महाराष्ट्र सरकार ने बीड जिले में बीते तीन वर्षों के दौरान महिलाओं के गर्भाशय निकाले जाने के मामले की जांच के आदेश दिए हैं. इसके लिए राज्य स्वास्थ्य विभाग के सचिव की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई है. इसे दो महीने के भीतर सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपनी है. बीते बुधवार को स्वास्थ्य मंत्री एकनाथ शिंदे ने विधान परिषद में एक सवाल के जवाब में यह जानकारी दी. उन्होंने बताया कि राज्य के 99 अस्पतालों में 2016-17 से 2018-19 के बीच 4,605 महिलाओं की नासमझी का फायदा उठाकर गर्भाशय निकाले गए. इन महिलाओं की उम्र 25 से 30 साल के बीच थी. ये सभी अस्पताल निजी थे.

इससे पहले बीते अप्रैल में राष्ट्रीय और राज्य महिला आयोग ने भी मीडिया रिपोर्टों के आधार पर महाराष्ट्र सरकार को इस बारे में नोटिस जारी किया था. इसमें आयोग ने राज्य के मुख्य सचिव को इस मामले पर सख्त कदम उठाने का निर्देश दिया.उसने यह भी सुनिश्चित करने के लिए कहा कि आगे से ऐसी कोई घटना न हो. आयोग ने इसे महिलाओं के लिए दर्दनाक स्थिति बताया.

बीड महाराष्ट्र में गन्ने के उत्पादन वाला इलाका है. सूबे के मराठवाड़ा स्थित इस जिले में अधिकांश महिलाएं गन्ना काटने का काम करती हैं. यह काम अक्टूबर से मार्च यानी छह महीने तक चलता है. इस दौरान उन्हें न के बराबर आराम दिया जाता है. यहां तक कि माहवारी के दिनों में भी उन्हें शारीरिक परेशानी के साथ काम करना पड़ता है. यदि वे इन दिनों के दौरान काम से गैर-मौजूद रहती हैं, तो ठेकेदार उन पर प्रतिदिन के हिसाब से आर्थिक जुर्माना भी लगाता है.

लेकिन कई ठेकेदार इससे भी आगे निकल गए हैं. वे महिला मजदूरों को ऑपरेशन के जरिए गर्भाशय हटवाने के लिए उकसाते हैं. ये ठेकेदार ऐसी महिला मजदूरों को तरजीह भी देते हैं जिन्होंने गर्भाशय का ऑपरेशन करवा लिया हो. इससे माहवारी या फिर उनके गर्भवती होने की संभावना खत्म हो जाती है और वे लगातार यानी बिना छुट्टी के खेतों में काम कर सकती हैं. अपनी आजीविका चलाने के लिए इन मजूदरों को ऐसा करने के लिए मजबूर होना पड़ता है. हालांकि, कम उम्र (30 साल से कम) में ही गर्भाशय निकाले जाने की वजह से इन्हें आने वाले वर्षों में पीठ में दर्द सहित कई अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है.

ठेकेदारों को भी तय समय-सीमा के भीतर किसानों को उनके गन्ने की कटाई करके देनी होती है. बताया जाता है कि खेतों में तैयार गन्ना यदि समय से न काटा जाए तो उसका वजन घटने लगता है. इसलिए ठेकेदारों और मजदूरों पर इस काम को जल्द से जल्द पूरा करने का दबाव रहता है. इसी दबाव में गन्ना काटने वाले मजदूर खासकर महिलाएं पिसती हुई दिखती हैं

स्थानीय मीडिया रिपोर्टों की मानें तो महिला मजदूरों को इस कुचक्र में फंसाने के लिए एक पूरा जाल फैला हुआ है. इसमें मजदूरों को काम पर रखने वाले ठेकेदार और निजी अस्पताल शामिल होते हैं. ये ठेकेदार महिलाओं को गर्भाशय निकालने के लिए उकसाने के साथ इस पर होने वाला खर्च भी एडवांस में देने के लिए तैयार होते हैं. इस रकम को बाद में उनकी मजदूरी से काट लिया जाता है. निजी अस्पतालों में इस ऑपरेशन के लिए 30 से 35 हजार रुपये तक खर्च होते हैं. कई मामलों में ऐसा भी होता है कि इस खेल में शामिल डॉक्टरों के पास महिलाएं अपनी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के साथ पहुंचती है तो कैंसर का डर दिखाकर उन्हें गर्भाशय निकालने की सलाह दी जाती है.

बीती 12 जून को मुंबई में इस मुद्दे पर एक कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया गया था. इसमें बीड की कई महिला मजदूर भी शामिल हुई थीं. मुंबई मिरर की रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से एक 28 वर्षीय आशा जोगदानांद का कहना था, ‘मुझे 30 हजार रुपये कर्ज (गर्भाशय की सर्जरी के लिए) लेने के लिए मजबूर किया गया जिसे मैं अब तक चुका रही हूं.’

