‘दल-बदलू’ हमें कोई मीठे हास-परिहास में कह दे, तो इतना बुरा नहीं लगता है. समाज और परिवार में दोस्त, सखियां, पति-पत्नी और परिजन तक बातों-बातों में दल-बदलू होते रहते हैं. लेकिन राजनीति में किसी का ‘दल-बदलू’ होना बुरा लगता है. दल-बदल करने वालों को भी दल-बदलू कहलाना अच्छा नहीं लगता होगा. और आज राजनेता तो क्या, बेचारे बुद्धिजीवियों, कलाकारों और पत्रकारों तक पर दल-बदलू होने की तोहमत लग रही है.
आज की युवा पीढ़ी गोवा, अरुणाचल और कर्नाटक जैसे राज्यों में केंद्र की सत्ताधारी पार्टी द्वारा दल-बदल को हवा देकर सरकार बनाने के अनैतिक प्रयासों पर बेचैन होती है. इससे एक भरोसा जगता है कि वे राजनीति में नीति की शुचिता के महत्व को जान-समझ रहे हैं. लेकिन दूसरी तरफ मध्य प्रदेश में किसी विपक्षी पार्टी का मुख्यमंत्री जब क्रॉस-वोटिंग कराने में बाजी मार ले जाता है, तो उसकी वाहवाही करनेवाले मीम्स बनने लगते हैं. उसे जीते हुए खिलाड़ी के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगता है.
इसलिए अचानक से यह भरोसा टूटने लगता है कि हमारी युवा पीढ़ी राजनीति में नीति की शुचिता के प्रति वास्तव में सतर्क है. पता चलता है कि क्षणिक नैतिकता के लबादे में तो वह एक तरह का अवसरवाद था. इसमें अपनी-अपनी दलगत निष्ठा के आधार पर नैतिकता के अर्थ और मायने को तुरंत बदल दिया जाता है. भारत की राजनीति में दल-बदल के इतिहास को खंगालने की जरूरत भी इसीलिए हुई, ताकि जनता से लेकर नेता तक के इस ढुलमुलेपन को ठीक से समझा जा सके.
शुरुआत करते हैं उस देश की परंपरा से जहां से भारत ने दलवादी संसदीय व्यवस्था उधार में ली. प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनेता विंस्टन चर्चिल (1874-1965) ने अपने संसदीय जीवन की शुरुआत कंज़र्वेटिव पार्टी से की थी और सन् 1900 में वे इसी पार्टी के टिकट पर सांसद बने. लेकिन चार साल के भीतर ही उनका अपनी सरकार से मोहभंग हुआ तो वे अपनी पार्टी छोड़कर लेबर पार्टी में शामिल हो गए. लेकिन चर्चिल ने संसद में घोषणा की कि वे अपने इस दल-बदल के बारे में अपने संसदीय-क्षेत्र के निर्वाचकों से परामर्श करना चाहेंगे और यदि निर्वाचक कहेंगे कि उन्हें अपने पद से त्यागपत्र देकर दोबारा चुनाव लड़ना चाहिए, तो वे इस बात के लिए तैयार होंगे.
संसद के बाहर व्यक्तिगत रूप से पार्टी बदलने से अलग, ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में किसी खास मुद्दे पर सांसदों द्वारा दल-परिवर्तन की परंपरा को एक प्रकार की मान्यता हासिल है. इसे ‘फ्लोर क्रॉसिंग’ कहा जाता है क्योंकि किसी खास मुद्दे पर ध्रुवीकरण की स्थिति में सदस्य अपने स्थान से उठकर ‘फ्लोर’ पार कर दूसरे खेमे में आकर बैठ जाते थे. इसी तरह की परंपरा अलग-अलग नामों से अलग-अलग देशों में प्रचलित हुई, जैसे- कार्पेट क्रॉसिंग (दरी-बदल) , टर्न-कोटिज़्म (कोट-बदल), वाका-जंपिंग और ‘म्यूज़िकल चेयर्स’ की राजनीति. ‘डिफेक्शन’ शब्द तो वास्तव में सैन्य शब्दावली से आया जिसका प्रयोग किसी सैनिक के सेना छोड़कर भाग जाने या दूसरे पक्ष में जा मिलने के लिए किया जाता है.
