हाल ही में निपटा राजस्थान विधानसभा का दूसरा यानी बजट सत्र इस बार कई बातों के लिए चर्चा में रहा. मसलन पहली बार सदन की कार्रवाई का यूट्यूब पर सीधा प्रसारण किया गया. विधायकों के प्रश्न, विभागों के प्रतिवेदन आदि ऑनलाइन उपलब्ध कराए गए और कागज की बचत की गई. इसी सत्र में मंत्रियों के लिए शून्यकाल की समाप्ति तक सदन में ही मौजूद रहने की अनिवार्यता भी लागू की गई.
लेकिन इस सबके अलावा विधानसभा सत्र के दौरान एक और खास बात भी चर्चा में रही. यह थी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया का इससे नदारद रहना. चर्चा थी कि वे विदेश यात्रा पर हैं. वसुंधरा राजे की इस गैरमौज़ूदगी ने राजस्थान में कई तरह के कयासों को हवा दे दी है. इसकी वजह है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री व भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह से उनका पुराना टकराव.
वसुंधरा राजे और नरेंद्र मोदी के बीच अनबन सबसे पहले 2008 में राजस्थान-गुजरात की संयुक्त नर्मदा नहर परियोजना के उद्घाटन के समय सामने आयी थी. तब एक ही पार्टी से होने के बावजूद इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने एक-दूसरे के कार्यक्रमों में हिस्सा नहीं लिया था. उनकी यह अदावत राजस्थान में पिछली वसुंधरा सरकार (2013-18) के दौरान चरम पर नज़र आई. इस दौरान अध्यक्ष अमित शाह और वसुंधरा राजे भी कई बार आमने-सामने देखे गए. तब शायद ही ऐसी कोई छमाही गुज़री जब सियासी गलियारों में वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने की चर्चा ने जोर न पकड़ा हो. लेकिन अपने विधायकों पर उनकी जबरदस्त पकड़ के चलते उन्हें टस से मस नहीं किया जा सका.
लेकिन छह महीने पहले भारतीय जनता पार्टी की राजस्थान विधानसभा चुनाव में शिकस्त के बाद से पार्टी स्तर पर वसुंधरा राजे को प्रभावहीन करने की कोशिशों में खासी तेजी आई है. इसकी शुरुआत भाजपा हाईकमान ने वसुंधरा राजे की बजाय प्रदेश के पूर्व गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया को नेता प्रतिपक्ष बनाकर की, जबकि कहा जा रहा था कि पूर्व मुख्यमंत्री खुद इस पद को संभालना चाहती हैं. कटारिया और राजे के संबंध सामान्य नहीं माने जाते. 2012 में जब राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में थी तब वसुंधरा राजे ने कटारिया की एक चुनावी यात्रा के विरोध में पार्टी छोड़ने की धमकी तक दे दी थी. नतीजतन उनको अपनी यात्रा स्थगित करनी पड़ी.
फिर इस लोकसभा चुनाव में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने राजस्थान के कद्दावर जाट नेता हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के साथ गठबंधन कर वसुंधरा राजे को असहज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सूबे में बेनीवाल की छवि घोर राजे विरोधी के तौर पर स्थापित है. बाद में केंद्रीय कैबिनेट में जिन गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुनराम मेघवाल और कैलाश चौधरी को शामिल किया गया, उन्हें भी राजे विरोधियों के तौर पर ही पहचाना जाता है. हाल ही में लोकसभा अध्यक्ष बनाए गए ओम बिरला से भी पूर्व मुख्यमंत्री की तनातनी की ख़बरें किसी से छिपी नहीं हैं.
फिलहाल वसुंधरा राजे भारतीय जनता पार्टी में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी निभा रही हैं. कई राजनीतिकारों का कयास है कि चूंकि उनकी बग़ावती फ़ितरत आगे चलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और खास तौर पर अमित शाह के लिए मुश्किल पेश कर सकती है, इसलिए उन्हें राजस्थान से दिल्ली बुलाकर धीरे-धीरे हाशिए पर धकेलने की दिशा में काम शुरु हो चुका है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अध्यक्ष अमित शाह की राजनीति के अंदाज और लोकसभा चुनावों के बाद संगठन में उनके बढ़े क़द को देखते हुए विशेषज्ञों का मानना है कि अब वसुंधरा राजे को संभलने का मौका मुश्किल ही दिया जाएगा. इस पूरे घटनाक्रम को कुछ पत्रकार राजनीति और ख़ासतौर पर राजस्थान में वसुंधरा राजे युग के अंत के तौर पर देखते हैं. उनके अनुसार राजे भी इस बात को समझ गई हैं, इसलिए सक्रिय रहकर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाने की बजाय वे रण छोड़कर जा चुकी हैं.
