केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार देश की अफ़सरशाही को ‘सुधारने’ की दिशा में नए क़दम उठा रही है. हाल ही में उसने भ्रष्टाचार के आरोपित वित्त मंत्रालय के कई अधिकारियों को समय से पहले रिटायर कर दिया. ख़बरें हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार ‘भ्रष्ट’ और ‘कामचोर’ अधिकारियों को घर भेजने का काम आगे भी जारी रखेगी. सरकार का रुख़ देखकर यह भी लग रहा है कि वह अच्छा प्रदर्शन नहीं करने, अपेक्षित परिणाम नहीं देने या काम में चूक करने वाले अधिकारियों को भी बख़्शने के मूड में नहीं है. इसे उसकी उस सिफ़ारिश से भी समझा जा सकता है, जिसमें उसने सेना से कहा है कि वह उन वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारियों को रिटायर करे जो आतंकी हमलों का शिकार हुए सैन्य कैंपों के कमांडर थे.
सरकार के इस क़दम से यह भी साफ़ होता है कि अधिकारियों को समय से पहले रिटायर करने की उसकी योजना, केवल प्रशासनिक स्तर पर नहीं है बल्कि इसकी ज़द में पुलिस और सेना भी हैं. ख़बरों के मुताबिक़ बीती 20 जून को कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने सभी मंत्रालयों के सचिवालयों को पत्र लिखकर कहा है कि वे जनहित में ऐसे अधिकारियों से जुड़ी फ़ाइलें उसे सौंपे, जिन्हें संबंधित नियमों के तहत समय से पूर्व रिटायर किया जा सकता है. कुछ मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक़ सरकार के इस रवैये से अधिकतर अधिकारी ख़ुश हैं. वे मानते हैं कि इससे नौकरशाही में सुधार आएगा.
सुधार के बहाने निजीकरण को बढ़ावा?
लेकिन सरकार की यह योजना तब सवालों के घेरे में आ गई, जब उसने बाहर (निजी क्षेत्र) के लोगों को सरकार में शामिल करने से जुड़ी अपनी लेटरल एंट्री योजना का विस्तार कर दिया. इंडियन एक्सप्रेस की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ मोदी सरकार निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को उपसचिव या निदेशक स्तर के 400 सरकारी पदों पर नियुक्त करने की योजना पर काम कर रही है. उसकी इस योजना की दो तरह से आलोचना हो रही है. कई जानकारों का कहना है कि अप्रैल में निजी क्षेत्र के नौ विशेषज्ञों को संयुक्त सचिव बनाने के बाद सरकारी पदों पर ऐसे लोगों की संख्या सीधे 400 करना यह बताता है कि नरेंद्र मोदी सरकार अफ़सरशाही में ‘सुधार’ और ‘नई प्रतिभा’ लाने के नाम पर सरकारी कामकाज का निजीकरण कर रही है. उनके मुताबिक़ इस तरह निजी क्षेत्र के प्रभावशाली और ताक़तवर लोग सरकारी कामकाज और नीतियों में हस्तक्षेप करने की स्थिति में भी आ सकते हैं.
हालांकि इस स्थिति के लिए सरकारी कंपनियां भी कम ज़िम्मेदार नहीं हैं. इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं. कभी देश में सबसे अधिक मुनाफ़ा कमाने वाली सरकारी कंपनियों में से एक रही बीएसएनएल बीते तीन सालों से लगातार घाटे में है. अब हालत यह है कि 18 सालों में पहली बार यह सरकारी टेलीकॉम कंपनी अपने 1.76 लाख कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पा रही है. जानकारों के मुताबिक़ इस स्थिति के कई कारण हैं. अगर एक तरफ़ सरकार प्राइवेट टेलीकॉम कंपनियों पर ज़्यादा ध्यान दे रही है, तो वहीं बाज़ार की परिस्थितियों से निपटने, भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने और सरकारी पैसे का दुरुपयोग रोकने में बीएसएनएल भी नाकाम रही है. ऐसे में अब कंपनी के अंदर से ही आवाज़ें उठने लगी हैं कि ख़राब प्रदर्शन करने या कामचोर लोगों को निकाला जाए. हाल ही में गुजरात स्थित ऑल इंडिया ग्रेजुएट इंजीनियर्स एंड टेलीकॉम ऑफ़िसर्स एसोसिएशन ने सरकार को पत्र लिख कर बीएसएनएल में लेटरल एंट्री स्कीम लागू करने का समर्थन किया है.