लेकिन इसमें अनैतिकता का सवाल जुड़ने पर इसे अवसरवादिता की राजनीति भी कहा गया. इसी का दूसरा पहलू इसे नैतिक ठहराने की कोशिश भी करता है जैसे ‘अंतरात्मा की आवाज़’ पर सदन में मतदान करने-कराने वाली राजनीति. इसके लिए अंग्रेजी में ‘कॉन्साइंस वोट’ शब्द भी प्रचलित है. इसके लिए पार्टी व्हिप (दल के सचेतक द्वारा जारी लिखित आदेश) का उल्लंघन करना होता है.
यह सब तो संसद या विधान सभा के भीतर मुद्दा-विशेष के आधार पर और पारदर्शी तरीके से दल-बदलने की प्रक्रिया है. अब कौन से राजनेता और विधायक इस तरह से दल-बदलते हैं! अब तो पंच-सितारा होटलों और रेस्तराओं में पार्टियां बदली जाती हैं. विधायक बंधकों की तरह प्राइवेट विमानों और बसों में ढोकर एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाए जाते हैं. राज्यपाल से लेकर स्पीकर तक इसमें खलनायक की भूमिका में आ जाते हैं. माना जाता है कि विधायकों की मनमानी बोलियां लगती हैं. सबसे अधिक सीटें लानेवाली पार्टी मुंह ताकती रह जाती है और कम सीटें लानेवाली पार्टी विधायकों को येन-केन-प्रकारेण बटोरकर सरकार बना ले जाती है. लेकिन एक कटु सच्चाई यह है कि ये कोई आज की बात नहीं है.
भारत में दल-बदल की शुरुआत उस घटना से ही मान सकते हैं जब मोतीलाल नेहरू के भतीजे शामलाल नेहरू ने 1920 के दशक में ही केंद्रीय विधानसभा के लिए कांग्रेस के टिकट से चुनाव जीता, लेकिन बाद में ब्रिटिश पक्ष में शामिल हो गए. कांग्रेस विधायक दल के नेता मोतीलाल नेहरू ने इस कृत्य के लिए उन्हें कांग्रेस से निकाल बाहर किया था. इसी तरह 1937 में तत्कालीन संयुक्त प्रांत में मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को पूर्ण बहुमत मिला, लेकन फिर भी उन्होंने मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों को दल-बदलकर कांग्रेस में शामिल होने का प्रलोभन दिया. इनमें से एक हाफ़िज मुहम्मद इब्राहिम को मंत्री भी बनाया. हाफ़िज जी को छोड़कर किसी भी अन्य सदस्य ने अपनी विधायकी से त्यागपत्र देकर फिर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने की जरूरत नहीं समझी.
आज़ादी के तुरंत बाद 1948 में जब कांग्रेस समाजवादी दल ने कांग्रेस संगठन छोड़ने का फैसला किया तो इसने अपने सभी विधायकों (केवल उत्तर प्रदेश में ही 50 के आस-पास) से कहा कि वे इस्तीफा देकर फिर से चुनाव लड़ें. इस्तीफा देनेवालों में आचार्य नरेंद्र देव जैसे दिग्गज नेता भी थे. इन्होंने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया था, लेकिन बाद में खासकर कांग्रेस पार्टी ने ऐसे आदर्शों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया.