लेकिन ऐसे विश्लेषकों की भी कमी नहीं जो यह कहना जल्दबाजी मानते हैं. उनके मुताबिक जिस तरह वसुंधरा राजे अब तक शांत दिखी हैं, यह उनका सामान्य व्यवहार नहीं है. उनकी राजनीति को करीब से जानने वाले बताते हैं कि जितनी बखूबी से उन्हें अपनी अहमियत और कद का अहसास है, उतनी ही महारत उन्हें मौके पर चौका मारने में भी हासिल है. उनका राजनैतिक इतिहास इस बात की गवाही जोर-शोर से देता है.
राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के एक वरिष्ठ विधायक नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘प्रदेश में पार्टी के 73 विधायकों में से करीबी 50-55 विधायक आज भी राजे के विश्वस्त माने जाते हैं. वहीं सभी 25 सासंदों में से कम से कम 10 ऐसे हैं जिनका झुकाव आज भी राजे की ही तरफ होगा.’ वे आगे कहते हैं, ‘राजे चाहे जितनी कमज़ोर हो जाएं, लेकिन राजस्थान में हाल-फिलहाल उनका विकल्प मौजूद नहीं है. यदि किसी नेता को आगे बढ़ाने की कोशिश की भी गई तो दूसरी लाइन के नेताओं के बीच प्रतिनिधित्व के सवाल पर वही तनातनी शुरु हो जाएगी जो राजे के राजस्थान आने से पहले मची थी.’
पूर्व पत्रकार और हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के निदेशक राजन महान भी कुछ ऐसी ही बात दोहराते हैं. वे यह भी कहते हैं कि राजे को कमज़ोर करने में भले ही उनकी पार्टी ने कोई कसर नहीं छोड़ी है. लेकिन विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस को जो कड़ी टक्कर दी, वह दिखाती है कि लोगों के बीच वसुंधरा राजे की लोकप्रियता अभी ख़त्म नहीं हुई है.’ राजन महान कहते हैं, ‘राजनीति में कई बार एक हफ़्ते का अंतराल बड़े बदलाव ले आता है. फ़िर राजस्थान विधानसभा चुनाव में तो अभी साढ़े चार साल का समय बाकी है. तब तक न जाने कितने समीकरण बनेंगे-बिगड़ेंगे. राजे भी उन्हीं के अनुरूप निर्णय लेंगी. अभी उनकी ख़ामोशी उनके राजनैतिक क़द के लिहाज से स्वभाविक है.’
वहीं, वरिष्ठ पत्रकार अवधेश आकोदिया राजस्थान से वसुंधरा राजे की अनुपस्थिति को उनकी सामान्य शैली का हिस्सा बताते हैं. वे कहते हैं, ‘पिछली बार (2008-13) भी सत्ता से बाहर रहने पर राजे ने अपना अधिकतर वक़्त देश से बाहर ही गुज़ारा था. उनकी राजनैतिक समझ बेहद कैल्कुलेटिव है. वे जानती हैं कि इस समय खपाई गई ऊर्जा पूरी तरह निरर्थक होगी.’
राजस्थान के एक अन्य वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषक इस मामले में राजे और मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच एक समानता बताते हैं. वे कहते हैं, ‘तीसरी बार मुख्यमंत्री बने गहलोत दो बार सत्ता से बाहर रहे और उन्होंने भी ख़ुद को इसी तरह अगले चुनावों तक सुर्ख़ियों से दूर रखा. उनके पास भी नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं रहा. लेकिन हर बार निर्णायक घड़ी में वे अपने विरोधियों पर इक्कीस साबित हुए. कुछ ऐसा ही हुनर वसुंधरा राजे भी जानती हैं.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘गहलोत तो फ़िर भी पर्दे के पीछे रहकर बाजी पलटने में विश्वास रखते हैं. लेकिन राजे आर-पार की लड़ाई लड़ती आई हैं. ज़रूरत पड़ने पर वे किसी बड़े क़दम को उठाने से पहले शायद ही झिझकेंगी.’
वरिष्ठ पत्रकार राजेश असनानी इस बारे में कहते हैं कि निश्चित तौर पर पूर्व मुख्यमंत्री कमज़ोर हुई हैं. लेकिन इतिहास गवाह है कि जब-जब उन्हें पार्टी में चुनौती मिली, उन्होंने अपनी ताक़त का अहसास करवाया है. असनानी के शब्दों में ‘राजे के बेहद करीबी लोग भी मानते हैं कि इस समय उनका ख़ामोश रहना ही उचित रणनीति है. लेकिन राजे को चाहने वालों को इस बात पर भी पूरा विश्वास है कि उनकी नेता को गिराया तो जा सकता है, लेकिन राजनैतिक तौर पर मारा नहीं जा सकता!’
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