लेटरल एंट्री से आरक्षण को ख़तरा?
बहरहाल, इस योजना की आलोचना की दूसरी वजह है आरक्षण. दरअसल, जिस केंद्रीय कर्मचारी योजना के तहत सरकार उपसचिव/निदेशक पदों पर निजी क्षेत्र के लोगों को लाने का विचार कर रही है, उसमें आरक्षण का नियम लागू नहीं होगा. आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक़ इन पदों पर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी वर्ग को कोई आरक्षण नहीं दिया जाएगा. इस बारे में सवाल पूछे जाने पर सरकार ने तर्क दिया है कि इस योजना के तहत भर्तियां एकल पद के तहत की जाएंगी और एक पद के लिए आरक्षण नहीं दिया जा सकता.
सरकार का यह जवाब विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती के लिए लाए गए 13 पॉइंट रोस्टर (जिसे बाद में लागू नहीं किया गया) की याद दिलाता है. उस सिस्टम के तहत विश्वविद्यालयों के बजाय उनके विभागों को इकाई मानते हुए शिक्षकों की भर्ती की जानी थी. अगर वह रोस्टर लागू हो जाता तो विश्वविद्यालयों में आरक्षण होते हुए भी नहीं रहता.
लेकिन लेटरल एंट्री के मामले में तो सरकार एक क़दम आगे चली गई है. यहां वह विभाग नहीं, बल्कि एक पद को ही ‘इकाई’ की तरह ले रही है. अगर उसने इस योजना पर अमल किया तो यह अनौपचारिक रूप से आरक्षण ख़त्म करने जैसा ही होगा. इंडियन एक्सप्रेस ने बताया है कि देश में उपसचिव/निदेशक स्तर के 1,300 पद हैं. इनमें से 650 पद केंद्रीय सचिवालय सेवा के तहत रिज़र्व हैं जिनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता. इसके लिए सरकार को नियमों में संशोधन करना पड़ेगा. लेकिन बाक़ी बचे 650 पदों को प्रभावित किया जा सकता है. इन पदों पर अखिल भारतीय सेवा (आईएएस, आईपीएस, आईएफ़एस, आईआरएस और अन्य सेवाएं) अधिकारियों के अलावा आयकर विभाग, कस्टम, रेलवे, टेलीकॉम आदि सेवाओं के लिए अधिकारियों को नियुक्त किया जाता है. सरकार ऐसे 400 पदों पर बिना आरक्षण के निजी क्षेत्र के लोगों को लाने की तैयारी कर रही है. जानकारों का कहना है कि इस तरह सरकार क़रीब 60 प्रतिशत पदों पर एससी, एसटी और ओबीसी वर्गों की अनदेखी करने का काम करेगी.
सरकार की इस योजना को आरक्षण विरोधी मानने की एक और वजह बताई जा रही है. दरअसल, कई जानकार कहते हैं कि देश के प्रमुख प्रशासनिक और सरकारी पदों पर दलित, आदिवासी और ओबीसी वर्ग के अधिकारी नहीं पहुंच पाते. उन्हें सरकार में शामिल करते हुए महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता. इन वर्गों के अधिकारियों को ज़्यादातर ऐसे पद दिए जाते हैं, जो निम्न प्रशासनिक स्तर तक ही सीमित होते हैं. लेकिन अब उन पदों पर भी सरकार बिना आरक्षण और बिना औपचारिक परीक्षा के निजी क्षेत्र के लोगों को ला रही है. इसलिए इसे पिछड़े तबक़े की ‘हक़मारी’ के रूप में देखा जा रहा है.
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