भारत के पहले आम चुनावों के बाद 1952 में तत्कालीन मद्रास राज्य में किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ. कांग्रेस को 152 और बाकी पार्टियों को कुल मिलाकर 223 सीटें मिली थीं. टी. प्रकाशम् के नेतृत्व में चुनाव बाद गठबंधन कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी और भारतीय साम्यवादी दल के विधायकों ने सरकार बनाने का दावा किया, लेकिन राज्यपाल ने सेवानिवृत्ति का जीवन बिता रहे भारत के पूर्व गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया, जो उस समय विधान सभा के सदस्य तक नहीं थे. इसके बाद हुई जोड़-तोड़ में 16 विधायक विपक्षी खेमे से कांग्रेस में आ मिले और राजाजी की सरकार बन गई. एक साल बाद इन्हीं टी प्रकाशम् को आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का प्रलोभन देकर कांग्रेस ने पार्टी में शामिल होने का प्रस्ताव दिया. प्रकाशम् अपनी पार्टी से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री बन भी गए.
बाद में राजाजी ने इस पर अपना सैद्धांतिक पक्ष रखते हुए कहा था - ‘दल के सदस्यों का सामूहिक दल-बदल लोकतंत्र का सार है. सामूहिक रूप से दल-बदल का आधार कई बार निजी स्वार्थों की अपेक्षा दलों और उनके नेताओं का अशिष्टतापूर्ण व्यवहार होता है. अगर हम विधायकों की या अन्य सदस्यों की अपना दल बदलने की स्वतंत्रता छीन लें, तो इसका परिणाम गंभीर हो सकता है. दलों के प्रति आस्था को कट्टर जाति-प्रथा का रूप धारण नहीं करने देना चाहिए, बल्कि इसके लचीलेपन को कायम रखना चाहिए. अन्यथा परिवर्तन के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा.’
ऐसा विचार रखनेवाले राजाजी कोई अकेले व्यक्ति नहीं थे. केंद्रीय विधि मंत्रालय का भी कहना यही था कि दल-बदल के कारण यदि किसी विधायक को अयोग्य ठहराया जाएगा या उसका त्यागपत्र अनिवार्य किया जाएगा तो यह संविधान में मूल अधिकारों के तहत अनुच्छेद 19 में दिए गए संघ निर्माण और विचार की स्वतंत्रता के विरुद्ध होगा. इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 का भी हवाला दिया गया जिनके तहत विधायकों और सांसदों को विधान सभा और संसद में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ अपनी इच्छानुसार मतदान करने की स्वतंत्रता भी शामिल है.
लेकिन ऐसी व्यवस्थाओं और भावनाओं का मखौल सबसे अधिक तब उड़ाया गया जब चौथे आम चुनावों के बाद 1967 में कांग्रेस पार्टी ज्यादातर राज्यों में चुनाव हार गई और इसके एकछत्र राज का अंत हुआ. तब येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए उसने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. उस दौर में संसदीय सचिवालय से संबद्ध प्रसिद्ध संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने अपनी रिसर्च के आधार पर दल-बदल के जो आंकड़े जुटाए वे हैरान करने वाले थे.
1967 और फरवरी 1969 के चुनावों (राज्य विधानसभा) के बीच भारत के राज्यों और संघ-शासित प्रदेशों के करीब 3500 सदस्यों में से 550 सदस्यों ने अपना दल बदला था. केवल एक साल के भीतर ही 438 विधायकों ने दल-बदल किया. विधायकों की संख्या न लेकर यदि केवल प्रमुख दल-बदल की घटनाओं की संख्या ली जाए तो इस डेढ़ साल की अवधि में एक हजार से अधिक दल-बदल हुए. औसतन हर रोज एक से अधिक विधायकों ने दल-बदल किया. खुद कांग्रेस के 175 विधायक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में चले गए.
इनमें से ज्यादातर दल-बदल कोई सैद्धांतिक मतभेद या जन-सरोकारों पर आधारित नहीं थे. अधिकतर तो मंत्री पद के खातिर दूसरे दलों में गए. जिनको मंत्री पद नहीं दिया जा सका, उनके सगे-संबंधियों को ऊंचे पद और अन्य लाभ पहुंचाए गए. तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री ने खुद ही लोकसभा में बताया कि था कि दल-बदलू का भाव हरियाणा में 20 हजार रुपये से लेकर 40 हजार रुपये तक आंका जा रहा था (जो उस समय के लिहाज से बहुत अधिक था.) कुछ अन्य सदस्यों की जानकारी में यह राशि 20 हजार से एक लाख रुपये तक थी. हरियाणा के राज्यपाल ने राष्ट्रपति को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में कहा था, ‘दोनों पक्षों की ओर से खुल्लम-खुल्ला यह आरोप लगाए जा रहे हैं कि दल-बदल कराने के लिए रुपया पानी की तरह बहाया जा रहा है.’
