25 जून 1975. ऐतिहासिक छात्र आंदोलन के प्रणेता जयप्रकाश (जेपी) नारायण ने दिल्ली के रामलीला मैदान में नारा दिया, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’. उनके इस आह्वान ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कुर्सी हिला दी. उस समय इंदिरा गांधी अलग-अलग मोर्चों पर बुरी तरह घिरी हुई थीं. लिहाजा सरकार बचाने के लिए उन्होंने उसी रात आपातकाल घोषित कर दिया.

यह फ़ैसला जितना बड़ा था उतना ही गोपनीय भी. वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर लिखते हैं कि सरकार के इस क़दम के चुनिंदा राज़दारों में श्रीमती गांधी, संजय गांधी, आरके धवन (इंदिरा गांधी के निजी सचिव), ओम मेहता (तत्कालीन संसदीय मामलों के राज्य मंत्री), सिद्धार्थ शंकर राय (तत्कालीन मुख्यमंत्री पश्चिम बंगाल) किशन चंद (तत्कालीन ले. गर्वनर दिल्ली) और बंसीलाल (तत्कालीन मुख्यमंत्री हरियाणा) शामिल थे. यह बात किसी को भी चौंका सकती है कि कभी गांधी परिवार के इतने करीबी रहे बंसीलाल 1996 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से बग़ावत कर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थन से मुख्यमंत्री बने थे.

लेकिन यह तो उस कहानी के आख़िरी पन्ने हैं जिसकी शुरुआत 1943-44 के दौरान लोहारु रियासत के प्रजामंडल आंदोलन से हुई थी. ‘हरियाणा के तीन लालों’ में से एक बंसीलाल यह आंदोलन चला रहे संगठन के सचिव थे. भिवानी जिले के गोलागढ़ गांव में जन्मे बंसीलाल की उम्र तब सोलह का आंकड़ा छू रही थी. आगे चलकर उन्हें 1957 में भिवानी बार काउंसिल का अध्यक्ष चुना गया और 1959 में जिला कांग्रेस कमेटी हिसार का अध्यक्ष. प्रदेश कांग्रेस में ही सक्रिय रहते हुए बंसीलाल ने 1960 में राज्यसभा की सीढ़ियां चढ़ीं.

उस दौर में भाषा के आधार पर पंजाब को अलग राज्य बनाए जाने की मांग जोरों पर थी. इसके मद्देनज़र 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा अध्यक्ष हुकम सिंह के नेतृत्व में एक संसदीय समिति का गठन किया. इस कमेटी में केडी मालवीय, केसी पंत और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेताओं के साथ बंसीलाल को भी शामिल किया गया. जैसा कि अनुमान था, इस कमेटी ने पंजाब को अलग राज्य बनाए जाने की सिफ़ारिश की. हालांकि ज़िक्र यह भी मिलता है कि 1961 में जिन चौदह सांसदों ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को ख़त लिखकर अलग पंजाब की मांग को असंगत बताया था, बंसीलाल भी उनमें से एक थे.

बहरहाल, 1966 में हरियाणा, पंजाब से अलग हो गया और पंडित भगवत दयाल शर्मा (बीडी शर्मा) को मुख्यमंत्री चुना गया. लेकिन तब हरियाणा के नेताओं में बार-बार गुट बदलने का बड़ा जबरदस्त चलन था. ‘आयाराम-गयाराम’ शब्द भारतीय राजनीति के शब्दकोष में तभी जुड़ा था. करीब छह महीने के भीतर ही बहुमत न रहने पर बीडी शर्मा को पद छोड़ना पड़ा. उनके बाद इस पद पर कांग्रेस के बाग़ी नेता राव बीरेंद्र सिंह बैठे और वे भी बामुश्किल दो तिमाही से थोड़े ज्यादा वक़्त ही यह जिम्मेदारी संभाल पाए.

मई 1968 में हरियाणा में मध्यावधि विधानसभा चुनाव हुए जिनमें कांग्रेस बहुमत साबित करने में एक बार फ़िर सफल रही. अपने नेता के तौर पर कांग्रेस विधायकों की पसंद एक बार फ़िर बी डी शर्मा ही थे. लेकिन हाईकमान ने उनको हरी झंडी नहीं दी. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुख्यमंत्री चुनने की जवाबदेही गृहमंत्री गुलज़ारी लाल नंदा को सौंपी. बीडी शर्मा ने विधायकों की गोलबंदी शुरू कर दी. लेकिन इंदिरा गांधी के करीबी दो राष्ट्रीय नेताओं ने नंदा के आगे बंसीलाल का नाम बढ़ा दिया जो तब तक किसी तरह की गुटबाज़ी में नहीं फंसे थे. शर्मा ने भी लाल को राजनीति में नौसिखिया मानते हुए समर्थन दे दिया. लेकिन छह महीने बाद ही बंसीलाल का बढ़ता क़द देखते हुए बीडी शर्मा ने राव बीरेंद्र सिंह के साथ मिलकर राज्यपाल के सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया. हालांकि अपने विधायकों पर पकड़ के चलते बंसीलाल को टस से मस न किया जा सका.

