हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डिस्कवरी चैनल के मशहूर शो ‘मैन वर्सेज वाइल्ड’ में नजर आए. इस दौरान उत्तराखंड के कॉर्बेट नेशनल पार्क में बेयर ग्रिल्स के साथ रोमांचक करतब करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वन्य जीवन, प्रकृति और पर्यावरण को लेकर चर्चा की. उन्होंने जो कुछ कहा उसका लब्बोलुआब यही था कि वे और उनकी सरकार भारतीय संस्कृति की परंपराओं के अनुसार ही पर्यावरण और प्रकृति के प्रति बेहद संवेदनशील और सहअस्तित्ववादी नजरिया रखती है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले भी अनेक मौकों पर प्रकृति और हिमालय के प्रति अपनी भावनाओं का इजहार कर चुके हैं. गंगा के प्रति उनकी संवेदनशीलता ‘नमामि गंगे’ जैसे कार्यक्रमों से लेकर ‘मुझे गंगा ने बुलाया है’ जैसे चुनावी बयानों तक में देखी गई है. केदारनाथ में एक गुफा में बैठ कर ध्यान लगाने जैसे कार्यों से भी उन्होने हिमालय के महत्व को दिखाने का प्रयास किया है. लेकिन उत्तराखंड में ही, जहां भाजपा की ही सरकार है, प्रधानमंत्री की भावनाओं का यह सिलसिला व्यवहार में बिलकुल भी वैसा नहीं दिखाई देता है.
ऐसा कहने के बहुत से कारण हैं. इस संदर्भ में उत्तराखंड में पंचेश्वर और कई दूसरे बांधों के प्रति केंद्र और राज्य सरकारों की जिद और चार धामों के नाम पर येन-केन प्रकारेण ऑल वेदर रोड के घोर पर्यावरण विनाशक निर्माण का जिक्र किया जा सकता है. इसके अलावा हिमालय के अति संवेदनशील इलाकों में अंधाधुंध हैली पर्यटन, मानव-वन्य जीवों के बीच लगातार तीखे होते संघर्षों के प्रति उपेक्षात्मक रवैया और राज्य में कृषि भूमि की खुली बिक्री को बढ़ाने वाली अनेक योजनाएं साफ-साफ बताती हैं कि उत्तराखंड में हाथी के दांत खाने के और हैं और दिखाने के कुछ और.
दिखाने के दांतों की बात करें तो राज्य के माध्यमिक शिक्षा विभाग द्वारा बीती 21 अगस्त को जारी एक आदेश को इसका एक उदाहरण माना जा सकता है. इस आदेश के तहत राज्य के सारे विद्यालयों में एक सितंबर से नौ सितंबर तक पांच मिनट की हिमालयी प्रतिज्ञा करवाई जानी है. अनिवार्य रूप से ली जाने वाली इस प्रतिज्ञा में कहा गया है - ‘हिमालय हमारे देश का मस्तक है. विराट पर्वतराज दुनिया के बड़े भू-भाग के लिए जलवायु, जल-जीवन और पर्यावरण का आधार है. इसके गगनचुंबी शिखर हमें नई ऊंचाई छूने की प्रेरणा देते हैं. मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं हिमालय की रक्षा का हरसंभव प्रयास करूंगा/करूंगी. ऐसा कोई कार्य नहीं करूंगा/करूंगी, जिससे हिमालय को नुकसान पहुंचता हो.’
लेकिन एक ओर राज्य सरकार पर्वतराज के प्रति इतनी संवेदनशील दिखने का प्रयास करती है तो दूसरी ओर वह इसके मस्तक औली में शादी के नाम पर पर्यावरण को क्षत-विक्षत करने के एक विवादास्पद धनकुबेर के प्रयास में मदद करने को अपना गौरव मानती है. इसी वर्ष जून में हुई गुप्ता बंधुओं की शादियों के आयोजन ने औली के इलाके में जिस तरह पर्यावरण को तबाह किया था उसके घाव अभी भी यहां देखे जा सकते हैं.