हरियाणा की बात चली तो दल-बदल के सबसे दिलचस्प किस्से भी सुनते चलें. 1967 में हरियाणा से एक निर्दलीय विधायक हुए- गया लाल. चुनाव जीतने के बाद पहले तो वे कांग्रेस में शामिल हो गए. लेकिन उसके बाद एक पखवाड़े के भीतर ही उन्होंने तीन बार दल-बदल किया. कांग्रेस छोड़कर पहले वे ‘विशाल हरियाणा पार्टी’ (विहपा) में शामिल हुए. विशाल हरियाणा पार्टी के संस्थापक और अध्यक्ष राव बीरेन्द्र सिंह ने खुद ही कांग्रेस छोड़कर यह पार्टी बनाई थी. लेकिन गया लाल कुछ दिनों के भीतर ही वापस कांग्रेस में शामिल हो गए. लेकिन इसके नौ घंटे के भीतर ही फिर से दूसरी बार विहपा में शामिल हो गए. इसके बाद विहपा के नेता राव बीरेन्द्र सिंह उन्हें पकड़कर चंडीगढ़ में एक प्रेस-कॉन्फ्रेंस में लेकर आए और कहा - ‘गया राम’ अब ‘आया राम’ है’. तबसे ही ‘आया राम गया राम’ वाला मुहावरा चल पड़ा. हालांकि इसके ठीक बाद इंदिरा गांधी के करीबी बंसीलाल ने विहपा विधायकों का दल-बदल करवाकर वहां कांग्रेस की सरकार बना ली.
दल-बदल की इससे भी बड़ी और सबसे हास्यास्पद घटना भी हरियाणा में ही हुई. जून 1979 में जनता पार्टी के नेता भजनलाल बहुमत हासिल कर हरियाणा के मुख्यमंत्री बने. लेकिन जनवरी 1980 में जब केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार बन गई तो भजनलाल ने अपनी ही पार्टी के ज्यादातर विधायकों को कांग्रेस में शामिल होने के लिए मना लिया और पूरी की पूरी सरकार कांग्रेस में शामिल हो गई. इस तरह रातों-रात जनता पार्टी की सरकार कांग्रेस की सरकार बन गई और मुख्यमंत्री भी वही बना रहा.
बात इंदिरा जी की चली तो दल-बदल करवाकर सरकारें बनाने में वे और उनकी पार्टी भी पीछे नहीं रही. याद रहे कि 1967 में कई राज्यों में कांग्रेस की हार उनके प्रधानमंत्रित्व काल में ही हुई थी. लेकिन हारने के बावजूद कई राज्यों में छल-बल-कल की कांग्रेस की सरकारें बनाई गई इसका जिक्र ऊपर भी किया जा चुका है. 1967 में मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस हारी और गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में संयुक्त विधायक दल की सरकार बनी, लेकिन दो साल के भीतर ही दल-बदल के द्वारा वह सरकार गिरा दी गई और श्यामाचरण शुक्ल के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार बनवा दी गई. इसी तरह अक्टूबर, 1970 में उत्तर प्रदेश में दल-बदलू विधायकों के सहारे ही त्रिभुवन नारायण सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार बनवाई गई.