कहा जाता है कि बंसीलाल को मुख्यमंत्री बनने से पहले किसी तरह की प्रशासनिक कार्यप्रणाली का अनुभव नहीं था. लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में पले-बढ़े होने की वजह से उन्हें गांवों की स्थिति का अहसास ज़रूर था. इसी की बदौलत उन्होंने पानी, बिजली और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं पर अभूतपूर्व काम कर अपनी छवि हरियाणा के ‘विकास पुरुष’ तौर पर स्थापित की. तब उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती ऊंचाई पर स्थित दक्षिण हरियाणा में पानी पहुंचाने की थी. उस दौरान हिमाचल प्रदेश में व्यास-सतलज परियोजना का निर्माण कार्य जारी था. उसी परियोजना का भ्रमण कर बंसीलाल को लिफ्ट परियोजना (बड़े पंपों के ज़रिए नहरों में पानी पहुंचाना) का उपाय सूझा और हरियाणा की प्रमुख सिंचाई परियोजना ‘जुई’ की आधारशिला रखी गई.

बंसीलाल इस परियोजना को लेकर इतने महत्वकांक्षी थे कि उन्होंने सत्ता में आने के दो साल के अंदर इस परियोजना का बड़ा चरण तैयार करवा लिया जो आगे चलकर पूरे हरियाणा में सिंचाई परियोजनाओं के तौर पर विकसित हुआ. तब पहली बार प्रदेश के कई सूखा प्रभावी जिलों तक पानी पहुंचा था. इस बात ने बंसीलाल की ख़्याति इतनी फैला दी कि हरियाणा के लोकगीतों में उनकी तुलना भागीरथ से की जाने लगी. यही नहीं, बंसीलाल के नेतृत्व में महज सात साल पुराना हरियाणा देश का पहला ऐसा राज्य बना जिसके हर एक गांव तक बिजली पहुंच चुकी थी. उन्होंने यह उपलब्धि सत्ता में आने के ढाई साल बाद ही हासिल कर ली. बंसीलाल ने हरियाणा के गांव-गांव को सड़क मार्ग से जोड़ने के अपने ख़्वाब को भी बख़ूबी पूरा किया.

पूर्व प्रशासनिक अधिकारी राम वर्मा अपनी किताब ‘लाइफ इन द आईएएस- माइ एनकाउंटर्स विथ थ्री लाल्स ऑफ हरियाणा’ में ज़िक्र करते हैं कि एक दफ़ा बंसीलाल और प्रदेश के मुख्य सचिव एस के मिश्रा चंडीगढ़ से हरियाणा के किसी शहर आ रहे थे. रास्ते में बंसीलाल ने मिश्रा से कहा कि- ‘यदि हमें पेशाब लगे तो रास्ते में कहीं भी फ़ारिग हो सकते हैं. लेकिन फ़र्ज़ करो कि तुम्हारे साथ तुम्हारी बीबी हो तो वह इस हाल में क्या करेगी? तुम यहां एक छोटा रेस्टोरेंट शुरु करो जिसमें कई सारे टॉयलेट हों. मिश्रा ने तुरंत जगह का जायजा लेते हुए कहा कि यहां तो कैनाल से पानी लेकर एक छोटी सी झील भी बनाई जा सकती है.

यही वह घटना थी जिसके बाद हाईवे रिसॉर्ट और टूरिज़्म के मामले में हरियाणा के शीर्ष पर पहुंचने के सफ़र और संसद में अरसे तक उससे जुड़ी चर्चाओं की शुरुआत हुई. वर्मा लिखते हैं, ‘एसके मिश्रा की कार्यकुशलता को देखते हुए हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री देवीलाल अक्सर कहा करते थे कि काम तो मिश्रा करता है और नाम बंसीलाल का होता है.’

