(इस लेख में ‘कबीर सिंह’ से जुड़े कई सारे संभावित स्पॉइलर मौजूद हैं. अगर आपने इसकी मूल तेलुगु फिल्म ‘अर्जुन रेड्डी’ नहीं देखी है तो अपनी समझ से ही आगे बढ़ें और पढ़ें)
किसी फिल्म के रिलीज होने से पहले उसके बारे में धारणा बना लेना सही बात नहीं है. न ही उस फिल्म को देखे बिना कयास लगाना ठीक है. लेकिन, जिन्होंने भी ‘अर्जुन रेड्डी’ देखी है उनके लिए यह समझना मुश्किल नहीं है कि 21 जून को रिलीज होने वाली शाहिद कपूर की ‘कबीर सिंह’ अपनी मौलिक तेलुगू फिल्म का जस का तस हिंदी अनुवाद होने वाली है. ट्रेलर के अलावा इसके रिलीज हो चुके कई सारे मौलिक हिंदी गानों में भी ठीक वही दृश्यावली नजर आ रही हैं जो कि संदीप रेड्डी वांगा निर्देशित ओरिजनल ‘अर्जुन रेड्डी’ के गानों में हम देख चुके हैं. फिल्म की आधिकारिक लंबाई भी मूल फिल्म के करीब की ही होकर दो घंटे 55 मिनट की है.
इस हूबहू दोहराव की एक यह भी वजह है कि हाल के समय में कई दक्षिण भारतीय रोमांटिक फिल्मों को उन मौलिक फिल्मों के निर्देशकों ने ही हिंदी में दोबारा निर्देशित किया है. ये फिल्में भी तकरीबन सीन दर सीन, संवाद दर संवाद हिंदी अनुवाद भर रही हैं. उदाहरण के लिए गौतम मेनन की बेहद पंसद की गई तमिल फिल्म विन्नईथांडी वरूवाया (Vinnaithaandi Varuvaayaa) (2010) याद कीजिए जिन्हें उन्हीं ने हिंदी में ‘एक दीवाना था’ (2012) नाम से बनाया और इसका शब्दश: हिंदी अनुवाद भर किया. ‘ओके जानू’ (2017) भले ही शाद अली ने निर्देशित की लेकिन उन्होंने भी सीन दर सीन, शब्द दर शब्द केवल अपने गुरु मणिरत्नम के खूबसूरत विजन ‘ओके कनमनी’ (2015) को ही परदे पर दोबारा उकेरा.
ऐसे में संभव नहीं लग रहा कि ‘अर्जुन रेड्डी’ के निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा ने ‘कबीर सिंह’ को निर्देशित करते वक्त उसमें कोई खास बदलाव किया होगा. मौलिक फिल्म का नायक और कई सारे घटनाक्रम वैसे भी इतने ज्यादा मशहूर हो चुके हैं कि उनसे छेड़छाड़ शायद ही कोई निर्देशक करना चाहेगा. ‘अर्जुन रेड्डी’ भाषा की सरहद पार कर हिंदी पट्टी के नौजवानों के बीच भी एक तरह का कल्ट खड़ा कर चुकी है और ऐसे में हिंदी अनुवाद में बदलाव का जोखिम बॉक्स-ऑफिस सफलता पर नजरें गढ़ाए बैठे निर्देशक-स्टार कभी नहीं उठाएंगे.
तो क्या फिर मान लिया जाए कि ‘कबीर सिंह’ 2019 की सबसे रिग्रेसिव और महिला विरोधी हिंदी फिल्म होने वाली है?
क्योंकि ‘अर्जुन रेड्डी’ में काफी कुछ रिग्रेसिव और महिला विरोधी (मिसोजनिस्ट) था. जो दर्शक आक्रोश से भरे इसके स्टाइलिश नायक (विजय देवरकोंडा) व दिलजलों की यूनिवर्सल थीम के पार देखने में सफल हुए थे उन सभी की शिकायत इसके कंटेंट से थी.