विधायकों का सबसे संपर्क काटकर सुरक्षित स्थान पर ले जाने की परंपरा आंध्र प्रदेश में एनटीआर और उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू द्वारा शुरू की गई कही जा सकती है. लेकिन यह इंदिरा गांधी के सहयोगी अरुण नेहरू द्वारा वहां तेलुगुदेशम पार्टी में कराई गई थोड़-फोड़ के परिणामस्वरूप ही हुआ था. हुआ यूं था कि 1983 के चुनाव में आंध्र में कांग्रेस हार गई और एनटी रामाराव मुख्यमंत्री बने. अगस्त 1984 में एनटीआर अपना इलाज कराने अमरीका गए. मौका पाकर केंद्र में बैठी कांग्रेस सरकार ने एनटीआर के निकट के सहयोगी और उनके वित्त मंत्री भास्कर राव को दल-बदल के लिए तैयार कर लिया. आंध्र में बैठे कांग्रेसी राज्यपाल ने तुरंत ही भास्कर राव को मुख्यमंत्री पद की शपथ भी दिला दी. यह सब कुछ बहुत ही बेशर्मी के साथ किया गया. और जब इंदिरा जी की किरकिरी होने लगी तो उन्होंने संसद में कहा कि एनटीआर सरकार को गिराकर भास्कर राव को मुख्यमंत्री बनाने वाली बात उन्हें भी न्यूज़ एजेंसियों के माध्यम से पता चली!
लेकिन एनटीआर हार नहीं मानने वाले थे. एक समय में यूथ कांग्रेस के नेता और संजय गांधी के करीबी रहे चंद्रबाबू नायडू एनटीआर के दामाद थे और उनके राजनीतिक प्रबंधक भी. उन्होंने टीडीपी के 163 विधायकों को एनटीआर के बेटे के फ़िल्म स्टूडियो ‘रामकृष्ण स्टूडियोज़’ में बंद कर दिया और उनका संपर्क बाहरी दुनिया से काट दिया. भास्कर राव अपने ही विधायकों से संपर्क नहीं कर पाए. इसके बाद इन सभी विधायकों को दिल्ली ले जाया गया और राष्ट्रपति ज्ञानी जैल के सामने उनकी परेड कराई गई. देशभर के सभी विपक्षी दलों ने एकजुट होकर केंद्र सरकार के इस कृत्य के खिलाफ आंदोलन किया. आखिरकार भास्कर राव की सरकार को हटाकर वापस एनटीआर की सरकार को बहाल करना पड़ा और राज्यपाल की वहां से छुट्टी की गई. अपने निधन से ठीक पहले प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इस आक्षेप से बच नहीं सकीं कि यह सब उनकी जानकारी में हुआ था.
हालांकि 1982 में इंदिरा जी के समय में ही भजनलाल द्वारा सामूहिक दल-बदल के दौरान भी ऐसी दो घटनाएं हुई थीं. भजनलाल प्रसंग में लोकदल के एक विधायक थे- बृज मोहन. बृज मोहन पर कांग्रेस में जाने के लिए बहुत दबाव (प्रलोभन से लेकर ब्लैकमेल किए जाने तक का दबाव) था. लेकिन दल-बदल से रोकने के लिए मुख्यमंत्री पद के दूसरे दावेदार चौधरी देवीलाल ने उन्हें नई दिल्ली के एक होटल के कमरे में तालाबंद करके रखा था. बृज मोहन आखिरकार जल-निकास वाले पाइप से फिसलते हुए नीचे उतरकर भागे.
भजनलाल प्रसंग में ही एक दूसरे विधायक थे - लाल सिंह. कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया था तो भी वे पार्टी के आधिकारिक प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव लड़कर जीत गए. इस पर कांग्रेस ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया था. देवीलाल ने उनको भी एक सुरक्षित ठिकाने (वरिष्ठ नेता बाबू जगजीवन राम के घर) पर बंद करके रखा था. लेकिन लाल सिंह खिड़की की कूदकर भाग निकले. उन्हें कांग्रेस में वापस शामिल कर लिया गया और भजनलाल की सरकार में मंत्री तक बनाया गया.