लेकिन बंसीलाल के नाम की जब भी चर्चा होती है तो अक्सर उनकी विकास पुरुष वाली छवि पर उनका तानाशाही रवैया भारी नज़र आता है. आरोप लगते रहे हैं कि आपातकाल के वक़्त उन्होंने हरियाणा में लोकतांत्रिक ढांचे की जबरदस्त धज्जियां उड़ाईं. प्रशासनिक संस्थाओं और अधिकारियों पर अवांछित दवाब बनाए रखने के लिए तो वे पहले ही बदनाम थे. बंसीलाल संजय गांधी के करीब थे और उन्होंने हरियाणा में नसबंदी कार्यक्रम को खूब जोर-शोर से बढ़ाया. तब अन्य राज्यों की तरह हरियाणा से भी ऐसे तमाम मामले सामने आए जिनमें सरकार पर जबरन नसबंदी का आरोप लगा. आरोप लगाने वालों में कईयों की शादी तक नहीं हुई थी. कहा जाता है कि ऐसे ही एक पीड़ित ने एक भरी सभा में विरोध जताने के लिए बंसीलाल के सामने अपनी धोती खोल दी थी.

बंसीलाल पर संजय गांधी के बहुमहत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट मारुति के लिए (गुरुग्राम में) औने-पौने दामों में जमीन उपलब्ध करवाने के भी आरोप लगाए. आपातकाल के समय मुख्यमंत्री के तौर पर बंसीलाल का दूसरा कार्यकाल चालू था. तब उन पर भरोसा जताते हुए इंदिरा गांधी ने उन्हें दिल्ली बुला भेजा और रक्षा मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी. तब बंसीलाल पर रक्षा सौदों में हेर-फेर के आरोप भी लगे. उन पर ये इल्ज़ाम भी लगे कि उन्होंने अपनी बिजली परियोजना को लेकर ज्यादा जल्दबाजी सिर्फ़ इसलिए की ताकि वे अपनी चहेती कंपनियों को इस काम के ज़रिए भुगतान करवा सकें.

उस दौर में बंसीलाल के ख़िलाफ़ एक शब्द भी छापने वाले पत्रकारों को डराया-धमकाया जाता था. ऐसे पत्रकारों को नौकरी से निकाले जाने का दवाब भी मीडिया संस्थाओं पर जमकर बनाया गया. एक अंग्रेज़ी अख़बार को हरियाणा में ब्लैक लिस्ट कर दिया गया और राज्य से गुज़रते वक़्त उसके वाहनों के साथ तोड़-फोड़ और कर्मचारियों से मारपीट की जाने लगी. एक रिपोर्ट की मानें तो बंसीलाल के कार्यकाल में होने वाले अपराधों का यह छोटा सा नमूना था. लेकिन पत्रकारों से बंसीलाल की बेरुख़ी आपातकाल के दौरान ही सामने नहीं आई थी. उनके पहली बार मुख्यमंत्री बनने पर जब किसी पत्रकार ने एक कॉन्फ्रेंस में उनके अनुभव से जुड़ा सवाल पूछा तो उनका जवाब था, ‘मैं अब तक पापड़ बेलता था.’ प्रदेश के पुराने पत्रकार बंसीलाल द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर ऐन मौके पर निरस्त कर देने के क़िस्सों को आज भी याद करते हैं.

बंसीलाल की तानाशाही की बानग़ी के तौर पर चर्चित रेवासा कांड का हवाला दिया जाता है. कहा जाता है कि उनके बेटे का अपने हमउम्र किसी युवक से विवाद हो गया था. इस पर कार्रवाई करते हुए पुलिस ने न सिर्फ़ उस युवक की बुरी तरह पिटाई की बल्कि उसे उसकी मां और बहन के साथ निर्वस्त्र कर थाने में बंद भी कर दिया. इस घटना की हरियाणा की जनता में तीव्र प्रतिक्रिया देखने को मिली थी. एक क़िस्सा यह भी है कि उस दौरान हरियाणा नेवी के एक बड़े अधिकारी पर सिर्फ़ इसलिए मीसा के तहत मुक़दमा दर्ज़ लिया गया कि उन्होंने बंसीलाल के दूधवाले से बदसलूकी की थी.

आपातकाल के दौरान जिस तरह संजय गांधी इंदिरा गांधी से ज्यादा बदनाम हुए थे. कुछ वैसी ही स्थिति बंसीलाल के बेटे सुरेंद्र सिंह की थी. आपातकाल के दौरान सिंह पर फिल्म निर्माताओं से जबरन उगाही जैसे आरोप भी लगे. कथित तौर पर फिल्मकारों से ये पैसे उनकी फ़िल्म को सेंसरबोर्ड से सर्टिफिकेट दिलवाने के लिए लिए जाते थे. उन दिनों सुरेंद्र सिंह को हरियाणा के व्यापारियों से भी जबरदस्ती वसूली के लिए पहचाना जाता था.