यह कोई महान फिल्म वैसे भी नहीं थी. मासूम नायिका और उस पर फिदा बलिष्ठ, स्टाइलिश नायक की ऐसी इंटेंस कंटेम्पररी लव-स्टोरी दक्षिण भारतीय फिल्मों में ही बहुत बार देखने को मिल चुकी है. इनमें बेइंतहा प्यार करने के बावजूद नायक-नायिका को अलग होना पड़ता है और अंत में जाकर ही पता चलता है कि दोनों साथ आ पाएंगे या नहीं. ‘एक दीवाना था’ की ओरिजनल तमिल फिल्म विन्नईथांडी वरूवाया ने भी ऐसी ही मर्मस्पर्शी कहानी 2010 में बेहद तमीजदार अंदाज में कही थी और मलयालम भाषी ‘प्रेमम’ भी 2015 में ऐसी ही एक और कहानी हमें दिखा चुकी है.
लेकिन, ‘अर्जुन रेड्डी’ की खासियत थी कि उसका कहानी कहने का अंदाज अलग होने के अलावा उसके करिश्माई नायक ने और आक्रोश और पीड़ा की उसकी अभिव्यक्ति ने फिल्म को एक नितांत मौलिक गुण दिया था, जो कि उसकी यूनिवर्सल अपील की वजह बना था. नायक का ‘हिंसक और आक्रोशित देवदास’ होना फिल्म का मुख्य आकर्षण था और विजय देवरकोंडा के बेहद उत्कृष्ट अभिनय ने ही इसे ऊंचाइयों तक पहुंचाया था.
लेकिन, बावजूद कमर्शियल सिनेमा की इन सारी खूबियों के, पौरुष का शो-ऑफ करने वाली ‘अर्जुन रेड्डी’ में रिग्रेसिव और मिसोजनिस्ट तत्व कई सारे थे. दिलचस्प है कि निर्देशक को भी शायद इनका भान था, तभी उन्होंने फिल्म को प्रोग्रेसिव और महिलाओं के साथ खड़ा होने वाला दिखाने वाले सीन भी पटकथा में डाले! लेकिन सुधी दर्शकों को ऐसे सीन दिखावटी सामान ही ज्यादा मालूम हुए.
एक सीन पर गौर फरमाइए. सर्जन बनने के बाद दाढ़ी-मूंछों वाला अर्जुन रेड्डी अपने दोस्त और उसके होने वाले जीजा से मिलता है. होने वाला एनआरआई जीजा कुछ दक्षिण भारतीय एयरहोस्टेस को मोटी और कुरुप कहकर उन पर भद्दे कमेंट करता है. अर्जुन रेड्डी इन ‘रिग्रेसिव’ बातों की तरफ अपने दोस्त का ध्यान खींचता है और प्रवचन देते हुए दोस्त से कहता है कि अपनी बहन की शादी इससे मत कराओ. ये बंदा महिलाओं का सम्मान करना नहीं जानता, उन्हें ‘ऑब्जेक्टिफाई’ करता है.
अब कुछ पंद्रह मिनट पहले के एक सीन पर आते हैं. यहां बिना दाढ़ी-मूंछों वाला मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाला अर्जुन रेड्डी अपनी डरी-सहमी प्रेमिका से कहता है – वो जूनियर लड़की प्रीति जिसने खुद प्रेमिका होना चुना नहीं है बल्कि कॉलेज में सुपर सीनियर रहे नायक ने उसे लड़कियों की लंबी कतार के बीच में से अपनी प्रेमिका होना ‘चुना’ है - कि उसे क्लास में मोटी लड़कियों से दोस्ती करनी चाहिए. फिर वह वजह देता है कि मोटी लड़कियां टेडी बियर की तरह होती हैं और हमेशा वफादार बनी रहती हैं. आगे कहता है कि ज्यादातर वक्त दो सुंदर लड़कियां दोस्त नहीं हो पातीं लेकिन ‘अ गुड लुकिंग चिक एंड अ फैट चिक इज डैडली कॉम्बिनेशन’.
