केंद्रीय मानव संसाधन और विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने हाल में आईआईटी-बॉम्बे के छात्रों को संबोधित करते हुए संस्कृत को दुनिया की सबसे वैज्ञानिक भाषा क़रार दिया. उन्होंने बाक़ायदा अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के हवाले से दावा किया कि यह कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए सबसे अधिक वैज्ञानिक भाषा है. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने यह भी कहा कि आने वाले समय में बोलने वाले कंप्यूटर संस्कृत भाषा की वजह से ही संभव होंगे और इसके बिना बनने वाले ऐसे कंप्यूटर क्रैश हो जाएंगे.

इसमें कोई संदेह नहीं कि संस्कृत भारत समेत पूरी दुनिया की सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक है. इस पर गर्व करने में कुछ भी ग़लत नहीं है. यह भाषा अपने में प्राचीन भारतीय सभ्यता की संस्कृति, विज्ञान और दर्शन समेटे हुए है. लेकिन भारत के एक बहुत बड़े वर्ग में इस भाषा को लेकर कई तरह की भ्रांतियां भी हैं. इस कारण समय-समय पर संस्कृत को लेकर कई ग़लत दावे किए जाते रहे हैं. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने ऐसे कुछ दावों को एक साथ आईआईटी के छात्रों के सामने रख दिया, जिसे उन्होंने तुरंत ख़ारिज कर दिया. इसकी क्या वजह है, इस पर बात करने के साथ संस्कृत से जुड़े कुछ अन्य दावों पर चर्चा करने की भी ज़रूरत है.

संस्कृत को वैज्ञानिक भाषा क्यों कहा जाता है?

संस्कृत को वैज्ञानिक भाषा बताने वाले इसकी वैज्ञानिकता को साबित करने के लिए हमेशा एक रटी-रटाई बात कहते हैं कि इस भाषा में जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है. यह ग़लत तो नहीं है, लेकिन जब एक भाषा को दुनिया की सबसे वैज्ञानिक भाषा बताया जा रहा हो तो इतने भर से बात नहीं बनती.

जानकार कहते हैं कि दरअसल संस्कृत भाषा का व्याकरण ध्वनि पर आधारित है. इसमें (शब्द की) आकृति से ज़्यादा ध्वनि की महत्ता है और हरेक आकृति के लिए एक ही ध्वनि है. यह गुण इसे सीखने वाले के लिए इसे आसान बनाता है. कई लोगों का कहना है कि संस्कृत में अंग्रेज़ी जैसी उलझन नहीं है, जिसमें Son और Sun की वर्तनी अलग-अलग होने के बाद भी उनका उच्चारण एक सा है या But और Put की वर्तनी एक सी होने के बावजूद उनका उच्चारण अलग-अलग है. हालांकि यह उलझन उन्हीं लोगों के लिए है जो किसी भी कारणवश अंग्रेज़ी से बिलकुल परिचित नहीं हैं.

बहरहाल, संस्कृत की यही विशेषता उसे बोलने की क्षमता बढ़ाने में मदद करने वाली भाषा भी बनाती है. दुनियाभर में ऐसे लोग हैं जिनके होंठ या जीभ में दरार होती है. इसे क्लेफ़्ट पैलेट या क्लेफ़्ट लिप कहते हैं. इस समस्या से साफ़ बोलने में दिक़्क़त होती है. ऐसे में स्पीच थेरेपी के लिए डॉक्टर जिन तरीक़ों का इस्तेमाल करते हैं, उनमें संस्कृत भी शामिल है, क्योंकि इसका उच्चारण क्रम काफ़ी स्पष्ट होता है. मुंह के किस हिस्से (कण्ठ, दांत, तालु, होंठ) से कौन सी ध्वनि निकलेगी, यह पता होने के चलते यह जानना आसान हो जाता है कि क्लिफ़्ट पैलेट या लिप की समस्या के चलते मरीज़ को कौन से शब्द बोलने में मुश्किल होती है और उसे कैसी सर्जरी से दूर किया जा सकता है. इसके अलावा मनोविज्ञान और आध्यात्मिक सुधार में भी संस्कृत का उपयोग होता रहा है.

