साल था 2009. राजस्थान विधानसभा चुनाव हो चुके थे. 200 में से 96 सीटें लेकर कांग्रेस प्रदेश में सबसे बड़े दल के तौर पर तो उभरी, लेकिन बहुमत के लिए अभी पांच विधायकों की दरकार और थी. चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के भी छह विधायक जीते थे. उधर कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी के चुनाव हार जाने के बाद पार्टी की कमान पूरी तरह से अशोक गहलोत के हाथ आ चुकी थी. अचानक बसपा के सभी विधायकों के कांग्रेस में शामिल होने की खबर आई. विश्लेषकों ने इसका पूरा श्रेय राजनीति के जादूगर कहे जाने वाले अशोक गहलोत को दिया. बाद में ये मामला हाईकोर्ट भी पहुंचा था. पर चूंकि बसपा के सभी विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए थे इसलिए इसे दल-बदल कानून का उल्लंघन न मानते हुए राजस्थान में बसपा के कांग्रेस में विलय के तौर पर देखा गया.
कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सोमवार रात एक बार फ़िर बसपा के सभी विधायकों को कांग्रेस से जोड़कर यह बात साबित कर दी है. दिलचस्प बात यह है कि राजस्थान में इस बार भी बसपा के छह विधायक ही थे. जानकारी के अनुसार गहलोत इन सभी विधायकों से व्यक्तिगत तौर पर लगातार संपर्क में थे.
विधानसभा स्पीकर सीपी जोशी ने इस बारे में बयान दिया है कि बसपा के सभी विधायकों के कांग्रेस में विलय का पत्र उन्हें मिल चुका है और अब ऐसा होने में कोई कानूनी अड़चन नहीं है. वहीं, नदबई (भरतपुर) से बसपा विधायक जोगेंदर अवाना का इस बारे में कहना है कि ‘कांग्रेस सरकार से हम हर सुविधा भी ले रहे थे और उसका विरोध भी कर रहे थे. बसपा नेतृत्व से विपक्ष में बिठाने या फिर पूरी तरह सरकार में शामिल करवाने का अनुरोध किया था. लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. ऐसे में प्रदेश हित को देखते हुए हम सभी कांग्रेस में शामिल हो गए.’ कांग्रेस से जुड़े सूत्रों की मानें तो इन विधायकों में से दो या तीन को जल्द ही मंत्रिमंडल में शामिल किया जाएगा और बाकी को विधानसभा सचेतक या संसदीय सचिव की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है.
बसपा सुप्रीमो मायावती को राजस्थान इकाई की तरफ़ से बीते एक साल में ऐसे कई झटके लग चुके हैं. इसकी शुरुआत विधानसभा चुनाव के बाद से ही हो गई थी. तब मायावती ने मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि कांग्रेस की रस्सी जल गई मगर बल नहीं गया. लेकिन राजस्थान में बसपा विधायकों ने चुनावी नतीजे आते ही कांग्रेस को समर्थन देने का ऐलान कर दिया.
फ़िर उदयपुरवाटी (झुंझनू) से विधायक राजेंद्र सिंह गुढ़ा ने बसपा पर पैसे लेकर टिकट बांटने का आरोप लगाकर ख़ूब सुर्ख़ियां बटोरी थीं. कुछ ही दिन बाद जब मायावती ने पहलू खान की ‘मॉब लिंचिंग’ के छह आरोपितों के बरी होने के लिए राजस्थान सरकार की लापरवाही व निष्क्रियता को जिम्मेदार बताया, तब इन विधायकों ने उनकी बात को यह कहकर खारिज कर दिया कि ‘वे लखनऊ में बैठी हैं, उन्हें क्या पता कि यहां (राजस्थान) क्या हो रहा है! गहलोत सरकार पहलू खान के मामले में संवेदनशीलता के साथ आगे बढ़ी है.’
यहां दो सवाल उठते हैं. पहला तो यह कि राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी के नेताओं ने लगातार दूसरी बार अपनी पार्टी का दामन क्यों छोड़ा है? और दूसरा यह कि दो सौ में से सौ अपने, बारह निर्दलीय, एक राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) और दो भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) के विधायकों का समर्थन होने के बावजूद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बसपा विधायकों को अपने साथ रखने के लिए इतने उत्सुक क्यों हैं?
