बीती एक जुलाई को केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने जल शक्ति अभियान की शुरुआत की. इसके तहत मानसून के दौरान पानी का संरक्षण कर जल सुरक्षा सुनिश्चित करने की कोशिश की जाएगी. इसके जरिए उन जिलों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा, जो गंभीर जल संकट की स्थिति का सामना कर रहे हैं. केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट भाषण के दौरान बताया था कि देश के 256 जिले पानी की भारी कमी से जूझ रहे हैं. इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ‘मन की बात’ कार्यक्रम में जल संरक्षण को जन आंदोलन बनाने की पैरवी की थी. उन्होंने नीति आयोग की बैठक में भी इस पर विशेष और लंबी चर्चा की.

देश में पानी के संकट की स्थिति को खत्म करने के लिए सरकार की ओर से इस तरह की सक्रियता शायद पहली बार दिख रही है. इससे पहले जल संकट का मुद्दा सामाजिक विमर्श का ही मुद्दा बन पाता था. साथ ही, माना जाता था कि यह खासकर गरमी के दिनों की ही समस्या है. लेकिन, इस संकट को खत्म करने की दिशा में अब एक बड़ी पहल सरकार की ओर से दिख रही है. सो, अब यहां सवाल उठता है कि जिस बुनियादी समस्या से अब तक देश की आम जनता जूझ रही थी, उस पर अचानक सरकार की नजर क्यों गड़ गई? इसके पीछे कई तरह की आशंकाएं हैं जिनमें से कुछ प्रमुख नीचे दी गई हैं.
खेती-किसानी पर बुरा असर
कृषि और पशुपालन की जीडीपी में 17 फीसदी हिस्सेदारी होने के बावजूद देश की आधी से अधिक आबादी अपनी आजीविका के लिए इन पर ही निर्भर है. लेकिन, इसके बावजूद अब तक खेती योग्य भूमि के करीब एक-तिहाई हिस्से तक ही सिंचाई की सुविधा पहुंच पाई है. यानी बाकी दो-तिहाई हिस्से पर फसल उगाने के लिए किसान आज भी मानसून पर ही निर्भर है. इस बात की पुष्टि कृषि मंत्रालय के ताजा आंकड़े भी करते हैं. इनके मुताबिक अब तक खरीफ फसलों की बुआई केवल 234.33 लाख हेक्टेयर में ही हो पाई है. यह आंकड़ा बीते साल के मुकाबले 27 फीसदी कम है. साल 2018 की समान अवधि में 319.68 लाख हेक्टेयर में फसल लगाई जा चुकी थी.
खरीफ फसलों में सबसे अधिक खेती धान की होती है. बीते साल धान का रकबा 69 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया था. इस फसल को उगाने के लिए सबसे अधिक पानी की जरूरत होती है. मानसून कमजोर होने की स्थिति में धान की खेती करने वाले किसान भूमिगत जल का अधिक इस्तेमाल करते हैं. इससे न केवल उनकी लागत बढ़ती है बल्कि बड़े पैमाने पर धरती से जल खींचने से स्थिति और भयावह होती चली जाती है. इस वजह से आसपास के इलाके में जलस्तर काफी नीचे चला जाता है जो खेती की लागत को लगातार बढ़ाने के साथ-साथ आम जीवन को कई तरीके से प्रभावित करता है. इसे ध्यान में रखते हुए ही इस साल हरियाणा सरकार ने धान की खेती को हतोत्साहित करने का फैसला किया है. इसके तहत धान पैदा न करने वाले किसानों को प्रति एकड़ 2,000 रुपये की वित्तीय मदद सहित अन्य फायदे भी दिए जाएंगे.
जल संरक्षण के मुद्दे पर काम करने वाली संस्था राष्ट्रीय जल बिरादरी के संस्थापक सदस्य पंकज कुमार इस स्थिति से निपटने के लिए जल प्रबंधन के साथ-साथ खेती के पैटर्न को बदलने पर भी जोर देते हैं. वे सत्याग्रह के साथ बातचीत में कहते हैं, ‘ये देखना होगा कि किस इलाके में कितना पानी है और उसी लिहाज से ही खेती करना होगा. लातूर और विदर्भ जैसे इलाके में जहां पानी की गंभीर समस्या है, वहां ज्यादा पानी की जरूरत वाली गन्ने की खेती की जा रही है.’
विकास की गति धीमी होना
देश के किसी कोने में जल संकट की स्थिति पैदा होने पर उस इलाके के लोगों को काफी वक्त और शारीरिक श्रम बर्बाद करना पड़ता है. यानी इसकी वजह से मानव संसाधन का एक बड़ा हिस्सा जिसका इस्तेमाल देश के विकास में किया जा सकता था, उसकी बर्बादी ही होती है. इसका सीधा प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है.
