पांच महीने पहले हुए राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत का प्रमुख आधार एक नारे ने रखा था. यह था, ‘मोदी तुमसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी ख़ैर नहीं.’ यह नारा सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सीकर में आयोजित एक प्रचार रैली में उछाला गया. उसके बाद यह प्रदेश की गली-कूचों से लेकर राजनैतिक गलियारों तक जमकर कहा-सुना जाने लगा. इसका सीधा-सा मतलब था कि राजस्थान के मतदाता राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के कार्यकाल और उससे भी ज्यादा उनके अहंकार से आजिज आ चुके थे. लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कोई शिकायत नहीं थी.

विधानसभा चुनाव में इस नारे का दूसरा आधा भाग सही साबित हुआ और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 163 से गिरकर 73 सीटों पर सिमट गई. हालांकि 200 में से 100 सीटों के साथ कांग्रेस भी बहुमत हासिल करने में नाकाम रही लेकिन उसने यहां सरकार बना ली. और यहीं से लोकसभा चुनावों से जुड़ी कयासबाजी भी शुरू हो गई. विधानसभा सीटों के हिसाब से कांग्रेस को प्रदेश की 25 में से करीब आधी यानी 13 सीटें मिलनी तय मानी जा रही थीं. कांग्रेस समर्थक विश्लेषकों का मानना था कि राज्य में सरकार होने की वजह से पार्टी को कई फ़ायदे मिलेंगे जिनके चलते कम से कम दो सीटों का फ़ायदा और होगा. इस तरह कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में मिलने वाली अनुमानित सीटों की संख्या 15 तक पहुंच गई.

लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर विधानसभा चुनाव से पहले जो टकराव कांग्रेस में दिख रहा था वह बाद में और तीखा हो गया. माना जाता है कि इससे मतदाताओं के बीच कांग्रेस की छवि काफी खराब हुई. हालांकि यही वो समय था जब प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता भी डगमग होती दिख रही थी. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी रफाल मुद्दे को मजबूती से पकड़ रखा था. साथ ही न्यूनतम आय वाली घोषणा ने भी पार्टी के पक्ष में माहौल बनाया. लिहाजा मतदाताओं ने ख़ामोशी ओढ़ ली जिसे विश्लेषकों ने अंडरकरंट (केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ दबा-छिपा आक्रोश) माना. लेकिन इसी बीच पुलवामा हमले के जवाब में भारतीय वायुसेना की बालाकोट स्ट्राइक हो गई. संयोगवश एयरस्ट्राइक वाले दिन मोदी प्रचार के लिए राजस्थान में ही थे. यहां उन्होंने 2014 की कविता ‘सौगंध मुझे इस मिट्टी की, देश नहीं झुकने दूंगा’ के सहारे एयरस्ट्राइक को जमकर भुनाया.

अब प्रदेश की राजनैतिक हवा बदलने लगी थी. हालांकि वोटर अब भी चुप था, लेकिन इसकी वजह प्रदेश में मौजूद कांग्रेस सरकार का डर और लिहाज़ दोनों थे. विश्लेषक इस चुप्पी को भी ‘अंडरकरंट’ समझने की भूल करते रहे. नतीजा सामने है. भाजपा ने राजस्थान में 2014 से बड़ी जीत हासिल कर ली है. तब पार्टी को राज्य में 1,58,68,126 वोट मिले थे जो इस बार 1,89,687,392 तक पहुंच गए. यानी करीब चार फीसदी ज्यादा.

हालांकि 2014 की तुलना में कांग्रेस को भी इस बार 1.65 प्रतिशत ज्यादा वोट मिले हैं लेकिन इससे सीटों की संख्या पर कोई असर नहीं पड़ा. विधानसभा सीटों के हिसाब से देखें तो कुछ ही महीने पहले 100 सीटों पर जीतने वाली कांग्रेस राज्य की सिर्फ़ 15 सीटों पर बढ़त बना पाने में सफल रही. वहीं भाजपा और सहयोगियों के मामले में यह आंकड़ा 185 सीटों का है. राजस्थान के न सिर्फ़ 23 मंत्रियों, बल्कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के विधानसभा क्षेत्रों में भी कांग्रेस का बुरा हश्र हुआ. ख़बरें बताती हैं कि इन दोनों दिग्गजों के विधानसभा क्षेत्रों से कांग्रेस प्रत्याशी 18-18 हजार से अधिक वोटों से पीछे रहे. वहीं भाजपा के 25 में से 21 सांसद दो लाख से अधिक मतों से जीतने में सफल रहे.

अब सवाल है कि क्या पांच महीनों के भीतर ही लाखों मतदाताओं के यूं बदल जाने की प्रक्रिया को महज़ एक राजनैतिक नारे तक सीमित किया जाना चाहिए. यह बात मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ पर भी लागू होती है. राजस्थान के संदर्भ में बात करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अवधेश आकोदिया इस बारे में दिलचस्प जानकारी साझा करते हैं. वे कहते हैं कि मोदी से बैर नहीं होने वाली बात आम लोगों की तरफ़ से नहीं आई थी. बल्कि यह ख़ुद भाजपा का दिया जुमला था जो उसने विधानसभा चुनाव में अपने अंजाम का अहसास होने के बाद दिया था.

आकोदिया आगे जोड़ते हैं, ‘कांग्रेस का आम कार्यकर्ता इस जाल में उलझ गया और इसकी आड़ में भाजपा ने खुद को मजबूत करना शुरू कर दिया. विधानसभा चुनाव के आख़िर के एक महीने में पार्टी ने जबरदस्त चुनाव मैनेज किया. नतीजतन लोगों की बीच उसके प्रति नाराज़गी कम होती दिखी और उसके कार्यकर्ताओं में जबरदस्त जोश देखा गया. लेकिन कांग्रेस इस पहलू को भांप पाने में शुरू से नाकाम रही.’ आकोदिया की बात को आंकड़ों से समझें तो राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 39.3 प्रतिशत था जबकि भाजपा का 38.8 प्रतिशत. यानी सिर्फ़ 0.5 फीसदी कम.

तमाम परिस्थितियां पक्ष में होते हुए भी विधानसभा और अब लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक तंज कसते हुए कहते हैं, ‘बैर तो ज्यादा वसुंधरा से भी नहीं था, बस ख़ैर कांग्रेस की थी जो तब इज्जत रह गई.’ यह बात इससे भी समझी जा सकती है कि तब तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के गृह जिले झालावाड़ में तो कांग्रेस खाता भी नहीं खोल पाई थी.

हालांकि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मतदाताओं के रुख़ में बदलाव को लेकर जानकारों का एक तबका यह भी मानता है कि प्रदेश में लोगों को लुभाने के लिए कांग्रेस के पास एक नहीं बल्कि अशोक गहलोत और सचिन पायलट की शक्ल में दो बेहतर विकल्प थे. जबकि आज भी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी को अधिकतर वोटर प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर स्वीकार नहीं कर पाए हैं.