बीती 30 मई को केंद्र में ‘मोदी सरकार 2’ के गठन के बाद बिहार की राजनीति में तेजी से गरमाहट आती हुई दिख रही है. एक ओर जहां राज्य में सत्तासीन जनता दल- यूनाइटेड (जदयू) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के शीर्ष नेता एक-दूसरे पर हमलावर हैं. वहीं, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के बड़े नेता जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार के लिए महागठबंधन के दरवाजे खुले होने की बात कह रहे हैं. इससे पहले लोकसभा चुनाव-2019 में राजद के नेतृत्व में महागठबंधन का सूपड़ा साफ होने के बाद माना जा रहा था कि सूबे में भाजपा और जदयू की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की स्थिति और अधिक मजबूत होगी.
हालांकि, दिल्ली और पटना में घटित हालिया घटनाक्रम इसकी गवाही देते हुए नहीं दिख रहे हैं. पहले केंद्रीय कैबिनेट में सीटों के अनुपात में जगह हासिल नहीं होने के बाद जदयू के मोदी सरकार में शामिल न होने और फिर बिहार कैबिनेट विस्तार से भाजपा को अलग रखे जाने के फैसले इसकी पुष्टि करते हैं. वहीं, माना जा रहा है कि केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के इफ्तार पार्टी को लेकर नीतीश कुमार पर हमले ने दोनों सहयोगी दलों के बीच रिश्ते में खटास पैदा कर दी है. इन राजनीतिक घटनाओं से इतर अगर मुद्दों की बात करें तो आने वाले दिनों में भाजपा और जदयू के बीच इस खटास के बढ़ने की संभावना अधिक दिखती है. इस खटास के पैदा होने की कहानी लोकसभा चुनाव के दौरान ही शुरू होती हुई दिखी थी.
बताया जाता है कि लोकसभा चुनाव के लिए जदयू ने भाजपा के दबाव में अपना घोषणापत्र जारी नहीं किया था. इसकी वजह देश को कथित तौर पर एक करने वाले विवादित और चर्चित मुद्दों पर दोनों दलों के बीच मतभेद थे. इनमें संविधान के अनुच्छेद- 370 और 35 (ए) के साथ नागरिक संशोधन विधेयक और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे शामिल हैं. साथ ही, राम मंदिर निर्माण और तीन तलाक जैसे धार्मिक मुद्दों पर भी दोनों दलों के बीच एकराय नहीं है. अनुच्छेद-370 के तहत जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष अधिकार हासिल है. वहीं, अनुच्छेद-35 (ए) विधानसभा को यह तय करने का अधिकार देता है कि राज्य में कौन स्थायी नागरिक है. इसके आधार पर ही यहां के निवासियों को सरकारी नौकरी, संपत्ति के अधिकार और अन्य कल्याणकारी योजनाओं का लाभार्थी माना जाता है.
वहीं, इससे पहले लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान में भाजपा द्वारा उग्र राष्ट्रवादी रुख अपनाए जाने को लेकर भी नीतीश कुमार सहज नहीं दिखे. बीते अप्रैल में दरभंगा की जनसभा में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे लगाए तो नीतीश कुमार ने चुप्पी साधे रखी. इसके पीछे की वजह वैचारिक मतभेद से अधिक सूबे की राजनीतिक परिस्थितियां और वोटों की केमिस्ट्री दिखती हैं.
लोकसभा चुनाव में एनडीए के भीतर जदयू के हिस्से सूबे की 40 में से 17 सीटें आई थीं. इनमें से पार्टी ने 16 पर जीत दर्ज की. वहीं, मुसलमान बहुल किशनगंज सीट पर पार्टी के उम्मीदवार सैय्यद महमूद अशरफ को कांग्रेसी प्रत्याशी डॉ मोहम्मद जावेद के हाथों करीबी मुकाबले में करीब 35,000 मतों से हार का सामना करना पड़ा. स्थानीय पत्रकारों की मानें तो इस मुकाबले में जदयू की स्थिति अच्छी होने के बाद भी उसे सहयोगी भाजपा की कथित मुसलमान विरोधी छवि का नुकसान उठाना पड़ा. बताया जाता है कि पहली पसंद के बावजूद क्षेत्र के कई मतदाता जदयू से छिटककर कांग्रेस और असदुद्दीन औवेसी की पार्टी एमआईएम की ओर चले गए. इस त्रिकोणीय मुकाबले में एमआईएम 27 फीसदी वोट शेयर के साथ तीसरे पायदान पर थी.