लेकिन इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि संस्कृत दुनिया की एकमात्र वैज्ञानिक भाषा है. जानकारों के मुताबिक यह बेमतलब के अहंकार से ज़्यादा कुछ नहीं है जो वैज्ञानिकता को भी एक विशेष विचारधारा के चश्मे में सीमित कर देता है. दुनिया की अधिकतर भाषाओं का अपना विज्ञान है. बोलने और लिखने के लिए उनकी अपनी लिपियां और ध्वनियां हैं. यहां तक कि सांकेतिक भाषा में भी अपनी तरह का विज्ञान है, तभी तो साइन लैंग्वेज जैसी चीज़ वजूद में आई. इस विज्ञान के लिए भारत नहीं, बल्कि स्पेन और फ्रांस को श्रेय दिया जाता है जहां (क्रमश:) 16वीं और 18वीं शताब्दी में साइन लैंग्वेज की पद्धति पर विचार और काम शुरू हुआ.

नासा, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और संस्कृत

अब बात आती है कि क्या संस्कृत कंप्यूटर प्रोग्रामिंग और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (एआई) यानी कृत्रिम बुद्धि के विकास के लिए भी सबसे कारगर वैज्ञानिक भाषा है. सवाल यह भी है कि क्या नासा ने भी संस्कृत की वैज्ञानिकता को माना है. एक विशेष वर्ग और विचारधारा के लोग इस सवाल का जवाब बिना सोचे-समझे ‘हां’ में देंगे, जबकि ऐसा करने के बजाय इस विषय पर थोड़ा शोध करने की ज़रूरत है.

पहले एआई तकनीक की बात करते हैं. तो तथ्य यह है कि यह तकनीक भारत की प्राचीनतम भाषा के बिना ही तेज़ी से आगे बढ़ रही है. आलम यह है कि विज्ञान की इस नई क्रांति ने यूरोप और अमेरिका में इसके ग़लत इस्तेमाल को लेकर ज़बर्दस्त बहस छेड़ी हुई है. इस दौड़ में अब चीन भी शामिल हो गया है जिसने पिछले साल दो एआई न्यूज़ एंकरों से बुलेटिन पढ़वा कर पूरी दुनिया को हैरान कर दिया था. भारत भी एआई तकनीक में भारी निवेश कर रहा है. लेकिन क्या ऐसी कोई रिपोर्ट है जिसमें कहा गया हो कि इसमें महारत हासिल करने के लिए संस्कृत का विशेष रूप से इस्तेमाल किया जाएगा?

एआई तकनीक की एक बड़ी आलोचना यह है कि इसके ज़रिये कृत्रिम बुद्धि वाले रोबोटों (या मशीनों) के लिए सबसे उपयुक्त भाषा अभी तक न तो खोजी जा सकी है और न ही बनाई जा सकी है. फ़िलहाल दुनियाभर में एआई के लिए विशेष रूप से बनाई गई भाषाओं, जैसे लिस्प, पायथन, सी++ आदि का इस्तेमाल किया जा रहा है. साथ ही, और ज़्यादा आसान भाषा खोजने की दिशा में शोध चल रहा है.

अब इस सवाल पर आते हैं कि संस्कृत को एआई के लिए सबसे उपयोगी या वैज्ञानिक भाषा बताए जाने का सिलसिला शुरू कहां से हुआ? इस बारे में 1985 में ‘आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस’ नामक पत्रिका में छपा एक लेख ध्यान खींचता है. उसमें नासा से जुड़े रहे एक वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने लिखा था कि प्राकृतिक रूप से बनी भाषाएं (सीधे कहें तो ह्यूमन लैंग्वेज) एआई तकनीक के लिए उपयोगी हो सकती हैं. उनके मुताबिक़ इनसे कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के ज़रिये मशीनों का नियंत्रण ज़्यादा आसान होगा. इसी आधार पर रिक ब्रिग्स ने संस्कृत पर चर्चा की और इसे एआई के लिए सबसे उपयोगी प्राकृतिक भाषाओं में से एक बताया.