आज अगर हम संविधान के 52वें संशोधन द्वारा ‘दल-बदल विरोधी कानून’ लाने का श्रेय 1985 की राजीव गांधी सरकार को देते हैं, तो उसकी प्रेरणा कोई महान लोकतांत्रिक उद्देश्य नहीं कही जा सकती. बल्कि इसका उद्देश्य भी अपने नफा-नुकसान के आधार पर टूटे हुए विधायकों या सांसदों के गुट को मान्यता देना या न देना था. इसलिए इस कानून में लोकसभा और विधान सभाओं के स्पीकर को असीमित अधिकार दिए गए, जिसका दुरुपयोग आज भी धड़ल्ले से हो रहा है. इस कानून के रहते केंद्र में वीपी सिंह और चंद्रशेखर की सरकारें बनीं और गिरीं और उस दौरान भी क्या-क्या जोड़-तोड़ नहीं हुआ.
11 अगस्त, 1968 को एक प्रमुख कांग्रेसी सांसद पी बेंकटसुबैया ने अनैतिक रूप से दल-बदल रोकने के लिए एक गैर-सरकारी प्रस्ताव लोकसभा के सामने रखा था. इसमें उस दौर के प्रखर समाजवादी नेता मधु लिमये ने कुछ महत्वपूर्ण संशोधन सुझाए थे. इसमें एक सुझाव यह था कि दल-बदलुओं को न केवल मंत्री पद आदि से वंचित किया जाए, बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी दंडित किया जाए. और न केवल दल-बदलू सदस्य को बल्कि दल-बदलुओं को शरण देने वाली पार्टी को भी दंडित किया जाए. आज संसद और विधानसभाओं से लेकर टीवी मीडिया और कोर्ट तक में तमाशे तो हो रहे हैं, लेकिन इस तरह के किसी ठोस प्रस्ताव और बुनियादी सुधार पर कोई चर्चा तक नहीं होती.
पिछले कुछ समय से लोक-विमर्श में एक नई प्रवृत्ति देखने में आ रही है. इसमें आज की गलती या भ्रष्टाचार को उचित ठहराने के लिए पिछली सरकारों या दलों की गलतियों का हवाला दिया जाता है. तुमने किया तो क्या हम नहीं करेंगे? या फिर तुमने ही तो शुरू किया था, अब हम तुमपर भारी पड़ रहे हैं तो तुम अपना रोना रो रहे हो! इसलिए इस लेख के साथ भी यह खतरा है कि आज की सत्ताधारी पार्टी के अंधसमर्थक इन ऐतिहासिक तथ्यों का इस्तेमाल अपने आज का पाप धोने के लिए बोतलबंद गंगाजल के रूप में न करने लगें. न ही करें तो अच्छा है, क्योंकि लोकतंत्र किसी एक दल या विचारधारा के शासन का नाम नहीं है. इसमें मैं और तुम का स्थायी द्वैध नहीं होता. किसी एक पार्टी के प्रति जनता की सार्वकालिक अंधनिष्ठा लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकती है. लोकतंत्र के मूल में है बहुलता. नैतिक साधनों से शांतिपूर्ण सत्ता-परिवर्तन और स्वैच्छिक सत्ता-हस्तांतरण.
दल-बदल के इतिहास को पीछे मुड़कर देखने की उपयोगिता बस इतनी है कि हमें यह समझने में आसानी हो कि ‘दल-बदल’ का विकृत संस्करण दल-आधारित संसदीय राजनीति में ही अंतर्निहित है. जब तक दलों का दलदल रहेगा, दल-बदल का ‘कमल’ खिलता रहेगा या ऐसे दल-बदलुओं को सहारा देने वाला ‘हाथ’ भी मौजूद रहेगा. ऐसे में विनोबा और जयप्रकाश नारायण का ‘दलविहीन लोकतंत्र’ का विचार याद आता है. भले ही शताब्दियों बाद हो, लेकिन भारत में आमूल व्यवस्था-परिवर्तन के लिए यदि भविष्य में कोई गंभीर आंदोलन होगा तो उसमें दलविहीन लोकतंत्र के विकल्प से भी इनकार नहीं किया जा सकेगा.
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