राष्ट्रीय राजनीति में राजस्थान का दबदबा अचानक से बढ़ता दिख रहा है. ताजा उदाहरण लोकसभा अध्यक्ष बने ओम बिड़ला का है. वे राजस्थान के कोटा-बूंदी से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं. यदि केंद्रीय कैबनेट की बात करें तो यहां भी राजस्थान से गजेंद्र सिंह शेखावत, कैलाश चौधरी और अर्जुन राम मेघवाल की शक्ल में तीन सांसदों को जगह मिली है. कई राजनैतिक विश्लेषक चुनावी मुहाने से काफ़ी दूर खड़े राजस्थान के लिए इस सौगात को ज़रूरत से ज्यादा क़रार देते हैं. पिछली मोदी सरकार में मंत्रिमंडल के विस्तार से पहले राजस्थान से आने वाले मंत्रियों की संख्या संख्या सिर्फ़ एक थी.
भारतीय जनता पार्टी से जुड़े कुछ सूत्र यह भी बताते हैं कि हाल-फिलहाल भले ही जेपी नड्डा को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया है, लेकिन अमित शाह अपने बाद राजस्थान से राज्यसभा सांसद और पार्टी महासचिव भूपेंद्र यादव को अध्यक्ष के तौर पर देखना चाहते हैं. भूपेंद्र यादव सबसे पहले राजस्थान विधानसभा चुनाव-2013 के बाद राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में आए थे. इस चुनाव में उन्होंने भाजपा की तरफ़ से प्रभारी की भूमिका निभाई थी और पार्टी 200 में से 163 सीटों के साथ ऐतिहासिक जीत हासिल करने में सफल रही. इसके बाद यादव को झारखंड, बिहार, कर्नाटक और उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में अहम जिम्मेदारियां सौंपी गई.
भाजपा अध्यक्ष पद की दौड़ में यादव के अलावा जिन ओम प्रकाश माथुर का नाम सबसे आगे है, उनका भी ताल्लुक राजस्थान से ही है. राज्यसभा सांसद होने के अलावा माथुर फिलहाल भाजपा में उपाध्यक्ष पद की भी जिम्मेदारी संभाले हुए हैं. वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहद करीबी माने जाते हैं. ओम प्रकाश माथुर 2014 और 2019 दोनों लोकसभा चुनावों में गुजरात के प्रभारी रह चुके हैं. इससे पहले उन्हंने 2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी यही भूमिका निभाई थी. 2008-09 के दौरान ओम प्रकाश माथुर राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष भी रहे.
पिछले साल माथुर ने राजस्थान में नए पार्टी अध्यक्ष की ताजपोशी को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और अमित शाह के बीच हुई जबरदस्त तनातनी में मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी. उनके अलावा वसुंधरा राजे भी भारतीय जनता पार्टी में उपाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाल रही हैं.
यदि गृहमंत्री अमित शाह के अन्य विश्वस्त सिपहसलारों की बात करें तो उनमें जयपुर से आने वाले सुनील बंसल का भी नाम प्रमुखता से लिया जाता है. 2003 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में अपने रणनीतिक कौशल के चलते जिन नेताओं का उभार किसी नायक की तरह हुआ था, सुनील बंसल भी उनमें एक थे. फिलहाल वे राष्ट्रीय राजनीति में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा के संगठन मंत्री हैं. इस लोकसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में जब सपा-बसपा गठबंधन के बाद भाजपा खेमे में जबरदस्त हलचल देखी गई तब सुनील बंसल ने गैर यादव पिछड़ों और गैर जाटव दलितों को भाजपा के साथ लाने की दिशा में युद्धस्तर पर काम कर पार्टी शीर्ष नेतृत्व को खासा प्रभावित किया था.
लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी में ही राजस्थान से आने वाले नेताओं को बड़ी जिम्मेदारियां मिल रही हैं. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के इस्तीफ़े की जिद पर अड़े रहने के बाद जिन नेताओं को पार्टी की कमान सौंपे जाने की चर्चा सर्वाधिक है उनमें राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम सबसे ऊपर है. वहीं एक प्रतिष्ठित विदेशी न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट है कि डूबती हुई कांग्रेस की नैया को यदि कोई राष्ट्रीय स्तर पर पार लगा सकता है तो वे राजस्थान के उपमुख्यमंत्री और कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट हैं.
दिलचस्प बात यह है कि राजस्थान का दखल सिर्फ़ केंद्र की राजनीति में ही नहीं बढ़ा है बल्कि प्रशासनिक मामलों में भी सूबे के दबदबे में इजाफा हुआ है. मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील आरोड़ा, भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक राजीव महर्षि और वित्त मंत्रालय के सचिव सुभाष गर्ग राजस्थान से ही आते हैं. इनके अलावा राजस्थान बैच के पंद्रह से ज्यादा अधिकारी राजधानी दिल्ली में अपनी सेवाएं दे रहे हैं.
सवाल है कि आख़िर ऐसा क्या हुआ जो राजस्थान अचानक से राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र बनकर उभरा है. पहले भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो प्रदेश के अधिकतर जानकार इस बात के तार प्रधानंमंत्री नरेंद्र मोदी व अमित शाह की जोड़ी और वसुंधरा राजे सिंधिया के बनते-बिगड़ते रिश्तों से जोड़ते हैं. एक राजनैतिक विश्लेषक के शब्दों में ‘राजे ने अपने सांसद बेटे दुष्यंत सिंह की वरिष्ठता और दिल्ली में उनका प्रभाव बनाए रखने के लिए राजस्थान के कई काबिल सांसदों को या तो दबाकर रखा या फिर उनके टिकट ही कटवा दिए. ऐसे में राजस्थान के कई नेताओं में उनके ख़िलाफ़ नाराज़गी तो थी, लेकिन प्रदेश संगठन पर उनकी जबरदस्त पकड़ होने की वजह से कोई आवाज़ नहीं उठा पाता था. दूसरी तरफ़ नरेंद्र मोदी और खासतौर पर अमित शाह को भाजपा में जो नेता चुनौती के तौर पर नज़र आते हैं, उनमें वसुंधरा राजे प्रमुख हैं. नतीजतन राजस्थान के अलग-अलग हिस्सों और समुदायों से आने वाले राजे विरोधी नेताओं को मंत्री बनाकर प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री का प्रभाव सीमित करने की कोशिश की गई है.’
प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी इस बारे में बात करते हुए कुछ और भी कारण गिनाते हैं. वे कहते हैं, ‘राजस्थान की सीमाएं गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा से मिलती हैं. ऐसे में हिंदी बेल्ट वाले राज्यों से जुड़े तमाम प्रयोगों के लिए यह प्रदेश भाजपा को माफ़िक केंद्र नज़र आता है. इसके अलावा यहां मुसलमान हैं तो सही, लेकिन विरोध जताने लायक प्रभावी नहीं हैं. ऐसे में यहां फ़िरक़ापरस्ती भी आसानी से फैलाई जा सकती है. अलवर इसका प्रमुख उदाहरण है. फिर राजशाही इतिहास की वजह से यहां राष्ट्रवाद को भुनाने के लिए भी भरपूर जगह नज़र आती है.’
वहीं, कांग्रेस के मामले में एक अन्य वरिष्ठ राजनीतिकार का कहना है कि पहले गुजरात, फिर पंजाब और कर्नाटक विधानसभा चुनावों में अहम भूमिकाएं निभाने की वजह से संगठन में अशोक गहलोत का क़द तेजी से बढ़ा है. वे कहते हैं, ‘इस पद के लिए अहमद पटेल भी गांधी परिवार की पसंद हो सकते हैं. लेकिन जिस तरह से कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व की रणनीति पर आगे बढ़ रही है, पटेल उससे मेल नहीं खाते.’ हालांकि राजनीतिकारों के एक वर्ग का इस बारे में यह भी मानना है कि अशोक गहलोत को अध्यक्ष बनने से जुड़ी ख़बरों को राजस्थान कांग्रेस का ही एक वर्ग बड़ी सक्रियता से फैला रहा है ताकि उनके दिल्ली जाने के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी सचिन पायलट को सौंपी जा सके.