उत्तराखंड हाईकोर्ट ने 21 अगस्त 2018 को एक आदेश में 10 हजार फुट से अधिक ऊंचाई वाले बुग्यालों (घास का मैदान) में ट्रैकरों और अन्य स्थानीय लोगों के रात्रि विश्राम पर रोक लगा दी थी. लेकिन वेडिंग डेस्टिनेशन के नाम पर विवादास्पद गुप्ता बंधुओं को 11 हजार फुट से ऊंचे औली में शादी का तमाशा रचाने के लिए उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने पलक पांवड़े बिछा दिए. शादी के एक माह बाद तक औली से सिर्फ 200 क्विंटल प्लास्टिक की अधिकता वाला कचरा ही हटाया जा सका था. शादी का लगभग इतना ही कचरा वहां तब भी मौजूद था. जो कचरा हटाया भी गया उसका निस्तारण कैसे हुआ, कोई नहीं जानता. साफ है कि औली से लाकर इस कचरे को अलकनंदा नदी में ही प्रवाहित किया गया होगा.

उत्तराखंड हाईकोर्ट ने शादी के लिए जो सशर्त अनुमति दी थी उसमें कचरा साफ करने के लिए 30 जुलाई की समय सीमा तय की गई थी. मगर काम तब तक पूरा नहीं हुआ था. शादी के दौरान औली में एक महीने से भी अधिक समय तक 250 से भी अधिक मजदूर और अन्य सभी कर्मचारी खुले में शौच करते रहे. अब यह सब गंदगी औली के नीचे जल स्रोतों को भी प्रदूषित कर रही है. लेकिन गुप्ता बंधु पास के ही कस्बे जोशीमठ की नगर पालिका के पास 5.54 लाख रुपये जमा करके सफाई की सारी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ चुके हैं.
राज्य सरकार औली की पर्यावरण दुर्दशा के बावजूद इस बात से गदगद है कि इस शादी से उत्तराखंड को मीडिया में खूब चर्चा मिल गई. जबकि राज्य में पर्यावरण की चिंता करने वाले लोग यह सवाल पूछ रहे हैं कि वेडिंग डेस्टिनेशन के नाम पर हिमालयी बुग्यालों को कब तक यूं ही पूंजीपतियों के हवाले किया जाता रहेगा. पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था गति फाउंडेशन के अनूप नौटियाल कहते हैं, ‘क्या सरकार औली से सबक लेकर ऐसे आयोजनों के लिए कोई नीति या गाइडलाइन बनाएगी या मोटे चढ़ावे से भविष्य में भी ऐसा ही होता रहेगा?’
उत्तराखंड में ही शूट हुए मैन वर्सेज वाइल्ड के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाले एपीसोड से उत्तराखंड सरकार को कोई प्रेरणा मिली है या नहीं कहना मुश्किल है. लेकिन इसकी जरूरत यहां इसलिए भी है कि राज्य में मानव और वन्य जीवों के बीच के रिश्ते इस समय बेहद चिंताजनक हो चुके हैं. पहले से ही पलायन से जूझ रहे उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के गांवों में ग्रामीणों के खेती से लगातार बढ़ते मोहभंग के पीछे वन्य जीवों के साथ होने वाला उनका टकराव भी है. यहां लोगों के हिंसक जीवों से संघर्ष की घटनाओं में लगातार वृद्धि होती जा रही है. अकेले 2018 में ही राज्य के वन विभाग ने ऐसी 633 घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज की थी. खेती को बर्बाद करने वाले बंदर, लंगूर, भालू, सुअर और साही आदि की तादाद और उनके द्वारा खेती को नुकसान पहुंचाने की घटनाओं में यहां चिन्ताजनक वृद्धि देखी गई है. स्थिति कितनी गंभीर है इसके बारे में बताते हुए उत्तराखंड के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी पीयूष रौतेला कहते हैं, ‘उत्तराखंड में बंदरों की बढ़ती संख्या और उनमें बढ़ती आक्रामक प्रवृत्ति एक बेहद गंभीर समस्या बनती जा रही है. इस समस्या के समाधान के लिए संरक्षणवादियों और वन्य जीवों के अधिकारों की वकालत करने वालों को एक ओर रखकर गंभीर उपाय ढूंढने की जरूरत है.’ इसके बावजूद राज्य सरकार को इस विकराल होते खतरे से निपटने के लिए विचार करने तक की फुरसत नहीं है.