राजस्थान बसपा के एक पूर्व पदाधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘यह बात किसी से नहीं छिपी है कि बहुजन समाज पार्टी का टिकट किस तरह मिलता है! दलित मतदाताओं को लुभाने के लिए यहां (राजस्थान) के ऐसे नेता जैसे-तैसे पार्टी टिकट ले आते हैं, जिनमें संगठन के प्रति कोई निष्ठा नहीं होती. फिर विधायक बनते ही उनके मन में सत्तासुख भोगने की इच्छा जोर मारने लगती है. यह लगभग तय है कि राजस्थान में अपने दम पर सरकार बना पाना बसपा के बूते के बाहर की बात है. नतीजतन इस तरह के विलय और गठबंधन सामने आते हैं.’
अब बात कांग्रेस की. कर्नाटक के हाथ से फिसलने के बाद देश भर में पार्टी सिर्फ़ चार राज्यों - पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश - की सत्ता तक सिमट गई है. इनमें से भी मध्यप्रदेश में कांग्रेस की स्थिति कुछ खास मजबूत नहीं है. राजनैतिक गलियारों में कमलनाथ सरकार के गिरने की संभावना रह-रहकर जताई जाती रही है. ऐसे में कांग्रेस का अस्तित्व सिर्फ़ तीन राज्यों के बूते आ टिका है. लेकिन बीच-बीच में राजस्थान में भी तख़्तापलट से जुड़ी ख़बरें सामने आती रहती हैं. इन कयासों को लोकसभा चुनावों के बाद तब जमकर हवा मिली जब कांग्रेस की करारी शिकस्त के बाद राजस्थान के बसपा विधायकों ने राज्यपाल से मुलाकात की थी. सूत्रों की मानें तो इस मुलाकात ने कांग्रेस हाईकमान के माथे पर पसीना ला दिया था.
जानकार बताते हैं कि बहुजन समाज पार्टी के विधायकों को कांग्रेस से जोड़कर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पार्टी आलाकमान के उसी खटके को दूर किया है. लेकिन गहलोत की राजनीति को जानने वाले कहते हैं कि उनकी इस कवायद का उद्देश्य इतना भर नहीं है. माना जा रहा है कि उनके इस दांव के तार उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट से भी जुड़ते हैं. दरअसल मुख्यमंत्री पद को लेकर इन दो दिग्गजों की आपसी तनातनी की चर्चाएं न सिर्फ़ जयपुर बल्कि दिल्ली तक में आम हैं. राजस्थान विधानसभा चुनाव के बाद ऐसे कई मौके आए जब इन दोनों नेताओं की आपसी तल्खी सार्वजनिक तौर पर भी महसूस की गई.
राजस्थान सरकार के एक मौजूदा मंत्री इस बारे में कहते हैं, ‘बीच में एक समय ऐसा भी था जब सचिन पायलट; अशोक गहलोत से इक्कीस साबित होते दिख रहे थे. लेकिन गहलोत ने साबित कर दिया कि उन्हें राजनीति का जादूगर यूं ही नहीं कहा जाता. अब सरकार पूरी तरह से उनकी पकड़ में है. कमोबेश संगठन में भी यही स्थिति बनती नज़र आ रही है.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘पार्टी शीर्ष नेतृत्व को यह फ़िक्र हमेशा सताती है कि मुख्यमंत्री न बनाए जाने से नाराज़ पायलट अपने समर्थक विधायकों के साथ कहीं बगावत पर न उतर जाएं. हाईकमान की इस दुविधा का लाभ उठाकर पायलट उससे अपनी कई बातें मनवाने में सफल भी होते रहे हैं. लेकिन निर्दलीय और बसपा विधायकों को सत्ता से जोड़कर गहलोत ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि कुछ विधायकों के दांये-बांये होने से उनकी कुर्सी डगमगाने वाली नहीं है. लिहाजा अब कोई ज़रूरी नहीं कि पायलट की हर बात मानी ही जाए.’
वहीं; प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी का इस बारे में कहना है, ‘मंत्रिमंडल विस्तार के वक़्त बसपा और निर्दलीय विधायकों को सत्ता में भागीदारी दी जाएगी तो कैबिनेट को संतुलित करने के लिए कुछेक मौजूदा मंत्रियों को चलता कर देने की भी पूरी संभावना है. यह फैसला संबंधित मंत्रियों के ख़िलाफ़ जनता से लगातार मिल रही शिकायतों के आधार पर लिया जाएगा. कहने वाली बात नहीं कि इनमें से अधिकतर अब पायलट गुट के ही होंगे.’
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