कुछ लोग फिल्म की यह कहकर आलोचना कर रहे हैं कि इस फिल्म में दलितों के अधिकारों के लिए लड़ने वाला नायक ब्राह्मण क्यों है.
जब हम फिल्म बना रहे थे तो हमारे सिनेमेटोग्राफर इवान मलिगन और मेरी इसे लेकर काफी बहस हुई थी कि क्या ये हालीवुड फिल्मों का व्हाइट सेवियर सिंड्रोम (किसी गोरे को मसीहा दिखाना) जैसा तो नहीं है. अयान इसलिए ब्राह्मण नहीं है कि सिर्फ ब्राह्मण ही दलितों के हितों की लड़ाई सकते हैं. हालांकि मुझे पता है कि कुछ लोग इस बात को इसी तरह से देखते हैं. दरअसल एक कारण है जिसके चलते मैं चाहता था कि हीरो ब्राह्मण हो, क्योंकि इस तरह वह पुलिस और जाति व्यवस्था, दोनों के शीर्ष पर है. अपनी इस ताकत से वह किसी भी रास्ते पर जा सकता है, लेकिन वो सही रास्ता चुनता है.
मतलब कि जिनके पास विशेषाधिकार हैं, जो प्रिविलेज्ड तबका है उसे अपनी क्लास के बाकी लोगों को चुनौती देनी चाहिए क्योंकि इसी तबके ने ये सिस्टम बनाया है. बॉम्बे में बड़ी-बड़ी सोसायटियों में कई लिफ्ट होती हैं. इनमें से एक सिर्फ काम वाली बाइयों, हॉकरों और ड्राइवरों के लिए होती है. अब ड्राइवर तो हमेशा इस पर सवाल खड़े करेगा ही, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है जिन लोगों ने लिफ्ट के लिए ये व्यवस्था बनाई है वे इस पर सवाल उठाएं. ये जाति व्यवस्था से ही होता है कि कुछ हमेशा ड्राइवर रह जाते हैं और कुछ कभी इस भूमिका में नहीं आते.
सभी गोरे लोग मसीहा नहीं होते, लेकिन उनमें सभी तानाशाह भी नहीं होते. संवाद तभी हो सकता है कि जब आप हर उस आदमी को जिसके पास ताकत है, विलेन की तरह न देखें. नहीं तो आप इस खाई को और बढ़ा ही रहे हैं.
खबरें खंगालने के अलावा आपने इस फिल्म के लिए और क्या-क्या रिसर्च की?
हमने उन पत्रकार मित्रों से बात की जिन्होंने पूरी जिंदगी इन मुद्दों पर काम किया है. यहां तक कि फिल्म में जो तीन रुपये वाला सीन है वो भी सच्ची घटना है. ये आंकड़ा एक या 11 रुपये भी हो सकता था, लेकिन सच में ये तीन रुपये ही है. कई किताबों से मदद मिली. इनमें से एक थी आनंद तेलतुंबड़े की रिपब्लिक ऑफ कास्ट. दूसरी थी ओमप्रकाश वाल्मिकी की जूठन. गौरव (गौरव सोलंकी, फिल्म के सहलेखक) और मैं दोनों ही छोटे कस्बों में पले-बढ़े. वो हरियाणा और राजस्थान में और मैं वाराणसी और अलीगढ़ में. हमने इन दिनों ये चीजें अपने सामने होते देखी हैं. इसके अलावा हमने डॉक्यूमेंट्रीज और न्यूज क्लिपिंग्स भी देखीं.

कोई ऐसी चीज भी थी जिसने आपका ध्यान खींचा हो, लेकिन जो फिल्म में नहीं आई?
हां. वाराणसी में किसी पुजारी का एक इंटरव्यू था. इसमें वो बता रहा था कि कैसे ब्राह्मण ब्रह्मा के सिर से निकले हैं, क्षत्रिय उनकी भुजाओं से, वैश्य उनकी जांघों से और शूद्र उनके पैरों से. उसका इस बात में अटूट विश्वास था जो हैरान करने वाली बात थी.
‘आर्टिकल 15’ के कुछ महत्वपूर्ण दृश्यों की बात करते हैं. पहले उसकी जिसमें अयान हर किसी की जाति को लेकर हैरान है.
इसकी शुरुआत ऐसे हुई थी कि लिखते हुए मैंने एक चुटकुला सुनाया था, कि वो ये कहता है और फिर दूसरा आदमी ये कहता है और अयान हैरान हो जाता है. मुझे लगा कि ये फिल्म में फिट नहीं होगा. लेकिन गौरव को ये ठीक लगा. उन्होंने कहा कि इसे रखते हैं और शुक्र है हमने यही किया. मैं दर्शकों की प्रतिक्रिया जानने के लिए शो के दौरान कुछ थियेटरों में गया और देखा कि लोग जोर-जोर से हंस रहे थे. मुझे लगा कि ज्यादा से ज्यादा वो मुंह दबाकर हंसेंगे.
उस सीन के बारे में भी कुछ बताइए जिसमें आयुष्मान खुराना और बाकी लोगों को एक दलदल में जोंकों का सामना करना पड़ता है
वो क्लाइमेक्स का सीन है. रेकी के दौरान हमें कई तालाब और दलदल दिखे. हमने गांव वालों से पूछा कि क्या उनमें उतरना सेफ है. वे नंगे पांव उनमें उतर गए. वापस आकर उन्होंने बताया कि उनमें जोंकें और सांप हैं जिनमें से ज्यादातर में जहर नहीं होता. इन लोगों में से किसी को भी उस दलदल में उतरने पर चोट नहीं लगी जिसमें आखिरी सीन की शूटिंग हुई थी क्योंकि उनके लिए वो रोज का जीवन है.
जब हमने शूटिंग की तो कुछ ज्यादा गंभीर बात नहीं हुई. हां, लोगों को जोंकों ने जरूर काटा. थोड़ी-थोड़ी देर बात कोई न कोई चिल्लाता हुआ भागने लगता. हमने सेट पर एक डॉक्टर और एंबुलेंस रखी हुई थी. पानी के नीचे की जमीन ऊबड़-खाबड़ थी. कुमुद मिश्रा सबसे पहले पानी में घुसे और गिर पड़े.
‘मुल्क’ से पहले की आपकी फिल्में लगता है जैसे किसी और ही शख्स ने बनाई हैं.
भीतर से मैं हमेशा से राजनीतिक रूप से जागरूक और जिम्मेदार रहा होऊंगा, लेकिन हां, अब जो भी मेरी सोच है इसमें 2013 के बाद की राजनीतिक घटनाओं का बड़ा योगदान है जिन्होंने मुझे असहज किया और अब भी करती हैं. इसलिए मैंने अपनी फिल्मों के जरिये प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया. पहले मैं मनोरंजन के लिए फिल्में बना रहा था. अब मेरी प्राथमिकता संवाद है. मैं अब कुछ कहने के लिए फिल्म बना रहा हूं. मेरा जोर इस पर है कि चीजों को वास्तविक रखते हुए लोगों से संवाद किया जाए. इससे फिल्म अपने आप ही मुख्यधारा की हो जाती है.
फिल्म इंडस्ट्री अब आपको कैसे देखती है?
इंडस्ट्री को इससे कोई मतलब नहीं. ये एक ऐसी जगह है जहां सिर्फ पैसे और सफलता का मतलब है. इसे जाति और राजनीतिक विचारधाराओं से कुछ लेना-देना नहीं है. इसे बस दो ही चीजें समझ में आती हैं - सफलता और विफलता.
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