केंद्र सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र में एक बड़े बदलाव की तैयारी में दिख रही है. इसके तहत ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक एक्ट-1940 में संशोधन कर डॉक्टरों को केवल जेनेरिक दवाइयां लिखने के लिए बाध्य किया जाएगा. कुछ समय पहले मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) ने भी अपने यहां रजिस्टर्ड डॉक्टरों को इस बारे में एक निर्देश जारी किया था. लेकिन पिछले निर्देशों की तरह इसका भी कोई खास मतलब निकल नहीं सका.
जेनेरिक दवाइयां पेटेंटेड-ब्रांडेड दवाइयों की तुलना में काफी सस्ती होती हैं. एक अनुमान के मुताबिक किसी मरीज के इलाज में 70 फीसदी रकम दवाइयों पर ही खर्च होती है. यानी सरकार अगर इस दिशा में कोई गंभीर कदम उठाती है तो इसका सीधा फायदा सबसे अधिक गरीब मरीजों तक पहुंचना तय दिखता है. यानी कि यह चुनावी लिहाज से भी एक चतुर कदम साबित हो सकता है.
यहां से हम आगे बढ़ें उससे पहले जान लेते हैं कि जेनेरिक दवा होती क्या है और यह ब्रांडेड की तुलना में सस्ती क्यों होती है? दरअसल, जेनेरिक दवा का कोई ब्रांड नेम नहीं होता है और वह जिस साल्ट (केमिकल) से बनी होता है, उसी के नाम से जानी जाती है. उदाहरण के लिए, दर्द और बुखार में काम आने वाले पैरासिटामोल सॉल्ट को कोई कंपनी इसी नाम से बेचे तो उसे जेनेरिक दवा कहेंगे. वहीं, जब इसे किसी ब्रांड (जैसे क्रोसिन) के नाम से बाजार में उतारा जाता है तो यह संबंधित कंपनी की ब्रांडेड दवा कहलाती है. यहां सवाल उठता है कि ब्रांडेड दवा के मुकाबले जेनेरिक दवा इतनी सस्ती क्यों होती है? इसका जवाब यह है कि फार्मा कंपनियां अपनी ब्रांडेड दवाइयों के पेटेंट और विज्ञापन पर काफी रकम खर्च करतीं है. वहीं, जेनेरिक दवाइयों की कीमत तय करने में सरकार का सीधा दखल होता है. इसके प्रचार-प्रसार पर भी कोई पैसा खर्च नहीं किया जाता है.
यहां पर सहज ही एक सवाल पैदा होता है. जब ब्रांडेड के मुकाबले जेनेरिक दवाएं सस्ती होती हैं, तो एक बड़ा तबका, खासकर डॉक्टर, इनका विरोध क्यों कर रहे हैं?
इसका विरोध करने वाले अधिकांश डॉक्टर इसकी गुणवत्ता पर संदेह जाहिर करते हैं. इस संदेह को ब्यूरो ऑफ फार्मा पीएसयूज ऑफ इंडिया (बीपीपीआई) की एक रिपोर्ट मजबूती देती दिखती है. बीपीपीआई पर प्रधानमंत्री जन औषधि योजना(पीएमबीजेपी) को लागू करने की जिम्मेदारी है. पीएमबीजेपी के तहत कम कीमत पर दवाओं को उपलब्ध कराया जाता है. इस परियोजना से जुड़े मेडिकल स्टोर्स (जन औषधि केंद्र) पर अधिकांशत: जेनेरिक दवाइयां ही बेची जाती हैं. देश भर में करीब 5,395 जन औषधि केंद्र हैं जिनमें कैंसर सहित अन्य तमाम बीमारियों की करीब 900 दवाइयां मिलती हैं. इन दवाइयों की सप्लाई के लिए करीब डेढ़ सौ कंपनियों से करार किया गया है.
बीपीपीआई की रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 2018 से जून 2019 के बीच उसने जब जेनेरिक दवाइयों की जांच की तो इसमें 18 फार्मा कंपनियों के 25 बैचों की दवाएं गुणवत्ता के लिहाज से सही नहीं थीं. इनमें डायबिटीज और हाइपरटेंशन (बीपी) जैसी बीमारियों की दवाएं भी शामिल थीं. हालांकि, हमारी पड़ताल में यह बात भी सामने आई कि गुणवत्ता को लेकर केवल जेनेरिक ही नहीं बल्कि ब्रांडेड दवाइयां भी कटघरे में हैं.
