पहले सूखे और फिर बाढ़ की मार होने के कारण भारत में यह साल भी प्राकृतिक आपदाओं वाला ही रहा. जून के अंत तक जहां देश में 33 फीसदी कम बारिश रिकॉर्ड की गई थी वहीं जुलाई में भारत के तमाम हिस्से बाढ़ में डूबने लगे. मौसम में ऐसा अचानक बदलाव अब एक सामान्य बात होती जा रही है और वैज्ञानिक इस अनिश्चितता के पीछे जलवायु परिवर्तन को प्रमुख वजह मानते हैं.

लेकिन जलवायु परिवर्तन से जुड़ा एक और अहम मुद्दा है और वह है हमारी ज़मीन का तेज़ी के साथ बंजर और मरुस्थल में तब्दील होते जाना. इस विनाशकारी बदलाव की कई वजहें हैं. ग्लोबल वॉर्मिंग को भी इनमें से एक माना जाता है. आज पूरी दुनिया की लगभग 400 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन मरुस्थलीय या बंजर हो चुकी है. यह मरुस्थल या बंजर हो चुकी ज़मीन दुनिया में उपलब्ध कुल भूमि की एक तिहाई है.

इसी अनुपात में हमारे देश की भी लगभग एक तिहाई - 29.32 प्रतिशत - ज़मीन मरुस्थलीय है. कुल क्षेत्रफल के रूप में यह आंकड़ा करीब 9.6 करोड़ हेक्टयर बैठता है. हमारे देश की इतनी ज्यादा ज़मीन या तो रेगिस्तान में तब्दील हो चुकी है या फिर इतनी ख़राब हो चुकी है कि उस पर खेती नहीं हो सकती.

ज़ाहिर है भारत की विशाल और बढ़ती जनसंख्या के हिसाब से उसकी खाद्य ज़रूरतों को देखते हुये मरुस्थलीकरण की रफ्तार को रोकना और ज़मीन को उपजाऊ बनाना उसके एजेंडे में काफी ऊपर होना चाहिये. ऊपर से मरुस्थलीकरण का यह संकट जैव विविधता पर छाये संकट को भी बढ़ा रहा है. सोमवार को इसी विषय पर दुनिया भर के देशों का एक सम्मेलन ग्रेटर नोएडा में शुरु हुआ है. इसकी अध्यक्षता भारत कर रहा है.

ऊंचे लक्ष्य पर अभी कामयाबी नहीं

केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने सम्मेलन की शुरुआत से पहले कहा कि सरकार अगले 10 सालों में ख़राब हो चुकी 50 लाख हेक्टयर ज़मीन को उपजाऊ ज़मीन में तब्दील कर देगी. हालांकि 2015 में भी सरकार ने यह वादा किया था कि वह 2020 तक देश की 130 लाख हेक्टेयर ज़मीन को उपजाऊ बनायेगी. इसके बाद 2020 से 2030 तक 80 हेक्टेयर ज़मीन को और उपजाऊ बनाने का लक्ष्य भारत ने रखा था.

ज़ाहिर है इस मोर्चे पर सरकार को कामयाबी नहीं मिल पाई है और अब वह दोबारा अपनी कमर कस रही है. कहा जा रहा है कि सरकार इस सम्मेलन के खत्म होते-होते 3 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन को हरा-भरा करने के संकल्प की घोषणा कर देगी. लेकिन जलवायु परिवर्तन और मरुस्थलीकरण जैसे संकट से केवल घोषणा के दम पर नहीं लड़ा जा सकता. उसके लिये सरकार के पास मज़बूत नीति और प्रबल इच्छाशक्ति होनी चाहिये.

बेपरवाह रहे हैं बड़े देश

जिस तरह से दुनिया के कई देश इस वक्त पर्यावरण की अनदेखी कर रहे हैं उससे हालात और ख़राब होने का डर बढ़ रहा है. अमेज़न के जंगलों की भयानक आग को लेकर ब्राज़ील के राष्ट्रपति जायर बोल्सनारो का रुख बेहद गैरज़िम्मेदाराना और बेपरवाह रहा है. उसी तरह करोड़ों डॉलर की तेल और गैस पाइप लाइन बिछाने से लेकर अलास्का के जंगलों को काटने के बारे में सवाल पूछने पर डोनाल्ड ट्रम्प भी जानकारों का मखौल ही उड़ाते हैं.

