करीब आधी सदी पहले कैथरीन वर्जीनिया स्विट्जर किसी मैराथन रेस में दौड़ने वाली पहली महिला बनी थीं. साल 1967 में कैथरीन ने बोस्टन मैराथन में हिस्सा लिया था और चार घंटे बीस मिनट में इसे पूरा किया. यह जानकारी किसी सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी का हिस्सा बनने लायक भी महत्व न रखती अगर कैथरीन का किस्सा खेलों की दुनिया में होने वाले भेदभाव का पहला उदाहरण भी न बन जाता.
हुआ यह कि मैराथन शुरू होने के कुछ देर बाद लोगों और मीडिया का ध्यान कैथरीन स्विट्जर पर जाना शुरू हुआ कि यहां तो एक लड़की भी दौड़ रही है. एक लड़की के रेस में हिस्सा लेने से नाराज़ एक रेस-अधिकारी ने कैथरीन को धक्का देकर ट्रैक से बाहर करने की कोशिश की, लेकिन कैथरीन के साथी धावकों ने उसकी इस कोशिश को सफल नहीं होने दिया. तब तक मीडिया भी वहां पहुंच चुका था और यह घटना कैमरों में कैद हो गई. वीडियो (नीचे) में ये तस्वीरें देखी जा सकती हैं. दुखद यह है कि आज भी ये तस्वीरें खेलों की दुनिया में महिलाओं की स्थिति और उनसे किए जाने वाले व्यवहार को एकदम सटीक तरीके से दिखाती है.
खेलों के मामले में जब भी बराबरी की बात चलती है उसमें सबसे पहले पे-गैप का जिक्र किया जाता है. यह भेदभाव कितना गंभीर है इसे बीते साल फोर्ब्स द्वारा जारी की गई सबसे ज्यादा कमाई करने वाली टॉप-100 खेल हस्तियों की लिस्ट देखकर समझा जा सकता है. इस लिस्ट पर गौर करें तो पता चलता है कि शुरुआती सौ खिलाड़ियों में कोई भी महिला शामिल नहीं है. बीते साल सबसे ज्यादा कमाई करने वाले पुरुषों में फ्रेंच बास्केट बॉल खिलाड़ी निकोलस बैटम ने सौवें नंबर पर जगह बनाई थी. उन्होंने 2018 में तकरीबन 2.30 करोड़ डॉलर की कमाई की थी. यह बहुत चौंकाने वाला है कि उसी साल सेरेना विलियम्स ने 1.80 करोड़ डॉलर कमाए थे और वे सबसे ज्यादा कमाई करने वाली टॉप-100 महिला खिलाड़ियों में शीर्ष स्थान पर थीं.
इन लिस्टों का विश्लेषण करने महिला और पुरुष खिलाड़ियों की कमाई से जुड़ा एक और हैरतअंगेज तथ्य आपको चौंकाता है. सबसे ज्यादा कमाई करने वाली शीर्ष दस महिलाओं की कमाई का कुल आंकड़ा 10.50 करोड़ डॉलर होता है जबकि फुटबॉलर लियोनेल मेसी ने इस साल अकेले 11.10 करोड़ डॉलर और क्रिस्टियानो रोनाल्डो ने 10.80 करोड़ डॉलर की कमाई की थी. ऐसा तब था जब ये दोनों ही खिलाड़ी सबसे ज्यादा कमाई करने वाले एथलीटों की लिस्ट में शीर्ष स्थान पर नहीं थे!
सात जून से फ्रांस में महिला फुटबॉल विश्वकप शुरू होने के साथ ही दुनियाभर में इस बात की चर्चा रही है कि वर्तमान विश्व विजेता टीम अमेरिका ने यूएस सॉकर फेडरेशन के खिलाफ लैंगिक भेदभाव का केस दर्ज किया है. 2015 में भी टीम ने फेडरेशन के खिलाफ यह सवाल उठाते हुए मुकदमा किया था कि उन्हें मिलने वाले वेतन-भत्ते पुरुष टीम के एक चौथाई क्यों हैं. साथ ही पूछा गया था उनके वेतन में उचित बढ़ोत्तरी क्यों नहीं की गई, उन्हें ट्रैवल बेनिफिट्स या बाकी आर्थिक सुविधाएं क्यों नहीं दी जाती हैं. वह भी तब जब महिला टीम ने उस साल पुरुष टीम के मुकाबले दो करोड़ डॉलर ज्यादा कमाए थे.
लेकिन इस बार मामला अलग है और एक दूसरी तरह के भेदभाव पर सवाल उठाया जा रहा है. फेडरेशन से इस बार पूछा गया है कि महिला फुटबॉलर्स की मार्केटिंग में उतना धन या संसाधन खर्च क्यों नहीं किए जाते, जितने आमतौर पुरुषों पर किए जाते हैं. यह संस्थागत भेदभाव पहले से ही कम पैसे कमा रही खिलाड़ियों का और व्यावसायिक नुकसान करता है. सही तरह से खिलाड़ियों की ब्रांडिंग न होने के चलते उन्हें वह नाम और शोहरत नहीं मिलती जो आमतौर पर पुरुष खिलाड़ियों के हिस्से में आती है. अमेरिका के मामले में यह शिकायत बास्केट बॉल और आइस हॉकी के खिलाड़ियों की तरफ से भी की गई है. इतना ही नहीं, महिला खिलाड़ियों के ट्रेनर और कोच भी इस भेदभाव की जद में आते हैं.