जन औषधि केंद्रों और जेनेरिक दवाओं के बारे में लोगों को कितनी जानकारी है, इसकी पड़ताल के लिए हम दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) और सफदरजंग अस्पताल पहुंचे. देश के इन दो सबसे बड़े अस्पतालों में सिर्फ एक-एक जनऔषधि केंद्र ही हैं. इस वजह से इन केंद्रों पर सस्ती दवाएं लेने के लिए खासी भीड़ जमा रहती है. यहां पर मौजूद कई मरीजों या तीमारदारों से जब हमने बातचीत की तो पता चला कि उनमें से ज्यादातर को जेनेरिक दवाओं के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी.
‘जेनेरिक दवाओं के बारे में जानकारी नहीं है. इससे पहले भी यहां (जन औषधि केंद्र) से दवा खरीदी है. यहां की दवाओं पर विश्वास है. और जगह का पता नहीं’ राजस्थान के नवीन कुमार कहते हैं. वे अपने एक रिश्तेदार का एम्स में इलाज करवा रहे हैं और इस तरह के मेडिकल स्टोर से खुश भी दिखते हैं. वहीं, बिहार के नालंदा के रहने वाले राजेश कुमार जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता के ऊपर उठ रहे सवालों के पीछे डॉक्टरों और फार्मा कंपनियों को जिम्मेदार बताते हैं. ‘डॉक्टर उसी दवा को लिखेंगे जिनमें उनको कमीशन अधिक मिले. इस फील्ड (मेडिसिन) में इनडायरेक्ट करप्शन है. उसको रोकने के लिए सरकार कुछ नहीं कर रही है’ राजेश कहते हैं, ‘यदि सरकार जेनेरिक दवाइयों को बढ़ावा देती है तो यह उनके जैसे लोगों के लिए वरदान साबित हो सकता है.’ लेकिन, मेडिसिन क्षेत्र के कई जानकार ऐसा नहीं मानते हैं.

‘ड्रग्स (दवा) को लेकर सबसे बड़ी बात है कि डॉक्टर इस पर विश्वास करते हैं या नहीं. ज्यादातर मरीज को पता नहीं होता है कि इसमें क्या है और क्या नहीं. और मरीजों को भले ही जेनेरिक दवाओं पर विश्वास हो, लेकिन डॉक्टरों को नहीं हैं’ फार्मास्युटिकल इंडस्ट्री से जुड़ी वेबसाइट मेडिसिनमैन.नेट के संस्थापक और संपादक अनूप सोन्स सत्याग्रह को बताते हैं, ‘डॉक्टर जेनेरिक दवा इसलिए भी नहीं लिखना चाहते हैं क्योंकि, यदि इससे मरीज को रिलीफ नहीं मिलता है तो उनके ऊपर केस होगा. लेकिन यदि ब्रांडेड दवा काम नहीं करती है तो उस कंपनी से सवाल पूछा जाएगा.’
अनूप की इन बातों की पुष्टि एम्स के एक डॉक्टर भी करते हैं. नाम न छापने की शर्त पर वे बताते हैं कि अस्पताल में मिलने वाली कुछ दवाइयां बेहतर काम नहीं करती हैं. इसलिए जब मरीज दवा लेने के बाद भी अपनी तकलीफ कम न होने की शिकायत करते हैं तो वे अक्सर उनसे बाहर से दवा लेने के लिए कह देते हैं.
लेकिन बाहर के किसी भी मेडिकल स्टोर्स से खरीदी जा सकने वालीं ब्रांडेड दवाइयों से जुड़ी अलग समस्याएं हैं. ‘सरकार की फार्मा कंपनियां घाटे में चल रही हैं. इन्हें चलाने के लिए उन्हें सब्सिडी देनी पड़ती है. इस स्थिति में सरकार प्राइवेट कंपनियों की दवाइयों के प्राइस कैसे कंट्रोल कर सकती है!’ अनूप सोन्स कहते हैं कि अंतत: इससे सबसे बड़ा नुकसान मरीजों को ही खराब दवाइयों के रूप में उठाना पड़ेगा. वे कहते हैं, ‘भारत की 80 फीसदी फार्मा कंपनियां बेसिक ड्रग्स (दवा बनाने के लिए कच्चा माल) चीन से खरीदती है. इसकी वजह उनका सस्ता होना है. यानी दवाओं की कीमत कम रखने के लिए इसके बेसिक मटीरियल को लेकर ही कंपनियां समझौता करती हैं.’ इसके साथ ही, अनूप का यह भी कहना है कि सरकार घरेलू दवा उद्योग को बढ़ावा देने के लिए दवा की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देती है.