यह सब कहने से पहले नायक नायिका के साथ बैठी दो सामान्य कद-काठी की लड़कियों को पीछे भेज चुका होता है और यह सब कहने के बाद पीछे से एक ज्यादा वजन की लड़की को नायिका के बगल में बिठा देता है. नायिका को दोस्त तक चुनने की आजादी नहीं देता ये एक दूसरी गौर करने वाली बात है. अब अगर यह सब रिग्रेसिव सोच का हिस्सा नहीं है, महिला-विरोधी विचार नहीं हैं तो क्या है? महिलाओं को इस स्तर का ‘ऑब्जेक्टिफाई’ तो नायक के दोस्त के जीजा ने भी नहीं किया था!
सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि ऐसे रिग्रेसिव दृश्यों को ‘कवरअप’ करने के लिए निर्देशक ने दोस्त के जीजा वाले सीन जैसे ‘दिखावे’ कई जगह डाले हैं. ताकि केवल मनोरंजन की तलाश में थियेटर नामक कुएं की तरफ आने वाला दर्शक इस रिग्रेसिव आउटलुक को आसानी से नजरअंदाज कर जाए.
अर्जुन रेड्डी का अपनी जूनियर को उसकी सहमति लिए बिना ही अपनी प्रेमिका बना लेना और सरेआम चूम लेना भी कम आपत्तिजनक नहीं है. हालांकि बाद में यह जरूर दिखाया गया है कि वह उसकी सहमति के बिना उसे छूता तक नहीं और जब तक वह शुरुआत नहीं करती तब तक इंटिमेट भी नहीं होता. लेकिन नायिका की हां मिलने से पहले ही हॉस्टल आकर उसकी गोदी में सो जाना, सारे कॉलेज को आगाह कर देना कि वह मेरा प्यार है उससे दूर रहो, और फिर उस 19 साल की भयभीत लड़की के हाथ पर शरीर के विभिन्न हिस्सों की एनॉटमी बनाना क्या उत्पीड़न के दायरे में नहीं आता?
और भाईसाब, ये सारा प्यार इसलिए है कि एक दिन पास से गुजरते वक्त नायिका ने बेंच पर बैठे नायक को आंख उठाकर एक बार देखभर लिया था. और नायक महान ने फिल्म के आखिर में इसी एक वजह को अपने दीवानेपन का कारण बताया भी! ग्रो अप इंडियन फिल्म्स, प्लीज ग्रो अप!
बाद में ऐसी सारी आपत्तियों को यह दिखाकर ‘कवरअप’ किया जाता है कि नायिका को भी नायक से उतना ही गहरा प्यार है. वह नायक के गुस्से को स्वीकार चुकी है और नायक द्वारा की गई हर आपत्तिजनक हरकत उसे क्यूट और नायकत्व से लबरेज लगी है. आज से नहीं, हिंदुस्तानी सिनेमा कई दशकों से इन्हीं अय्यारियों का उपयोग कर हरासमेंट को जस्टीफाई करता रहा है. दक्षिण भारतीय फिल्मों में ऐसा हिंदी फिल्मों से ज्यादा होता है.
फिर एक गेज़ (Gaze)का मसला भी है, जो इस बार पारंपरिक मसाला फिल्मों की तरह मेल का न होकर फीमेल गेज़ है. यानी कि लड़कियां और महिलाएं किस तरह हमेशा अर्जुन रेड्डी को टकटकी लगाए निहारती हैं. यह खासतौर पर बार-बार दिखाया जाता है कि कॉलेज से लेकर अस्पताल तक में अर्जुन रेड्डी से हॉट कोई नहीं और फिल्मी दुनिया से आई अभिनेत्री भी अपनी दुनिया के ग्रीक गॉड्स को छोड़कर उस पर फिदा है.
