दक्षिण के राज्यों में एक चीज बहुत आम है. यहां के लोग अपने नायकों (वे नेता हों या अभिनेता) को भगवान की तरह पूजते हैं. अपने नायकों के जीवनकाल में उन पर जान छिड़कते हैं और उनकी जीवनलीला समाप्त होने पर जान तक दे देते हैं. इतिहास के पन्ने पलटकर देख लें तो तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में ख़ास तौर पर ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे जब लोग अपने नायकों के निधन का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाए. दुख और शोक के आवेग में उन्होंने अपनी जान भी दे दी.

दक्षिण के राज्यों की इस प्रकृति के मद्देनज़र एक उतनी ही स्वाभाविक अपेक्षा यह भी हाे सकती है कि देश के तमाम राज्य जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘सम्मोहन’ के वशीभूत दिखते हैं, जब हर तरफ ‘मोदी-मोदी’ और ‘मोदी है तो मुमकिन है’ जैसे नारे गूंज रहे हैं, जब पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्य भी मोदी के असर से ‘दाएं मुड़ते’ (दक्षिणपंथी विचारधारा की समर्थक भारतीय जनता पार्टी की ओर) दिख रहे हैं. तब भावनाओं में बह जाने वाले दक्षिण के राज्यों से तो मोदी को अपार जनसमर्थन मिलना ही चाहिए.

लेकिन नहीं. बीते लोक सभा चुनाव में कर्नाटक के अपवाद को छोड़ दें तो आंध्र प्रदेश और केरल में नरेंद्र मोदी की भाजपा का ख़ाता भी नहीं खुल पाया है. तेलंगाना में ज़रूर चार सीटें मिलीं लेकिन तमिलनाडु ने 2014 में भाजपा और उसकी सहयोगी पीएमके (पट्‌टाली मक्कल काची) को मिलाकर जो दो सीटें दी थीं वे भी इस बार छीन लीं. इनमें भी तमिलनाडु ने तो संभवत: दशकों बाद पुरानी किसी परंपरा, लहर या दबाव के प्रभाव में आए बिना इस समझदारी से मत दिया है कि उसके नतीज़े प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी सोचने पर मज़बूर कर सकते हैं. उन्हें अपनी रणनीति पर फिर विचार करने के लिए विवश कर सकते हैं.

तमिलनाडु में नतीज़ों के लिहाज़ से आख़िर हुआ क्या है?

जैसा कि शुरू में ही बताया गया. तमिलनाडु भी दशकों से उसी परंपरा का वाहक रहा है जिसमें लोग एक़तरफ़ा तौर पर झुके नज़र आते हैं. इसीलिए यहां कभी जे जयललिता (अब दिवंगत) की पार्टी एआईएडीएमके (अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) को लहर सा समर्थन मिलता रहा तो कभी एम करुणानिधि की डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) को. इसका प्रमाण हैं 2014 के लोक सभा चुनाव के नतीज़े. उस वक़्त एआईएडीएमके ने राज्य की 39 में से 37 सीटें जीती थीं और किसी को तब ज़्यादा अचरज भी नहीं हुआ.

स्पष्ट तौर पर अपने दो नायकों (जयललिता और करुणानिधि) के प्रभाव में जकड़े तमिल मतदाताओं को 2014 तक शायद किसी और के बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं थी. लेकिन 2019 आते-आते ये दोनों ही नायक दुनिया से विदा हो गए. उनके अवसान के बाद किसी अन्य चमत्कारिक नेतृत्व का उदय नहीं हो सका. शायद इसीलिए तमिल मतदाता ने इस बार दिल के बज़ाय दिमाग से ज़्यादा काम लिया. एक़तरफ़ा समर्थन उन्होंने किसी को नहीं दिया. हालांकि नए डीएमके (23 सीटें) प्रमुख और करुणानिधि के पुत्र एमके स्टालिन को तुलनात्मक रूप से तवज्ज़ो मिली लेकिन इस संकेत के साथ कि उन्हें अपने पिता की चमत्कारिक विरासत संभालने के लिए मेहनत करनी होगी.