अनूप सोन्स के बाद जेनेरिक दवाइयों की गुणवत्ता को लेकर हमने अंजनी कुमार सिंह से बात की. अंजनी राजस्थान में स्थित एक फार्मा कंपनी के मैन्यूफैक्चरिंग डिपार्टमेंट में काम कर चुके हैं. वे हमें दवा उद्योग की एक और समस्या के बारे में बताते हैं. उनका कहना है कि सही न बनने पर दवा को सही या नष्ट करने का चलन हमारे यहां बिलकुल नहीं है. एक घटना का जिक्र करते हुए वे बताते हैं कि ‘एक बार मेरी कंपनी में टीबी की दवा की क्वालिटी सही नहीं थी. लेकिन, इसकी तीन लाख टैबलेट्स बन चुकी थी. उन्हें तोड़ने और फिर से रिसाइकल करने में तीन-चार दिन लगते. दवाई 40 फीसदी काम कर रही थी तो कहा गया कि चला दो.’ अंजनी का कहना है कि दवाओं की जांच के लिए ड्रग इंस्पेक्टर साल में एक बार आते हैं और जब भी आते हैं केवल खानापूर्ति करते हैं.
वैसे अगर ड्रग इंस्पेक्टर्स खानापूर्ति न भी करना चाहें तो भी इस मामले में वे ज्यादा कुछ करने की हालत में नहीं हैं. देश के अलग-अलग राज्यों में दवा कंपनियों के लाइसेन्स को रिन्यूवल और दवाइयों की जांच करने वाले ड्रग इंस्पेक्टरों की भारी कमी है. ‘देश भर में आठ लाख से अधिक मेडिकल स्टोर हैं लेकिन क्या इनमें 50,000 की भी जांच होती है. सरकार यदि दवाइयों की जांच के लिए कानून लाती भी है तो क्या इसके लिए इतने ड्रग इंस्पेक्टर और लैबोरेटरी हमारे पास हैं?’ अनूप के इस सवाल का जवाब बीती 10 जुलाई को नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की एक रिपोर्ट से मिलता दिखाई देता है. यह रिपोर्ट पश्चिम बंगाल में दवाओं की जांच के लिए मौजूद व्यवस्था की पड़ताल करती है. इस रिपोर्ट में जिन बातों का खुलासा किया गया है, उनसे देश के स्वास्थ्य तंत्र खासकर फार्मा सेक्टर की विश्वसनीयता पर गंभीर सवालिया निशान लग जाते हैं.
पश्चिम बंगाल के सामाजिक क्षेत्र पर जारी सीएजी की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सूबे में ड्रग इंस्पेक्टरों के 77 फीसदी पद खाली हैं. यानी जहां पर 100 इंस्पेक्टरों की जरूरत है, वहां केवल 23 से काम चलाया जा रहा है. वहीं, सीएजी ने अपनी जांच में पाया कि पश्चिम बंगाल के 5,191 मेडिकल स्टोर के पास दवा बेचने के लिए जरूरी लाइसेन्स ही नहीं हैं. इनमें से 3,833 मेडिकल स्टोर्स के पास रिटेल के बजाय थोक में दवाइयां बेचने का लाइसेंस है. इसके अलावा राज्य के डायरेक्टरेट ऑफ ड्रग कंट्रोल (डीडीसी) की कार्यप्रणाली को भी इस रिपोर्ट में कटघरे में खड़ा किया गया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि डीडीसी ने उन 12 कंपनियों को भी लाइसेंस जारी कर दिया जिनके प्रोडक्ट्स कई बार मानकों के अनुरूप नहीं थे.
दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल दवाओं की जांच के लिए लैबोरेटरी की भी भारी कमी से जूझ रहा है. यहां पर ड्रग इंस्पेक्टर दवा कंपनियों और मेडिकल स्टोर्स से जो नमूने जांच के लिए इकट्ठा करते हैं, उनकी जांच कोलकाता स्थित स्टेट ड्रग कंट्रोल एंड रिसर्च लैबोरेटरी में की जाती है. यह दवा की जांच करने वाली सूबे में एकमात्र लैबोरेटरी है. इसकी रिपोर्ट के आधार पर ही खराब दवाइयां बनाने और बेचने वाले पर कार्रवाई की जाती है. सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि अप्रैल, 2012 से मार्च, 2017 तक 9,617 नमूने यहां जांच के लिए लाए गए थे. लेकिन, इनमें से केवल 6,933 (72 फीसदी) की ही जांच हो पाई. और 2,190 नमूने अपनी जांच के इंतजार में ही एक्सपायर हो गए.
सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक स्थिति इतनी ज्यादा खराब है कि 13 ऐसी दवाएं जिनकी गुणवत्ता सही नहीं थी सिर्फ इसलिए सरकारी अस्पतालों के मरीजों को दी जाती रहीं क्योंकि स्टोर मैनेजमेंट इन्फॉर्मेशन सिस्टम ने इन्हें ब्लॉक नहीं किया था. उधर, चार जिलों के स्वास्थ्य केंद्रों में 62 फीसदी दवाओं को जांच के लिए भेजे बिना ही मरीजों को दे दिया गया. साथ ही, सरकार ने 26 खराब गुणवत्ता वाली दवाओं के लिए 17 लाख रुपये का बिल भरा.
देश में दवाओं की जांच की क्या स्थिति है, इसके बारे में सीएजी की इस रिपोर्ट के अलावा कैथरिन इबान की हालिया किताब ‘बॉटल ऑफ लाइज : रेनबैक्सी एंड द डार्क साइड ऑफ इंडियन फार्मा’ भी हमें बताती है. इसमें साल 2004 की एक घटना का जिक्र किया गया है. इस किताब में बताया गया है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दक्षिण अफ्रीकी सरकार की शिकायत पर विमता लैब्स लिमिटेड की जांच की थी. इस लैब में उस वक्त की दिग्गज फार्मा कंपनी-रेनबैक्सी की एड्स की दवाओं का क्लिनिकल टेस्ट किया जाता था. लेकिन, फ्रांसीसी जांचकर्ताओं ने पाया कि जिन लोगों पर इस दवा का टेस्ट किया गया है वे केवल कागजों पर ही थे. उस वक्त इस बीमारी से हो रही मौतों पर कंपनी के मेडिकल डायरेक्टर ने काफी शर्मनाक बात कही थी, ‘कौन ध्यान देता है? ये तो केवल काले लोग मर रहे हैं.’

भारत में जेनेरिक दवाओं को लेकर कैथरीन इबान सख्त निगरानी तंत्र की जरूरत पर जोर देती हैं. वे कहती हैं, ‘कई बार जेनेरिक दवा बनाने वाली कंपनियां यूरोपीय और अमेरिकी बाजार के लिए अच्छी दवाइयां बनाती हैं. यहां रेगुलेशन काफी कड़ा है. वहीं, भारत के लिए खराब दवाइयां बनाई जाती हैं.’ इबान को रैनबैक्सी में शीर्ष पद पर काम करने वाले दिनेश ठाकुर बताते हैं, ‘भारत के लिए दवाओं की जांच करना केवल टाइम बर्बाद करना है क्योंकि नियामक संस्था ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) इसके नतीजे पर ध्यान ही नहीं देती है. डीसीजीआई के लिए वास्तविक डेटा नहीं बल्कि, अच्छे संबंध की जरूरत है.’
कैथरीन इबान की मानें तो साल 2014 में दिनेश ठाकुर ने केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री डॉ. हर्षवर्द्धन से मुलाकात कर उन्हें दवाओं की खराब गुणवत्ता के बारे में बताने की कोशिश की थी. लेकिन, उस वक्त केंद्रीय मंत्री का ध्यान न्यूज चैनल पर चल रही एक खबर पर था. इसके बाद उन्हें इस बारे में लिखित रूप में देने को कहा गया. लेकिन, उसके बाद कुछ नहीं हुआ. वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने भी इस संबंध में दायर जनहित याचिका (पीआईएल) को केवल 15 मिनट की सुनवाई में खारिज कर दिया गया.
भारत में जेनेरिक दवाओं की पुख्ता निगरानी तंत्र के अभाव और इस पर सरकार-न्यायपालिका के रूख से निराश कैथरीन कहती हैं, ‘अब इसका क्या मतलब है? न तो कार्यपालिका और न ही न्यायपालिका इस विकट स्थित को लेकर परेशान है. आप और हम इस विश्वास में जेनेरिक दवाएं लेते रहेंगे कि ये असरदार हैं. लेकिन, हमें मूर्ख बनाया जा रहा है और इसके लिए जिम्मेदार संस्थाओं को इसकी परवाह नहीं है.’
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