जब किसी इलाके में इस तरह की संकट की स्थिति पैदा होती है तो इसका सबसे बुरा असर बच्चों और महिलाओं पर पड़ता है. घर में साफ पानी का इंतजाम करने के लिए इन्हें काफी वक्त और श्रम खर्च करना पड़ता है. माना जाता है कि इसके चलते बच्चों की पढ़ाई के साथ-साथ महिलाओं के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है. यानी आज के साथ-साथ इस संकट का असर कल पर भी पड़ता हुआ दिखता है. इस स्थिति से निपटने के लिए सरकारों को बड़े स्तर पर संसाधन भी खर्च करने पड़ते हैं. यानी जल संकट के चलते किसी देश की अर्थव्यवस्था पर दोहरी मार पड़ती हुई दिखती है.
केंद्र सरकार ने अपने बजट में कहा है कि वह इस वित्तीय वर्ष (2019-20) में भारतीय अर्थव्यवस्था को तीन खरब डॉलर का बनाना चाहती है. साथ ही, उसने इसे पांच खरब डॉलर के स्तर पर ले जाने की बात भी कही है. माना जा रहा है कि यदि सरकार वक्त रहते जल संकट जैसी बुनियादी समस्याओं से पार नहीं पाती है तो उसके इस मंसूबे पर पानी फिर सकता है.
सामाजिक सद्भाव और कानून-व्यवस्था के लिए चुनौती
महाराष्ट्र का मराठवाड़ा इलाका इस साल भी भयंकर सूखे की स्थिति से जूझ रहा है. इस इलाके में जल संकट की स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि यह कानून-व्यवस्था के लिए चुनौती बन रही है.
बीते अप्रैल में मराठवाड़ा के लातूर और परभणी जिले में पानी के स्रोतों खासकर टैंकरों के आसपास धारा 144 लगा दी गई थी. यानी इसके आसपास कोई भीड़ जमा नहीं हो सकती है. सरकार ने यह फैसला पानी को लेकर होने वाली कई झड़पों को देखते हुए उठाया था. वहीं, राज्य के औरंगाबाद में भी एक सांप्रदायिक हिंसा के पीछे की बुनियादी वजह पानी के संकट को ही बताया गया था. जून के महीने में चेन्नई में भी पानी के लिए एक महिला पर चाकू से हमला कर दिया गया. तमिलनाडु के ही तंजावुर में भी पानी से जुड़े एक विवाद के चलते एक सामाजिक कार्यकर्ता को इतना पीटा गया कि उसकी मौत हो गई.
जिन इलाकों में जल संकट की स्थिति है, वहां लोगों के बीच हिंसक झड़पों की खबरें लगातार आती हुई दिख रही हैं. इन बातों के आधार पर कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में पानी की वजह से तीसरा विश्व युद्ध भले न हो लेकिन यह समस्या सामाजिक सद्भाव और कानून व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती बनने जा रही है.
‘पानी कोई समाज या सरकार पैदा नहीं कर सकती है. यानी जो उपलब्ध है, उसको बांटना है... अभी हम उस स्तर पर नहीं पहुंचे हैं, जहां पर पानी के लिए अफरा-तफरी मची हो. लेकिन गांवों या छोटे इलाकों से अगर इस तरह की खबरें आने लगी हैं. तो यह चेतावनी की स्थिति है’ पंकज कुमार कहते हैं.
उद्योग-धंधों और निवेश को लेकर संकट
किसी भी क्षेत्र में उद्योग-धंधों की स्थापना जिन चीजों पर निर्भर करती हैं, उनमें पानी की सबसे अधिक अहमियत है. किसी इलाके में पानी की कमी के चलते कारोबारी अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर दूसरे क्षेत्रों में चले जाते हैं. इस लिहाज से पानी के संकट की वजह से कारोबार चौपट होंगे ही वहां कोई निवेशक निवेश भी नहीं करना चाहेगा. इससे देश की अर्थव्यवस्था और विकास दर पर सीधा असर पड़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता.
बीते महीने चेन्नई स्थित एक कंपनी ने दफ्तर में पानी की किल्लत के चलते अपने स्टाफ को घर से ही काम करने को कहा था. माना जा सकता है कि यदि यह संकट और गहराता है तो कंपनियों को जल संकट वाले क्षेत्रों से वापसी का रास्ता भी तय करना पड़ सकता है. इस वजह से लोगों के रोजगार पर भी बुरा असर पड़ना तय है. नीति आयोग की मानें तो आने वाले समय में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली सहित देश के अन्य बड़े शहरों को भारी जल संकट की स्थिति का सामना करना पड़ा सकता है. इसके चलते इन शहरों में स्थापित कारोबारों के प्रभावित होने से इनकार नहीं किया जा सकता है.
जल संकट को लेकर मोदी सरकार की सक्रियता पर उसमें शामिल एक नौकरशाह कहते हैं, ‘जब तक जल संकट पेयजल के स्तर तक था, तब तक इन्हें (सरकारों को) लगता था कि बहुत कुछ अपने हाथ में है. लेकिन, पिछले साल कृषि संकट की स्थिति ने सरकार को सोचने पर मजबूर कर दिया. अब उसे लगता है कि इस वजह से कई उद्योग भी बंद हो सकते हैं.’
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