लोगों ने कांग्रेस को भी आठ सीटें देकर उसके पुनर्जीवन की संभावना भरे संकेत दिए. वहीं राज्य में सरकार चला रही एआईएडीएमके को सिर्फ़ एक सीट मिली. पार्टी संयोजक और उपमुख्यमंत्री ओ पन्नीरसेल्वम के पुत्र रवींद्रनाथ कुमार थेनी संसदीय सीट से जीते. इसमें संभवत: यह संकेत छिपा हो कि एआईएडीएमके का नेतृत्व लोग किन हाथों में चाहते हैं. यहां याद रख सकते हैं कि पन्नीरसेल्वम के पास पार्टी की कमान पूरी तरह से नहीं है. मुख्यमंत्री ईके पलानिसामी सह-संयोजक के तौर पर उनके साथ पार्टी का संयुक्त नेतृत्व कर रहे हैं.

चुनाव से पहले माना जा रहा था कि जयललिता की पूर्व विश्वस्त वीके शशिकला के भतीजे टीटीवी दिनाकरण अपने धनबल के दम पर कोई बड़ा उलटफेर कर सकते हैं. लेकिन उनका ‘रुपया’ नहीं चला और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘लोकप्रियता का सिक्का’ भी लुढ़क गया. दिनाकरण की एएमएमके (अम्मा मक्कल मुनेत्र कड़गम) और मोदी की भाजपा की झोली तमिल मतदाताओं ने खाली ही रखी है.

सिर्फ़ यही नहीं. लोक सभा चुनाव जैसी समझदारी तमिलनाडु के मतदाताओं ने विधानसभा उपचुनाव में भी दिखाई. यहां 22 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए थे. इनमें एक़तरफ़ा नतीज़े या भावना अथवा किसी प्रभाव में बहकर लिए फ़ैसले से राज्य में राजनीतिक अस्थिरता आ सकती थी. समय से पहले विधानसभा चुनाव की नौबत आ सकती थी. लेकिन मतदाताओं ने फिर परिपक्वता का परिचय दिया.

विधानसभा की 235 में से कोई सीट खाली न रहने पर एआईएडीएमके की पलानिसामी सरकार को 118 सदस्यों की ज़रूरत पड़नी थी. लेकिन उसके पास विधानसभा अध्यक्ष को मिलाकर कुल 114 सदस्य ही थे. ठीक-ठाक बहुमत के लिए उन्हें कम से कम छह सदस्य और चाहिए थे. लोगों ने एआईएडीएमके को नौ सीटें दीं. जबकि विपक्षी डीएमके को 13. इस तरह राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने का मौका न विपक्ष को दिया और न दिनाकरण जैसे कारग़ुज़ारों को. साथ ही सरकार को भी संकेत दिया कि बेहतर काम न किया तो अगला मौका डीएमके काे मिल सकता है.

एआईएडीएमके ने नरेंद्र मोदी पर भरोसा किया लेकिन जनता ने क्यों नहीं किया?

इन नतीज़ों पर ग़ौर करते समय इससे ठीक विरोधाभासी लेकिन उतने ही अहम दूसरे बिंदु पर भी नज़र डाल सकते हैं. वह ये कि जयललिता के निधन के बाद उनके करिश्माई और लोकप्रिय नेतृत्व से वंचित एआईएडीएमके ने इस कमी की भरपाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना संरक्षक बनाकर करने की कोशिश की. कहा जाता है कि जयललिता के बाद धड़ाें में बंट गई उनकी पार्टी को फिर एक करने और उसे शशिकला तथा उनके परिवार की जकड़न से बाहर निकालने में नरेंद्र मोदी ने मदद भी खूब की. बदले में मौज़ूदा एआईएडीएमके नेतृत्व ने भाजपा को उपकृत किया. पहली बार उसके साथ चुनाव पूर्व गठबंधन किया. लेकिन जनता ने इस दोस्ती-यारी को नकार दिया.