यह सब एक ऐसे दौर में हो रहा है जब ग्लोबल वॉर्मिंग हर तरह के कुप्रभाव दिखा रही है. सूखे से लेकर बाढ़ और 100-150 किलोमीटर प्रति घंटे की तेज़ हवायें, ये सब विनाशलीला को बढ़ायेंगी ही. ऐसे हालात मरुस्थलीकरण के लिये बिल्कुल माकूल होंगे. भारत की भौगोलिक परिस्थिति के कारण इसका बड़ा असर हमारे देश पर पड़ना तय है. यह सब निराशा पैदा करने वाली स्थितियां हैं लेकिन दुनिया के पर्यावरण प्रेमियों को इन्हीं हालात में नई राह तलाशनी होगी.

सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वारेंन्मेंट की निदेशक सुनीता नारायण याद दिलाती हैं कि किस तरह जब मरुस्थलीकरण के खिलाफ जंग पर सहमति बनी थी तो उस पहल को 1992 की रियो समिट की सौतेली संतान कहा गया था. उस वक़्त अफ्रीकी और विकसित देश इसके लिये आवाज़ उठा रहे थे लेकिन किसी भी अमीर देश ने इसे अहमियत नहीं दी.

लेकिन आज हाल क्या है? अफ्रीकी देशों में मरुस्थल के फैलते जाने से यूरोप और अमेरिका जैसे देशों में ही पलायन बढ़ रहा है और विकासशील देशों के साथ यह अमीर देशों के लिये आने वाले दिनों की सबसे विकराल समस्या हो सकती है.

भारत का संकट

भारत के पास दुनिया की करीब 18 फीसदी आबादी है लेकिन ज़मीन 2.5 फीसदी से भी कम है. इसमें से भी 30 फीसदी ज़मीन बंजर या मरुस्थलीय हो चुकी है. एक अनुमान के हिसाब से भारत में हर साल एक लाख हेक्टेयर ज़मीन बंजर या मरुस्थलीय भूमि में बदल रही है. ऐसे में क्या भारत इस समस्या से लड़ने के लिये गंभीर है?

भारत की 80 प्रतिशत से अधिक मरुस्थलीय ज़मीन नौ राज्यों में है. इनमें राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू-कश्मीर (लद्दाख), झारखंड, मध्यप्रदेश और कर्नाटक शामिल हैं.

मरुस्थलीकरण के लिये ज़िम्मेदार कारणों में सबसे बड़े हैं - ज़मीन का अत्यधिक दोहन, कीटनाशकों और रासायनिक खाद का इस्तेमाल, जानवरों द्वारा अत्यधिक चरना. इसके अलावा बाढ़ और तेज़ आंधी से होने वाला नुकसान और सिंचाई में असंतुलन भी इसके लिए जिम्मेदार हैं.

जंगलों को लगाने, रासायनिक खाद के इस्तेमाल को बन्द कर जैविक खेती जैसे तरीकों को अपनाने और जल प्रबंधन कर ज़मीन को पुन: उपजाऊ बनाया जा सकता है.

भारत महात्मा गांधी के 150 वें जन्मदिन के मौके पर पोरबंदर से लेकर दिल्ली तक ग्रीन कोरिडोर बनाने की बात तो कर रहा है लेकिन सच यह है कि पिछले कुछ सालों में भारत में जंगलों का तेज़ी से कटान हुआ है. इसका असर जलधाराओं पर पड़ा है और नदियों की सेहत बिगड़ रही है.

कीटनाशकों के प्रबंधन के लिये हमारे यहां अब भी कोई सख्त कानून नहीं है और हम 60 के दशक के कानून के सहारे ही चल रहे हैं. इसके अलावा सूखे के बढ़ते जाने और ग्राउंड वाटर के गिरते जाने से हालात और बिगड़ सकते हैं.

इन सबके साथ-साथ अंधाधुंध खनन भी इस मामले में चिंता का एक प्रमुख विषय है. दिल्ली से लगे हरियाणा में अरावली का विनाश इस कहानी को बताने के लिये काफी है. जानकारों को डर है कि अरावली के खत्म होने से थार के रेगिस्तान को रोकने के लिये बनी एक प्राकृतिक दीवार ढह गई है.