राजस्थान के अधिकारियों को दिल्ली में बड़ी जिम्मेदारियां मिलने के मामले में जानकारों की राय मिली-जुली है. ओम सैनी इस बारे में कहते हैं कि दिल्ली में चुन-चुनकर वसुंधरा राजे विरोधी अधिकारियों की लॉबी तैयार की जा रही हैं. उनके मुताबिक संभावना है कि अगले विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे के ख़िलाफ़ केंद्र का यह कदम प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी भूमिका निभा सकता है. वहीं एक वरिष्ठ पत्रकार इसके पीछे एक अलग कारण बताते हैं. वे कहते हैं, ‘नब्बे के दशक में एक बेहद अनुशासित अधिकारी राजस्थान के मुख्य सचिव बने थे. उन्होंने बड़ी संख्या में लापरवाही करने वाले अधीनस्थ अधिकारियों के परफॉर्मेंस रिकॉर्ड में मार्क कर दिए थे. इसके चलते प्रदेश से दिल्ली जाने वाले अधिकारियों की संख्या न की बराबर रह गई. बाद में यह मुद्दा जमकर गर्माया भी था जिसे अब धीरे-धीरे सुधारा जा रहा है.’
वहीं वरिष्ठ समाजशास्त्री राजीव गुप्ता राजस्थान का प्रतिनिधित्व दिल्ली में बढ़ने के पीछे एक दिलचस्प वजह की तरफ़ हमारा ध्यान ले जाते हैं. वे कहते हैं, ‘वर्तमान केंद्र सरकार की राजनीति से लोकतंत्र नहीं, बल्कि सामंतवादी पुट ज्यादा झलकता है जिसमें जाति, धर्म और ऊंच-नीच का भाव कूट-कूट कर भरा है. अपने इस एजेंडे पर काम करने और उसे फैलाने के लिए सरकार को ऐसे नेता और अधिकारियों की सख़्त ज़रूरत है जो न सिर्फ़ इन बातों में गहराई से विश्वास रखते हों बल्कि बिना किंतु-परंतु के राजसत्ता के प्रति पूरी तरह समर्पित भी हों. चूंकि राजस्थान में अनेक बदलावों के बाद भी सामंतवाद आज तक हावी है, इसलिए यहां से आने वाले नेता और अधिकारियों में मौजूदा सरकार को पसंद आने वाले सारे गुण स्वभाविक रूप से मौजूद हैं. दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से कांग्रेस को भी इसी तरह की राजनीति रास आने लगी है.’
वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषक और राजस्थान विवि में पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष राजन महान इससे सहमति जताते हैं. लेकिन साथ ही वे यह भी जोड़ते हैं कि ऐसा पहली बार नहीं है जब दिल्ली पर राजस्थान का प्रभाव देखने को मिला है. महान के शब्दों में ‘जहां भाजपा में पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत और जसवंत सिंह ने प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया था तो नटवर सिंह, रामनिवास मिर्धा और राजेश पायलट ने कांग्रेस की तरफ़ से केंद्र में अलग मुकाम हासिल किया था. वहीं, वसुंधरा राजे और सचिन पायलट तो केंद्रीय राजनीति से ही राजस्थान आए हैं. और ओम प्रकाश माथुर और अशोक गहलोत भी दिल्ली में अपनी दमदार उपस्थिति काफ़ी पहले ही दर्ज़ करा चुके थे. पहले सभी नेताओं की अपनी एक अलग पहचान हुआ करती थी. परंतु अब जो सांसद मंत्री बनाए गए हैं, उनका अपना कोई बड़ा वज़ूद नहीं है. इसलिए वे केंद्र में राजस्थान की तरफ़ से गिनती तो बढ़ाते हैं, लेकिन इस बात का जमीन पर क्या असर पड़ेगा, कहना मुश्किल है!’
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