आपातकाल के बाद 1977 में हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव में देवीलाल के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी और तब बंसीलाल को हथकड़ियां डालकर जीप में भिवानी की सड़कों पर घुमाया गया. बंसीलाल पर हुई इस कार्रवाई के पीछे उन पर लगे तमाम आरोप तो थे ही, इसके पीछे एक और दिलचस्प किस्सा भी गिनवाया जाता है. बताते हैं कि एक बार दिल्ली जाते समय देवीलाल किसी मुद्दे पर बंसीलाल से बहस कर बैठे. बंसीलाल को यह बात इतनी नागवार गुज़री कि उन्होंने देवीलाल को बीच रास्ते में ही अपनी कार से नीचे उतार दिया. राजनीतिकार बताते हैं कि मुख्यमंत्री बनते ही बंसीलाल को तुरत-फुरत गिरफ़्तार कर ताऊ देवीलाल ने अपने उसी अपमान का बदला लिया था.

लेकिन 1979 में जनता पार्टी से ही ताल्लुक रखने वाले हरियाणा के ‘तीसरे लाल’ भजनलाल ने देवीलाल को सत्ता से बेदख़ल कर दिया. 1980 के चुनाव में केंद्र में इंदिरा सरकार बनने पर भजन लाल ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया. यही वह समय था जब बंसीलाल का सूर्य कांग्रेस में ढलने लगा था. हालांकि 1986 में कांग्रेस हाईकमान ने एक बार फ़िर बंसीलाल पर भरोसा जताते हुए उन्हें प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर बिठाया. लेकिन उनके नेतृत्व में पार्टी 1987 के विधानसभा चुनाव में कुछ खास प्रदर्शन करने में नाकाम रही और सत्ता की चाबी एक बार फ़िर देवीलाल के हाथ आई.

1991 में पासा एक बार फ़िर पलटा और कांग्रेस का नेतृत्व करते हुए भजनलाल हरियाणा के नए मुखिया चुने गए. इसी दौरान बंसीलाल की अदावत पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी से इतनी बढ़ी कि उन्होंने अपने विकास पुरुष की छवि के आधार पर ‘हरियाणा विकास पार्टी’ की स्थापना कर ली और 1996 में भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से चौथी बार हरियाणा के मुख्यमंत्री बने. लेकिन प्रदेश में शराबबंदी लागू करने की वजह से भाजपा ने जल्द बंसीलाल से समर्थन वापिस ले लिया. तब बंसीलाल ने चौंकाते हुए कांग्रेस का समर्थन हासिल किया और कुर्सी पर बने रहे. हालांकि यह पुरानी बैसाखी बंसीलाल के ज्यादा काम नहीं आई और उन्हें बीच कार्यकाल ही सत्ता से बाहर का रास्ता देखना पड़ा.

चलते-चलते

अकड़ और अक्खड़पन किस तरह बंसीलाल के व्यक्तित्व के पर्याय बन गए थे इसे लेकर वरिष्ठ पत्रकार अमित नेहरा ने अपनी किताब ‘क़िस्सागोई: रंगीलो हरियाणा’ में एक मजेदार क़िस्सा बयां किया है. वे लिखते हैं, ‘1996 के विधानसभा चुनावों से पहले एक बड़ी सभा में बंसीलाल ने भाषण दिया कि- मुझसे कई ग़लतियां हुई हैं, लेकिन वे मैंने जानबूझकर नहीं की. प्रदेश हित में कड़े फैसले लेने पड़ते हैं. आपकी नाराज़गी स्वभाविक है. मुझे माफ़ कीजिए. मैं आपको भरोसा दिलाता हूं कि यदि मेरी सरकार बनी तो भविष्य में ऐसी कोई ग़लती नहीं करुंगा. इतने में एक पंडाल में एक व्यक्ति उठ खड़ा हुआ और बंसीलाल से पूछा कि- आप में इब भी मरोड़ र री स के (आप में अब भी अकड़ बची है क्या)? बंसीलाल ने जवाब दिया- भाई, कती न रह री (भाई बिल्कुल नहीं बची). उस व्यक्ति ने तपाक से कह दिया- फेर आप धोरे रह के ग्या (फिर आपके पास बचा ही क्या है)!’