मानसून का समय चल रहा है. फिर भी मौसम का यह हाल है कि इस वक्त देश का एक बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में है. केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक कमजोर मानसून की वजह से 28 जून तक धान की बुआई में 24 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. बीते जून में मानसून सामान्य से 33 फीसदी कम रहा था.

देश में खेती अब भी एक बड़ी आबादी के लिए रोजगार का जरिया है. इसलिए मौसम प्रतिकूल हो तो इसके एक बड़े हिस्से को दूसरी जगहों का रुख करना पड़ता है. आम तौर पर माना जाता है कि ऐसे ज्यादातर लोग वहां जाते हैं जहां उनकी मुश्किलें कुछ कम होती दिखती हैं. ऐसे इलाके खासकर तौर पर अर्द्ध-शहरी या शहरी क्षेत्र होते हैं, जहां रोजगार की उम्मीद होती है. इसके बाद मौसम और खेती के मोर्चे पर स्थिति सामान्य होने के साथ यह आबादी अपनी जड़ों की ओर वापस भी लौटती है.

लेकिन बीते कुछ वर्षों में जिस तरह मौसम की मार लगातार देश के अलग-अलग इलाकों पर पड़ रही है, उसके चलते यह विस्थापन अब स्थायी बनता हुआ दिखता है. यानी अब मौसम की मार झेलने वाले फिर से अपने पुराने आवास की ओर जाने से बचते हैं. साल दर साल इस तरह स्थायी रूप से विस्थापित होने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है.

वैश्विक स्तर पर शरणार्थियों पर काम करने वाली संस्था- नॉर्वेजियन रिफ्यूजी कॉउंसिल के इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर (आईडीएमसी) ने इस पर एक विस्तृत अध्ययन किया है. इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 में दुनिया में 4.13 करोड़ लोगों को अपने ही देश के भीतर विस्थापित होने के लिए मजबूर होना पड़ा. इनमें 1.72 करोड़ को मौसम संबंधी आपदा की वजह से अपना बसा-बसाया घर छोड़ना पड़ा. इन आपदाओं में चक्रवात, बाढ़ और सूखे की हिस्सेदारी 94 फीसदी रही. आज से पांच साल पहले यानी 2013 में आतंरिक विस्थापन का दंश झेलने वालों की संख्या 2.2 करोड़ थी. इनमें सबसे अधिक 87 फीसदी लोग एशिया से थे.

2013 की तरह पिछले साल भी एशियाई देशों को ही मौसम की सबसे अधिक मार झेलनी पड़ी है. इनमें फिलीपींस और चीन के साथ भारत भी शीर्ष तीन देशों में शामिल है. इन देशों में मौसम की मार से विस्थापित होने वालों की संख्या एक करोड़ से अधिक है. आईडीएमसी की रिपोर्ट की मानें तो अकेले भारत में बीते साल 26.8 लाख लोग प्राकृतिक आपदाओं की वजह से विस्थापित हुए थे. यह संख्या साल 2017 की तुलना में दोगुने से अधिक है. वहीं, पिछले साल लोगों के विस्थापित होने की बड़ी वजह हमेशा की तरह ही बाढ़ रही है. इस रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से 20 लाख लोग बाढ़ प्रभावित थे. यानी आजादी के सात दशक बाद भी देश में बाढ़ लोगों से घर छिनने की एक बड़ी वजह बनी हुई है.

उधर, विस्थापितों की संख्या के लिहाज से देखें तो केरल में आई भारी बाढ़ बीते साल देश के लिए सबसे बड़ी आपदा साबित हुई थी. इसकी वजह से राज्य के करीब 15 लाख लोगों को अपना घर छोड़ विस्थापित होना पड़ा था. इसकी वजह से सूबे को 20,000 करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान भी उठाना पड़ा. इसके अलावा तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में आए चक्रवाती तूफानों के चलते भी 6.5 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा था.

वहीं, इस साल भी प्राकृतिक आपदा का यह सिलसिला रुकता हुआ नहीं दिखता. ओडिशा को इस साल भी विनाशकारी चक्रवाती तूफान ‘फानी’ का सामना करना पड़ा है. इसके चलते राज्य में बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा है. हालांकि, इससे जूझने के लिए राज्य सरकार द्वारा पहले से पर्याप्त तैयारी की गई थी. इसके बावजूद इस तूफान से प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या करीब एक करोड़ तक पहुंच गई. साथ ही, पांच लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा है. उधर, ओडिशा को इस चक्रवाती तूफान की वजह से 12 हजार करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा. अब बाढ़ की खबरें आने लगी हैं. बीते मंगलवार रात को ही महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में पानी के उफान के चलते एक बांध टूट जाने से सात से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और 20 से ज्यादा लापता हैं.

देश के अधिकांश हिस्सों में अब तक मानसून कमजोर रहा है. लेकिन, हालिया वर्षों में यह देखा गया है कि कुछ खास इलाकों में एक-दो दिनों की भारी बारिश भारी की वजह से लोगों को भारी बाढ़ का सामना करना पड़ता है. मुंबई इसका उदाहरण है जहां इसी हफ्ते बारिश में एक दशक पुराना रिकॉर्ड तोड़ दिया. जानकारों की मानें तो बारिश में यह अनियमितता जलवायु परिवर्तन की देन है. इस वजह से एक ओर देश के एक बड़े हिस्से में लोगों को सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ता है तो दूसरी ओर भारी बाढ़ का. इन दोनों की वजह से बड़े पैमाने पर लोगों की जिंदगी प्रभावित होती है.

जलवायु परिवर्तन के चलते हालिया वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या बढ़ती संख्या पर संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने भी चिंता जाहिर की है. उसके मुताबिक कई शोध बताते हैं कि धरती पर जलवायु में बदलाव वैज्ञानिक अनुमानों के मुकाबले कहीं तेजी से हो रहे हैं. इसके चलते पैदा होने वाली प्राकृतिक आपदाएं बड़ी संख्या में लोगों को अपना घर छोड़ शरणार्थी वाली जिंदगी गुजारने पर मजबूर कर रही हैं. वैज्ञानिकों के मुताबिक अब भी दुनिया नहीं चेती तो आगे हालात बदतर होने वाले हैं.