दल की सरकार होनी चाहिए. भाजपा को जनता के बीच अपने मुद्दों को स्वीकृति दिलाने में महारत हासिल है. अगर उसने यह विचार भी लोगों के दिमाग़ में बिठा दिया तो ‘आप’ के लिए दिल्ली की गद्दी पर दोबारा क़ाबिज़ होना मुश्किल हो सकता है. हालांकि यह देखना होगा कि जनता इस विचार को स्वीकार करेगी या नहीं

‘आप’ भी अब वैसी नहीं

इन तमाम चुनौतियों से निपटना अगर ‘आप’ के लिए बेहद मुश्किल होने वाला है तो इसकी एक बड़ी वजह यह है कि वह ख़ुद भी 2014-15 वाली आम आदमी पार्टी नहीं है. वह ‘आप’ जनता के मुद्दों और ‘भ्रष्टाचारी दलों’ से समझौता न करने वाली पार्टी थी. हालांकि यह तो आखिर में जनता ही तय करेगी कि आप ने उसके मुद्दों पर समझौता किया है या नहीं, लेकिन जिन दलों को उसने भ्रष्टाचारी कहा था, उनसे उसका समझौता जगज़ाहिर है. देश को भाजपा और मोदी से बचाने के नाम पर अरविंद केजरीवाल उन तमाम दलों और उनके नेताओं के साथ बार-बार दिख चुके हैं, जिन्हें लेकर वे कहते थे कि राजनीति करना छोड़ देंगे लेकिन ऐसे दलों से समझौता नहीं करेंगे.

वहीं, संगठन के रूप में भी ‘आप’ अब वह ‘आप’ नहीं है. उस समय जनता के भरोसे के अलावा उसके पास योगेंद्र यादव जैसे विश्वसनीय चेहरे और कुशल राजनीतिक विशेषज्ञों का साथ था जो विरोधियों की हर चुनावी चाल का रणनीतिक हल निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे. ऐसे कई व्यक्तियों को ‘आप’ ने निकाला है या वे ख़ुद ही छोड़ कर चले गए. कुछ को राजनीति ही करनी थी, सो वे दूसरी पार्टियों में शामिल हो गए. वहीं, जो सच में कुछ करने आए थे, वे ‘आप’ को कोसते हुए हमेशा के लिए राजनीति छोड़ गए. अगले विधानसभा चुनाव में ‘आप’ की इस कमज़ोरी का फ़ायदा भाजपा उठा सकती है. देखना होगा कि वह इस चुनौती से कैसे निपटेगी.