राजस्थान के कोटा-बूंदी से भाजपा के सांसद ओम बिड़ला लोकसभा के नये अध्यक्ष बन बन गये हैं. वैश्य समुदाय से ताल्लुक रखने वाले बिड़ला लगातार दूसरी बार सांसद बने हैं और तीन बार विधायक रह चुके हैं. उन्हें मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में कई प्रमुख समितियों, जैसे- प्राक्कलन समिति, याचिका समिति, ऊर्जा संबंधी स्थायी समिति और सलाहकार समिति का सदस्य बनाया गया था. वे राजस्थान में वसुंधरा राजे की सरकार में संसदीय सचिव भी रह चुके हैं. हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री से उनके संबंध कुछ खास ठीक नहीं बताए जाते.
कभी राष्ट्रीय सहकारी संघ लिमिटेड के उपाध्यक्ष रहे ओम बिड़ला का आज भी कोटा की सहकारी समितियों में काफी दखल बताया जाता है. 2003 के विधानसभा चुनाव में बिड़ला ने कोटा से ही कांग्रेस के दिग्गज नेता शांति धारिवाल को मात देकर जमकर सुर्ख़िया बटोरी थीं. राजस्थान में उनकी पहचान खास तौर पर पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक सरोकार से जुड़े कामों के लिए भी स्थापित है.
कोटा से अपनी पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ बिड़ला से जुड़ी कुछ और जानकारियां हम से साझा करते हैं. वे कहते हैं, ‘बिड़ला के राजनैतिक सफ़र की शुरुआत करीब चार दशक पहले विद्यालय की राजनीति से हुई थी. तब कोटा औद्योगिक शहर होने की वजह से मजदूर आंदोलनों का भी केंद्र था. धीरे-धीरे बिड़ला भी इन आंदोलनों से प्रभावित होने लगे थे.’
ओम बिड़ला की खूबियों की बात करते हुए बारेठ कहते हैं, ‘राजनैतिक प्रबंधन में जबरदस्त माहिर बिड़ला, अवसर हासिल करने और उसे अपने हक़ में ढालने की काबलियत रखते हैं. वे एक ऐसे नेता हैं जो संगठन में जिला स्तर पर सक्रिय रह कर विधानसभा होते हुए लोकसभा तक पहुंचे है. वे पहले युवा मोर्चा के राजस्थान के अध्यक्ष थे और बाद में इसी मोर्चे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बने.’ जानकार बताते हैं कि इस पद के लिए बिड़ला का नाम मौजूदा राज्यसभा सांसद और राजस्थान से आने वाले भाजपा के कद्दावर नेता ओम माथुर ने आगे बढ़ाया था.
‘ये किसी भी लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है कि बुनियादी स्तर से राजनीति करने वाले एक नेता को संसद का अध्यक्ष बनने का मौका मिला है. लेकिन अब बिड़ला के सामने लोगों की उसी कसौटी पर खरा उतरने की जिम्मेदारी भी आ गई है जिस पर गणेश वासुदेव, नीलम संजीव रेड्डी और पीए संगमा जैसे नेताओं को कसा जाता है.’ बारेठ कहते हैं.
ओम बिड़ला से जुड़े कुछ अन्य पहलू भी हैं जिनके बारे में कम ही चर्चा होती है. सूत्रों की मानें तो बिड़ला के भाजपा शीर्ष नेतृत्व में जबरदस्त प्रभाव वाले एक नेता के साथ व्यवसायिक संबध भी हैं. माना जाता है कि इसी वजह से वसुंधरा राजे की नाराज़गी और पार्टी के स्थानीय नेताओं के कड़े विरोध के बावजूद वे इस लोकसभा चुनाव में टिकट हासिल करने में सफल रहे. ओम बिड़ला की, राजस्थान में बड़े प्रभाव वाले हिंदी अख़बार के एक एडीशन में भी साझेदारी बताई जाती है. स्थानीय पत्रकारों से भी उनकी खूब छनती है.
इस आम चुनाव से पहले बिड़ला पर यौन शोषण से जुड़े आरोपों की ख़बरें भी सामने आई थीं. हालांकि उन्होंने इन्हें यह कहते हुए नकार दिया था कि यदि वे दोषी हैं तो उनके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज़ कराई जाए और कानून अपना काम करेगा. इससे पहले बिड़ला के पूर्व निजी सहायक ने उनसे अपनी जान का ख़तरा बताया था. कोटा की राजनीति से जुड़े लोगों के मुताबिक इस सहायक ने कुछ ही दशक में बिड़ला की संपत्ति में अप्रत्याशित बढ़ोतरी से जुड़े सवाल उठाए थे. वहीं, ओम बिड़ला को यह नई जिम्मेदारी मिलने पर राजस्थान के एक वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषक तंज कसते हुए कहते हैं, ‘मोदी-शाह के करीब जाने के लिए किसी भी नेता में यस-मैन का गुण होना बहुत ज़रूरी है जो कि बिड़ला में कूट-कूट कर भरा है.’
ओम बिड़ला से पहले लोकसभा अध्यक्ष पद की दौड़ में मेनका गांधी, एसएस अहलुवालिया, रमापति राम त्रिपाठी, डॉ वीरेंद्र कुमार और राधामोहन सिंह जैसे दिग्गज नेताओं के नाम शामिल थे. इन सभी के सामने बिड़ला का अनुभव उन्नीस नहीं बल्कि सत्रह नज़र आता है. जबकि लोकसभा अध्यक्ष बनाने के लिए किसी वरिष्ठ सांसद के चयन की परिपाटी रही है. इसकी बानगी के तौर पर पूर्व अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को देखा जा सकता है जो 2014 में आठवीं बार लोकसभा सांसद बनी थीं. लेकिन इसके बावजूद कई जानकारों का मानना है कि ओम बिड़ला को यह जिम्मेदारी मिलने पर चौंकना नहीं चाहिए, फिर चाहे उनका नाम दिल्ली के कई सक्रिय पत्रकारों तक के लिए भी अनजान क्यों न हो!
दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही इस बात का इशारा दे चुके थे कि वरिष्ठता ही जिम्मेदारी सौंपने का एकमात्र पैमाना नहीं होगी. उन्होंने यह बात बीते सोमवार को हुई पार्टी के संसदीय दल की बैठक में कही थी. उन्होंने इससे पहले भी प्रधानमंत्री बनते ही अपने सांसदों को पद मिलने से जुड़ी किसी तरह की कयासबाजी न करने के निर्देश प्रमुखता से दिए थे. लेकिन मोदी अगर यह बात न भी कहते तो भी उनके पिछले कार्यकाल के कई अहम निर्णय बताते हैं कि यह चौंकाने वाली राजनीति उनका और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का विशेष अंदाज है. राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोबिंद, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के लिए क्रमश: मनोहर लाल खट्टर और योगी आदित्यनाथ और राजस्थान भाजपा के अध्यक्ष पद के लिए मदनलाल सैनी का चयन, उनके इसी अंदाज़ के कुछ उदाहरण हैं.
इस बारे में गुजरात से ताल्लुक रखने वाले एक वरिष्ठ राजनीतिकार कहते हैं, ‘ये दोनों ही नेता (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह) कई बार सिर्फ़ इसलिए भी चौंकाने वाले निर्णय लेते हैं ताकि ख़ुद को कयासों और संभावनाओं के परे स्थापित कर सकें. असल में चौंकना तो तब चाहिए जब ये चौंकाने वाले फैसले न लें. हमें तो इसकी आदत हो चुकी है. बाकी देश को भी धीरे-धीरे पड़ ही जाएगी.’
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