ऐसा होना केवल पटकथा को रुचिकर बनाने के लिए नहीं किया गया, बल्कि यह एक ‘रिग्रेसिव आउटलुक’ है जिसके अंतर्गत मर्दों के बीच यह मान्यता बनी हुई है कि बैड बॉयज लड़कियों को बेहद लुभाते हैं. कई बार ऐसा होता तो है, लेकिन इसका सामान्यीकरण करना बेहद खतरनाक है. शराब-सिगरेट पीने वाले, ड्रग्स लेने वाले, अपने गुस्से में महिलाओं पर हाथ तक उठाने के लिए तैयार रहने वाले नायक के महानायकत्व को जस्टीफाई करने के लिए ही फिल्म ऐसे चतुर तरीके का उपयोग करती है. और सबसे बड़ी पॉलिटिक्स है कि भले ही यह गेज़ फिल्म में फीमेल का है, लेकिन इसके रचियता मेल डायरेक्टर और मेल राइटर हैं!
‘अर्जुन रेड्डी’ की खुद को प्रोग्रेसिव दिखाने की छद्म कोशिशों पर भी बात कर लेते हैं. इस बेहद लंबी फिल्म के आखिर में जब नायक को पता चलता है कि उसकी शादीशुदा प्रेमिका मां बनने वाली है तो नायक उसके पास जाता है और प्रार्थना करता है कि वह उसकी बदहाल जिंदगी में वापस आ जाए. साथ ही यह भी कहता है कि उसे किसी और का बच्चा स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं है. इस क्षण पर दर्शकों को लगता है कि वाह क्या प्रोग्रेसिव नायक है जो शादीशुदा प्रेमिका को किसी और के बच्चे के साथ दिल से स्वीकार करने को तैयार है.
लेकिन, फिल्म इतनी प्रोग्रेसिव नहीं निकलती. इस घोर पारंपरिक और बोरियत में सने क्लाइमेक्स के अंत में नायिका कहती है कि उसने शादी के चंद दिनों में ही अपने पति को छोड़ दिया था और यह बच्चा नायक का ही है! इस तरह, क्लाइमेक्स के शुरुआत में खुद को प्रोग्रेसिव दिखाकर ‘अर्जुन रेड्डी’ बेहद चालाकी से वापस पारंपरिकता का घूंघट ओढ़ लेती है! और सुधी दर्शक इस सवाल का जवाब ढूंढ़ते रह जाते हैं कि आखिर निर्देशक को अंत में क्यों यह दिखाने की जरूरत पड़ी कि नायिका पवित्र है और अलग से रेखांकित करने की जरूरत पड़ी कि उसे नायक के अलावा किसी ने छूआ नहीं है?
शायद इसलिए कि महिला का मासूम होना, उसकी आंखों का शुरुआत से नीचा रहना, वर्जिन होना, नायक के साथ आने के बाद ब्रेकअप के दौरान भी किसी और के साथ इंटीमेट नहीं होकर ‘प्योर’ बने रहना इस तरह की घोर पुरुषवादी फिल्मों की हमेशा से रीत रही है. ‘अर्जुन रेड्डी’ इस रीत की ही लीकपर आखिर तक चलने वाली फिल्म है.
वैसे इस फिल्म को एक वजह से जरूर लंबे समय तक याद रखना चाहिए. फिल्म इसे सीधे तौर पर बोलती नहीं है लेकिन आपको समझने के मौके कई देती है. कि अनियंत्रित क्रोध हमेशा अच्छे-खासे जीवन को बर्बाद कर देता है. कुछ क्षणों का असीम आक्रोश पछतावे और सफरिंग के रूप में लंबे समय तक गूंजता है. तमाम कमियों और वाजिब आलोचनाओं के बावजूद ठीक यही कड़वा सच काफी दर्शनीय ‘अर्जुन रेड्डी’ का हासिल था. उम्मीद है कि 21 जून को ‘कबीर सिंह’ का भी होगा.
फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर हमसे जुड़ें | सत्याग्रह एप डाउनलोड करें
Respond to this article with a post
Share your perspective on this article with a post on ScrollStack, and send it to your followers.