आशा चार साल पहले स्वास्थ्य संबंधी समस्या लेकर एक डॉक्टर के पास गई थीं. डॉक्टर ने उन्हें कैंसर का डर दिखाकर गर्भाशय का ऑपरेशन कराने को कहा. आशा का कहना था, ‘ऑपरेशन के बाद मेरी शारीरिक तकलीफ बढ़ गईं. डॉक्टर ने इस बारे में मुझसे कुछ नहीं कहा और दवाइयां लिख दी जिनका खर्च चार से पांच सौ रुपए हर महीने आता है.’ उनके मुताबिक उन्हें ये दवाइयां काफी महंगी पड़ती हैं.

एक अन्य पीड़िता शीला वाघमारे का 19 साल की उम्र में ही गर्भाशय का ऑपरेशन कर दिया गया था. उनकी 12 साल की उम्र में ही शादी कर दी गई थी. अब शीला 32 साल की हैं. वे कहती हैं, ‘मुझे नहीं मालूम था कि किस चीज की सर्जरी है. बस इतना कहा गया था कि मेरे तीन बच्चे हैं और गर्भाशय निकाले जाने की वजह से कोई समस्या नहीं होगी. मैं असहाय महसूस कर रही हूं और मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरे साथ धोखा हुआ है.’ शीला को उम्मीद है कि सरकार ऐसे डॉक्टरों के हाथों अन्य जिंदगियां बर्बाद होने से रोक पाएगी.

हालांकि, सामाजिक कार्यकर्ताओं में इस तरह की उम्मीद नहीं दिखती. उनके मुताबिक अब तक सरकार की ओर से इस खेल में शामिल अस्पतालों और डॉक्टरों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है. उन्होंने सरकार से इस मुद्दे पर की गई सभी सर्वे रिपोर्टों को सार्वजनिक करने की मांग की है. पुणे स्थित एक सामाजिक संस्था तथापि के संयोजक अच्युत बोरवांकर ने सत्याग्रह को बताया कि इस बारे में राज्य के सभी विधायकों और विधान परिषद के सदस्यों को ज्ञापन सौंपा गया है. उधर, शिवसेना की मनीषा कायंडे ने वादा किया है कि उनकी पार्टी की सभी महिला विधायक इस मामले को आने वाले विधानसभा चुनाव (अक्टूबर, 2019) में इस मुद्दे के लिए लड़ेंगी.

महाराष्ट्र में इस साल सितंबर-अक्टूबर में विधानसभा चुनाव है. तब यह एक बड़ा मुद्दा इसलिए भी बन सकता है क्योंकि आम तौर पर सूखे की मार झेलने वाले मराठवाड़ा क्षेत्र में सबसे अधिक गन्ना काटने वाले मजदूर होते हैं. इस क्षेत्र में पड़ने वाले बीड में इनकी संख्या सबसे अधिक है. हालांकि, पूरे राज्य में इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है लेकिन, एक अनुमान के मुताबिक इनकी संख्या 14 लाख के आस-पास है. इनमें से अधिकांश भूमिहीन हैं. और दलित समुदाय से आते हैं.

इस मामले में सक्रिय सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं का कहना है कि राजनेता और संगठित चीनी उद्योग यह सुनिश्चित करने का काम करते हैं कि गन्ना काटने वाले मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए पर श्रम कानून लागू न हो. इन संगठनों में जन स्वास्थ्य अभियान, महाराष्ट्र महिला आरोग्य हक परिषद, महिला किसान अधिकार मंच और एकल महिला संगठन शामिल हैं. उनका कहना है कि इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी कानून और कॉन्ट्रैक्ट श्रम कानून का भी सहारा नहीं है. इनके अलावा यदि दुर्घटना में मजदूर की मौत हो जाती है तो इनके लिए मुआवजे का भी कोई प्रावधान नहीं है.

इन संगठनों की मांग है कि राज्य स्वास्थ्य विभाग इन मजदूरों के लिए विशेष कार्यक्रम शुरू करे. यह भी कि राज्य सरकार निजी अस्पतालों के नियमन के लिए काफी समय से लंबित क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट कानून पारित करे. ये संगठन यह मांग भी कर रहे हैं कि इन मजदूरों के लिए भी श्रम और संविदा कानून लागू किए जाएं. इसके अलावा कार्यस्थलों पर शौचालय, पेयजल आदि बुनियादी सुविधाएंउपलब्ध करवाने की भी मांग की गई है.

आम तौर पर माना जाता है कि कार्यस्थलों पर वेतन और काम के घंटे आदि को लेकर महिलाकर्मियों या मजदूरों को भेदभाव और यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है. लेकिन, बीड का यह मामला इन सबसे कहीं आगे दिखता है. आजादी के बाद आने वाली सभी सरकारों ने महिला सशक्तिकरण के लिए कई कदम उठाने का दावा किया है. हालांकि, बीड की इन महिलाओं के लिए ये दावे खोखले ही साबित होते दिख रहे हैं. उनकी कोख की तरह उनके भविष्य की उम्मीदें भी खत्म दिखती हैं.