राज्य की राजनीति के जानकार इसकी कुछ मूलभूत वज़हें बताते हैं. मसलन- फिल्म निर्माता कारू पलानिअप्पन कहते हैं, ‘तमिल लोग बहुत भावुक होते हैं. वे अपने लिए दूसरों से बस थोड़े सम्मान की अपेक्षा ही रखते हैं. लेकिन जब वे देखते हैं कि सामने वाला पक्ष उनकी इतनी अपेक्षा भी पूरी नहीं कर पा रहा है तो वे विरोध और आंदोलन की मुद्रा में आ जाते हैं.’ तिरुचिरापल्ली की भारतीदासन यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर पी रामजयम कहते हैं, ‘यहां सिर्फ़ करिश्मा नहीं चलता. यहां लोग उसी को सिर-माथे पर बिठाते हैं जो उनसे कनेक्ट होता है. तमिलनाडु के हर गांव में ऐसे तमाम-किस्से भरे पड़े हैं, जिनमें लोग बताते हैं कि पेरियार, एमजी रामचंद्रन, जयललिता, करुणानिधि जैसे उनके नेता-नायक उनके पास कब-कब आए. वहीं रुके, वहीं खाया-पिया भी. यहीं शायद भाजपा और नरेंद्र मोदी चूक रहे हैं.’

इन बातों को छोटे दुकानदार गणेशन बड़े सीधे शब्दों में समझा देते हैं, ‘नोटबंदी या जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) से हम जैसों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. हमें फ़र्क़ इससे पड़ता है कि हमारे किसान तीन महीने तक दिल्ली में आंदोलन करते रहे लेकिन प्रधानमंत्री को उनसे मिलने तक की फुर्सत नहीं मिली. और तो और हमने अख़बार में पढ़ा था कि जब गाजा तूफान ने हमारे राज्य में तबाही मचाई तब प्रधानमंत्री शादी के एक समारोह में शिरक़त कर रहे थे. वे यहां नुक़सान का जायज़ा लेने तक नहीं आए.’ वे आगे कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री जब भी यहां आए वोट मांगने आए. उन्हें हमारे वोट चाहिए लेकिन वे ज़रूरत के वक़्त हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े नहीं हो सकते.’

राज्य के वरिष्ठ पत्रकार कोलाहल श्रीनिवास कहते हैं, ‘जल्लीकट्‌टू का मसला हो या मेडिकल कॉलेजों में दाख़िले के लिए होने वाली नीट (राष्ट्रीय पात्रता-सह-प्रवेश परीक्षा) का. कावेरी जल विवाद, हिंदी-हिंदुत्व या तमिल मछुआरों पर श्रीलंकाई सेना के हमलों का. ऐसे लगभग हर मामले ने तमिलनाडु के लोगों में यह धारणा मज़बूत की नरेंद्र मोदी सरकार को उनकी फ़िक़्र नहीं है. इसीलिए जब भी मोदी यहां आते हैं, उनका विरोध होता है. ‘गो-बैक मोदी’ के नारे लगते हैं.’ श्रीनिवास के मुताबिक, ‘संभव है मोदी और उनकी भाजपा के संग-साथ का एआईएडीएमके को लोक सभा चुनाव में नुक़सान हुआ हो क्योंकि विधानसभा उपचुनाव में लोगों ने सत्ताधारी दल को ख़ारिज़ नहीं किया है. बल्कि उसे बचे कार्यकाल में सरकार चलाने लायक मज़बूती ही दी है. इसीलिए मोदी जब ‘सबका साथ-सबका विकास’ की बात कहते हैं, उन लोगों तक भी पहुंचने की बात करते हैं जिन्होंने उन्हें समर्थन नहीं दिया तो तमिलनाडु के नतीज़े बताते हैं कि उन्हें इन पर ख़ास ध्यान देना चाहिए.’