बिहार में जदयू के इस प्रदर्शन से सबसे अधिक नुकसान राजद को होता हुआ दिखा है और पार्टी अपना खाता भी नहीं खोल पाई. पिछले आम चुनाव में इसे चार सीटें मिली थीं. वहीं, पार्टी का वोट शेयर 20 फीसदी रहा था. इस बार यह आंकड़ा घटकर 15 फीसदी रह गया. उधर, जदयू की न केवल सीटों की संख्या दो से बढ़कर 16 हुई बल्कि वोट शेयर भी 16 फीसदी से 21.8 फीसदी तक पहुंच गया. दिलचस्प बात यह भी है कि अपने हिस्से की सभी 17 सीटों पर जीत दर्ज करने वाली भाजपा के वोट शेयर में भी कमी दर्ज की गई. पार्टी को साल 2014 में 30 फीसदी वोट मिले थे. वहीं, इस साल यह आंकड़ा 23.6 फीसदी हो गया. हालांकि, पिछले आम चुनाव में पार्टी ने 30 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे.
इन आंकड़ों को देखने पर साफ होता है कि राज्य की तीनों प्रमुख पार्टियों में एक सीट पर हार के बावजूद जदयू का प्रदर्शन पिछले चुनाव के मुकाबले सबसे बेहतर रहा है. इस बार जदयू ने जिन 16 सीटों पर जीत दर्ज की है, इनमें आधी सीटों पर मुसलमानों के वोट निर्णायक साबित होते हैं. इनमें से अधिकांश सीटें कोसी-सीमांचल क्षेत्र की हैं, जहां साल 2014 के चुनाव में मोदी लहर के बाद भी भाजपा का सफाया हो गया था. इन सीटों पर पहले राजद और कांग्रेस की पकड़ मजबूत थी.
जदयू के पक्ष में इस तरह के चुनावी नतीजों की वजह से माना जा रहा है कि नीतीश कुमार अनुच्छेद-370 और 35 (ए) के साथ राम मंदिर निर्माण, नागरिक संशोधन विधेयक, समान नागरिक संहिता और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर संसद और इसके बाहर भाजपा से अलग रास्ता अपना सकती है. बीती 19 मई को नीतीश कुमार ने इन विवादित मुद्दों को लेकर अपनी पार्टी की स्थिति साफ की थी. उन्होंने कहा था, ‘मेरी पार्टी धारा 370 और 35-ए को हटाने के पक्ष में नहीं है. इसे लेकर हमारा रुख 1996 से ही साफ है. इसके अलावा हम समान नागरिक संहिता का समर्थन नहीं करेंगे और अयोध्या मसले का समाधान कोर्ट के जरिए होना चाहिए.’
दूसरी ओर, चुनाव में अकेले बहुमत हासिल करने और अमित शाह को गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपे जाने के बाद माना जा रहा है कि भाजपा इन मुद्दों पर तेजी से आगे बढ़ सकती है. अमित शाह ने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान नागरिकता कानून में संशोधन करने की बात कही थी. इसके तहत बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के गैर-मुसलमान शरणार्थियों के लिए भारत की नागरिकता हासिल करने संबंधी प्रावधान में ढील देने की बात कही गई है. इसके अलावा भाजपा अध्यक्ष ने पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लागू कर घुसपैठियों को बाहर निकालने का वादा भी किया है. इन वादों को पूरा करने के लिए अमित शाह के सामने चुनौतियां तो हैं लेकिन, अगर ऐसा होता है तो इससे सबसे अधिक मुसलमानों के प्रभावित होने की संभावना होगी.
भारतीय राजनीति में नीतीश कुमार की छवि मौके के लिहाज से अप्रत्याशित फैसले लेने वाले नेता के रूप में विकसित हुई है. साथ ही, राजनीतिक गलियारों में माना जाता है कि उनके मन की थाह लेना आसान नहीं है. यानी उनका अगला कदम क्या होगा, इस बारे में केवल कयास ही लगाए जा सकते हैं. इस लिहाज से आने वाले वक्त में खासकर साल 2020 के विधानसभा चुनाव से पहले बिहार की राजनीति किस करवट बैठती है, इसे तय करने में राष्ट्रवाद और धर्म से जुड़े इन मुद्दों पर दोनों दलों के रुख की बड़ी भूमिका हो सकती है.
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