उत्तराखंड की खेती और कृषि के लिए खतरा सिर्फ वन्य जीवों के किसानों से आए दिन होने वाले टकराव ही नहीं है. राज्य सरकार ने उत्तराखंड की जमीनों की बिक्री को आसान बनाने के लिए पिछले 10 महीने में भू कानूनों में कई बार बदलाव कर दिए हैं. छह अक्टूबर 2018 को त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने भू कानून बदलने के लिए एक अध्यादेश जारी किया. फिर छह दिसंबर 2018 को ही भू कानून संशोधन विधेयक लाया गया. चार जून 2019 को राज्य सरकार ने कैबिनेट मीटिंग में उत्तराखंड के देहरादून, उधमसिंह नगर और हरिद्वार जिलों में सीलिंग खत्म कर जमीन खरीदने-बेचने की सीमा भी समाप्त कर दी. अब राज्य में औद्योगिक उपयोग के लिए कृषि भूमि खरीदी जा सकती है और और ऐसा होते ही उसका भू-उपयोग भी स्वतः ही बदल जाता है.
त्रिवेंद्र सरकार ने राज्य में बाहरी व्यक्तियों द्वारा 250 वर्ग मीटर तक ही जमीन खरीद सकने के 2007 के नियम को भी बदल कर इस सीमा को ही समाप्त कर दिया है. अखिल भारतीय किसान महासभा ने एक रिपोर्ट में बताया है कि उत्तराखंड में कृषि का रकबा अब नौ फीसदी के आस-पास ही रह गया है. लेकिन उत्तराखंड सरकार इस बारे में भी जरा भी चिंतित नहीं दिखती. उल्टे वह ऐसे नियम कानून बनाती जा रही है जिससे उत्तराखंड की बची-खुची कृषि भूमि भी आसानी से पूंजीपतियों की सैरगाहों में बदली जा सके.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केदारनाथ के एकांत में एक गुफा में ध्यान लगा कर केदारनाथ की अद्भुत नीरवता की बड़ी ब्रैंडिंग की थी. लेकिन उत्तराखंड की भाजपा सरकार उत्तराखंड को हैली पर्यटन की पहचान देने में तत्पर है. केदारनाथ के अति संवेदनशील पर्यावरण पर हैलीकॉप्टरों की गड़गड़ाहट और शोर कितना प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा होगा, इसका अनुमान ग्रीन ईको की एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है. इसमें नेपाल में स्थित हिमालय के कुछ आंकड़ों के जरिये बताया गया है कि इसके कारण एवलांच यानी हिमस्खलन की आशंका 60 फीसदी बढ़ जाती है. अफसोस की बात यह है कि 2013 में केदारनाथ में एक बड़ी विनाशकारी आपदा झेलने के बाद भी राज्य सरकार की पर्यावरण के प्रति सोच में जरा भी बदलाव नहीं आया है. सरकार का दावा है कि हैली पर्यटन से केदारनाथ और अन्य धामों के पर्यटकों के लिए सुविधाएं बढ़ रही हैं और उससे लोगों की आय भी बढ़ रही है. हालांकि सच यह है कि इससे छोटे कारोबारियों का रोजगार खत्म हो रहा है.