लेकिन रिक ब्रिग्स ने संस्कृत को सबसे उपयोगी भाषाओं में से एक क्यों माना, जबकि इस तकनीक से जुड़े अधिकतर विशेषज्ञ प्राकृतिक भाषाओं को एआई के लिए उपयुक्त नहीं मानते. जानकारों के मुताबिक इसकी वजह है संस्कृत का किसी भी तरह के बड़े परिवर्तन से बचे रहना. यह भी कह सकते हैं कि इसका अनेकार्थी शब्दों वाली भाषा न बनना. जानकारों के मुताबिक़ इस प्राचीन आर्य भाषा में जब समय के साथ शुरुआती परिवर्तन हुए और इसे समझने वाले कम होते गए तो यास्क और पाणिनी जैसे विद्वान वैयाकरणों ने संस्कृत को शुद्ध, व्यवस्थित और सुरक्षित रखने का काम किया. उन्होंने इस भाषा का जो व्याकरण बनाया, उससे संस्कृत रूप स्थिर हो गई. यही कारण है कि इससे निकली अन्य भाषाएं कई मायनों (जैसे शब्द और अर्थ) में बदलीं, लेकिन संस्कृत अपने प्राचीनतम और शुद्ध रूप में बनी रहीं.

रिक ब्रिग्स ने अपने लेख में संस्कृत को लेकर जो बातें कहीं, उसका आधार यही था. साथ ही, उनके लेख से यह भी साफ़ होता है कि एआई तकनीक को लेकर नासा ने इस प्राचीन भारतीय भाषा पर भी शोध किए हैं. लेकिन यह पता नहीं चलता कि नासा ने एआई के लिए किसी और प्राकृतिक भाषा पर शोध नहीं किया. वहीं, ख़ुद नासा ने संस्कृत को एआई के लिए सबसे उपयोगी भाषा बताए जाने पर कभी भी कोई आधिकारिक बयान या प्रतिक्रिया नहीं दी है. उधर, ब्रिग्स के आलोचक कहते रहे हैं कि अगर संस्कृत एआई की कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए सबसे अधिक उपयोगी है तो अब तक इसका सॉफ़्टवेयर क्यों नहीं बना. ऐसे में जानकार सलाह देते हैं कि एआई के संबंध में संस्कृत को लेकर किए जाने वाले किसी भी तरह के कथित वैज्ञानिक दावे पर तब तक यक़ीन नहीं करना चाहिए, जब तक नासा उस पर अपनी मुहर न लगा दे.

कंप्यूटर प्रोग्रामिंग लैंग्वेज में अंतर

संस्कृत की प्रशंसा करते-करते रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ यह भी भूल गए कि भाषाई विज्ञान और प्रोग्रामिंग लैंग्वेज के विज्ञान में अंतर होता है. संस्कृत की वैज्ञानिकता व्याकरणिक रूप से विशुद्ध और सही जानकारी देने वाली भाषा तक सीमित है. इसे इसलिए वैज्ञानिक भाषा माना जाता है कि पाणिनी और अन्य संस्कृत वैयाकरणों ने क्रमबद्ध अध्ययन कर सूत्रीय पद्धति पर संस्कृत व्याकरण तैयार किया. कंप्यूटर प्रोगामिंग में इस्तेमाल होने वाली वैज्ञानिक भाषा अलग चीज़ है. यह भाषा प्राकृतिक नहीं है. इसमें विशेष तरह के गणितीय सूत्रों, चिह्नों आदि का इस्तेमाल होता है. पायथन, आर, जावा, एसक्यूएल, जूलिया, स्काला, मैटलैब, टेंसरफ़्लो आदि कुछ सबसे चर्चित कंप्यूटर प्रोग्रामिंग वैज्ञानिक भाषाएं हैं.