चौंकाने वाली बात यह है कि जिस फीफा वर्ल्डकप के बहाने दुनियाभर में खेलों में होने वाले लैंगिक भेदभाव की चर्चा हो रही है, वह भी इससे अछूता नहीं हैं. फीफा ने इस बार दिलेरी दिखाते हुए महिला विश्वकप की प्राइज मनी को दो गुना कर दिया है यानी 2015 में जहां यह 1.5 करोड़ डॉलर थी, इस बार तीन करोड़ डॉलर है. वहीं, 2018 में हुए पुरुष विश्वकप की प्राइज मनी इसके दस गुने से ज्यादा करीब 40 करोड़ डॉलर रखी गई थी.
पैसों की बात छोड़ भी दें तो महिला विश्वकप का शेड्यूल भी इसके प्रति फीफा की बेरुखी का सबूत देता है. महिला विश्वकप के दौरान क्रिकेट विश्वकप सहित कोन्काकैफ गोल्ड कप जैसे फुटबॉल के तीन बड़े टूर्नामेंट दुनियाभर में आयोजित हो रहे हैं. ऐसे में पहले से ही कमजोर ब्रांडिंग की मार झेल रहे महिला फुटबॉल विश्वकप के दर्शकों के बंट जाने का खतरा और बढ़ जाता है.
फुटबॉल और पे-गैप से आगे बढ़ें तो बीते साल यूएस ओपन के फाइनल में सेरेना विलियम्स और नाओमी ओसाका के बीच खेले गए मैच में जो हुआ वह एक अलग तरह के ही भेदभाव की कहानी कहता है. उस दिन फाइनल मैच के दौरान चेयर अंपायर कार्लोस रैमोस ने विलियम्स को चीटिंग ना करने चेतावनी दी थी जिसका उन्होंने कड़े शब्दों में विरोध किया था. इस पर भड़के अंपायर ने अंतिम दो सेटों में कोड वॉयलेशन के लिए सेरेना की प्रतिद्वंदी को गेम पॉइंट्स दिए थे. टेनिस के जानकार बताते हैं कि खेल के दौरान ऐसा होता रहता है जब खिलाड़ी अंपायर की किसी टिप्पणी का जवाब तल्खी से भी दे देता है लेकिन इसके लिए उस पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती. ये लोग यह भी मानते हैं कि इस मैच के दौरान सेरेना विलियम्स के साथ जो हुआ उसमें लैंगिक भेदभाव और नस्लवाद की बू साफ महसूस की जा सकती है. अगर वे पुरुष होतीं तो शायद उनका आपत्ति जताना उन्हें इतना महंगा नहीं पड़ता.
भारत की बात करें तो यहां पर सबसे पॉपुलर खेल क्रिकेट है और इसमें भी अभी बराबरी की बात नहीं सोची जा सकती. हालांकि कुछ समय पहले मिक्स्ड जेंडर मैच खेले जाने की चर्चा जोरों पर थी लेकिन बीसीसीआई ने इसे रद्द कर दिया है. भारतीय महिला क्रिकेट टीम की कैप्टन मिताली राज खुद ही अभी इक्वल-पे की बात करना उचित नहीं मानतीं. इसका कारण वे बताती हैं कि उनकी टीम बहुत नई है और बहुत कम मैच खेलती है. लेकिन अगर इस टीम की तुलना पुरुष टीम के शैशव काल से करें तो बहुत सी ऐसी बातें नज़र आती हैं जो लैंगिक भेदभाव की तरफ इशारा करती हैं और इसकी शिकायत कैप्टन मिताली भी कुछ समय पहले कर चुकी हैं. क्रिकेट से हटकर कुछ और खेलों जैसे बॉक्सिंग, रनिंग, रेसलिंग की बात करें तो इन खेलों की भारत में जो स्थिति है, उसमें महिला एथलीट्स का ध्यान भेदभाव से ज्यादा खुद को यौन शोषण से बचाने पर होता है.
टाइम को दिए अपने हालिया इंटरव्यू में अमेरिकन फुटबॉलर एलेक्स मोर्गन कहती हैं, ‘हमें एक एथलीट के तौर पर बहुत कुछ करना होता है. हमें रोल मॉडल बनना होता है. हमें आने वाली नस्लों के लिए रास्ता बनाना होता है. हमें एक साथ कई काम करने होते हैं फिर भी हमें कम मेहनताना क्यों दिया जाता है?’ बेशक, यहां पर एलेक्स के इस बहुत कुछ करने में ऊपर जिक्र की गई बातों को भी शामिल किया जा सकता है.
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