ठीक ऐसी ही दलीलें उत्तराखंड में चार धाम ऑल वेदर रोड के लिए भी दी जा रही हैं. 27 दिसंबर 2016 को देहरादून में एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 889 किलोमीटर लंबी और 12000 करोड़ रु की लागत वाली चार धाम रोड परियोजना की घोषणा की थी. 2017 में इस पर काम शुरू हुआ मगर इस परियोजना को उत्तराखंड हिमालय के लिए बेहद घातक मानते हुए इसका विरोध भी शुरू हो गया. पहले हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगाई, फिर मामला एनजीटी में गया. वहां पहले तो इस पर रोक लगी मगर 26 सितंबर 2018 को एनजीटी ने पर्यावरण क्षति के आकलन के लिए एक उच्च स्तरीय समिति बनाने के साथ परियोजना को हरी झंडी दे दी.
मामला फिर एक याचिका के जरिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. याचिकाकर्ता ‘सिटीजंस फाॅर ग्रीन दून’ संस्था ने अदालत में दलील दी कि उत्तराखंड के जिन इलाकों में यह अधिकतम 24 मीटर चौड़ाई वाली सड़क बन रही है वहां के पहाड़ 70 से 90 अंश तक के ढलान वाले हैं. ऐसे में वहां एक मीटर सड़क चौड़ी करने में 10 मीटर का इलाका भूस्खलन से प्रभावित होता है. संस्था का कहना था कि इस सड़क से चार धाम इलाके और टनकपुर से पिथौरागढ़ के बीच 144 बस्तियां भी प्रभावित होंगी. साथ ही, करीब 21600 वर्ग मीटर क्षेत्रफल की जैव विविधता को भारी नुकसान होने की आशंका के साथ दुर्लभ प्रजाति के विभिन्न वृक्ष, जड़ी-बूटियां, वन्य जीव जन्तु और हिमालय की नदियों को सदानीरा बनाने वाले जल स्रोत भी इसके चलते संकट में आ जाएंगे.
सरकार की दलील थी कि यह सड़क अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से बनाई जा रही है. लेकिन हकीकत में इस सड़क के निर्माण के लिए हर स्तर पर ‘जुगाड़’ का सहारा लिया जा रहा है. सड़क के निर्माण के कारण बीसियों गांवों और कस्बों में मकान धंस रहे हैं, उनमें दरारें आ रही हैं. खेत और जल स्रोत खत्म हो रहे हैं. निर्माण के कारण सैकड़ों की तादाद में नए भूस्खलन क्षेत्र बन रहे हैं. और सैकड़ों टन मलबा नदियों में गिराया जा चुका है.
सरकार ने योजना को शुरू करते समय भी बड़ी चालाकी से पर्यावरण प्रतिबंध की अनदेखी की थी. 100 किलोमीटर से अधिक लंबाई की सड़कों के निर्माण के लिए निर्माण से पूर्व पर्यावरण प्रभाव का आकलन करवाना जरूरी होता है. इससे बचने के लिए 440 किलोमीटर के शुरुआती निर्माण के लिए विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) 53 हिस्सों में बनवाई गई. वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने स्वयं छह अप्रैल 2018 के हलफनामे में यह स्वीकार किया था कि उसने चार धाम के नाम से किसी ऑल वेदर रोड को मंजूरी नहीं दी है.
यही वजह थी कि सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में मामला आते ही उसने एनजीटी के आदेश पर स्टे दे दिया. 22 अगस्त 2018 के इस आदेश के बाद लगभग एक साल तक मामला सुप्रीम कोर्ट में चलता रहा. सुप्रीम कोर्ट को यह भी बताया गया कि इस योजना के लिए 25 हजार से भी अधिक पेड़ बिना अनुमति के काट दिए गए हैं और योजना के तहत पहाड़ों में सड़क निर्माण के लिए राजमार्ग और सड़क परिवहन मंत्रालय की 2004 की गाइडलाइंस का भी पालन नहीं किया जा रहा. लेकिन आखिरकार अगस्त 2019 में सुप्रीम कोर्ट से भी इस योजना को क्लीन चिट मिल ही गई है. हालांकि कोर्ट ने चार धाम सड़क परियोजना के पर्यावरण प्रभावों का आकलन करने के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति के गठन का निर्देश दिया है जो चार माह में अपनी रिपोर्ट देगी. इस समिति का तो अभी गठन ही होना बाकी है लेकिन ऑल वेदर रोड के दुष्प्रभाव उत्तराखंड के पहाड़ों में अभी से दिखने लगे हैं.
गंगा की निर्मलता और अविरलता के लिए सरकारों की चिंता चाहे कुछ भी दिखे, लेकिन टिहरी बांध के दुष्प्रभाव देखने के बाद भी उत्तराखंड में सरकारों का नजरिया बदला नहीं है. इसीलिए पंचेश्वर बांध निर्माण के लिए उत्तराखंड सरकार कुछ भी करने को तैयार है. इस बांध की पैरवी के लिए इसकी जनसुनवाई में भारी अनियमितताएं बरती गईं. काली, रामगंगा और सरयू नदियों के जलग्रहण क्षेत्र की भूगर्भीय और भौगोलिक परिस्थितियों को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया. ठीक वैसे ही जैसे अलकनंदा घाटी में बनने वाले बांधों के बारे में किया गया था. केदारनाथ आपदा के दौरान अलकंदा पर विष्णुप्रयाग परियोजना की जो तबाही हुई थी उससे भी कोई सबक नहीं लिया गया. यहां तक कि श्रीनगर बांध परियोजना के पाॅवर चैनल से हो रही पर्यावरणीय समस्याओं पर इसी जुलाई में एनजीटी में एक याचिका पर भी सुनवाई शुरू हो चुकी है. लेकिन राज्य सरकार किसी भी तरह का सबक सीखने को तैयार नहीं है. बांधों को लेकर उसकी नीति बदस्तूर पर्यावरण विरोधी बनी हुई है और खनन और नदियों के प्रबंध को लेकर भी.
भारतीय वन कानून 2019 के नाम पर केंद्र सरकार एक नया वन कानून लाना चाहती है. इस कानून के तहत सिर्फ संदेह होने पर वनकर्मी जंगल में मौजूद किसी भी व्यक्ति पर गोली चला सकते हैं. यह प्रस्तावित कानून वनवासियों के परंपरागत वन अधिकारों को पूरी तरह प्रतिबंधित करता है. उत्तराखंड के गांवों में इस कानून को लेकर कई तरह की आशंकाएं हैं और इसे लेकर लोग लगतार आंदोलित हो रहे हैं. राज्य में वनाधिकार आंदोलन की मांग है कि उत्तराखंड को वनवासी प्रदेश घोषित किया जाए. यह भी कि जंगली जानवरों के हमले में मौत या विकलांगता के लिए 25 लाख और वन्य जीवों द्वारा खेती के नुकसान पर 1500 रुपए प्रति नाली तत्काल मुआवजा दिया जाए. आंदोलनकारी उत्तराखंड में वन अधिकार अधिनियम 2006 को तुरंत लागू करने की मांग भी कर रहे हैं. लेकिन राज्य की भाजपा सरकार इस आंदोलन की मांगों पर सुनवाई करने को भी तैयार नहीं है.
कुल मिलाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो मैन वर्सेज वाइल्ड से लेकर जी7 शिखर सम्मेलन के मंच तक पर्यावरण को लेकर अति संवेदनशील दिखते हैं, लेकिन लगता है उनकी सरकारें इस मुद्दे को अब भी महज नारा ही मानने पर तुली हुई हैं. कम से कम उत्तराखंड हिमालय में तो यह साफ साफ नजर आता है.
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