राजस्थान भाजपा के अध्यक्ष सतीश पूनिया ने बीते मंगलवार को औपचारिक रूप से पदभार ग्रहण कर लिया. औपचारिक इसलिए क्योंकि उन्हें यह जिम्मेदारी 14 सितंबर को ही सौंप दी गई थी. पूनिया आमेर (जयपुर) से विधायक हैं. उनसे पहले मदन लाल सैनी पार्टी प्रदेशाध्यक्ष थे जिनका करीब ढाई महीने पहले निधन हो गया. तब से राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी बिना मुखिया के थी.
सतीश पूनिया को मिली यह जिम्मेदारी कई कारणों से चर्चाओं में रही है. अव्वल तो इसलिए कि चार दशक में भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान में पहली बार किसी जाट नेता को अध्यक्ष पद के लिए चुना है. जबकि जाटों को मूलत: कांग्रेस का वोट बैंक माना जाता रहा है और प्रदेश में भाजपा की छवि जाटों के प्रतिद्वंदी समुदाय राजपूतों की पार्टी के तौर पर स्थापित है. लेकिन अब सतीश पूनिया को संगठन की कमान सौंपकर भारतीय जनता पार्टी ने न सिर्फ़ जाट बल्कि पूरे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को भी साधने की कोशिश की है. मदनलाल सैनी भी इसी वर्ग से ताल्लुक रखते थे.
सतीश पूनिया को आगे लाकर भाजपा ने उस खालीपन को भी भरने की कोशिश की है जो पार्टी के दो प्रमुख जाट नेताओं - दिगंबर सिंह और सांवरलाल जाट - के निधन के बाद नज़र आने लगा था. इसके अलावा पूनिया की नियुक्ति को राजस्थान में कद्दावर जाट नेता हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (रालोप) के बढ़ते प्रभाव को भी कम करने से जोड़कर देेखा जा रहा है. यह बात और है कि लोकसभा में रालोपा भारतीय जनता पार्टी की ही सहयोगी है.
लेकिन सतीश पूनिया का प्रदेशाध्यक्ष बनना सबसे ज्यादा चर्चाओं में राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया की वजह से है. राजनीतिकारों का मानना है कि पूनिया की नियुक्ति राजे को प्रभावहीन करने की दिशा में बढ़ाया गया एक बड़ा कदम है. भाजपा से जुड़े सूत्रों की मानें तो विधानसभा चुनाव में पूनिया को टिकट राजे के कहने पर ही मिला था. लेकिन अब पूनिया का झुकाव अमित शाह की तरफ़ ज्यादा नज़र आता है. उड़ती-उड़ती खबर है कि बीते दो दशक में पहली बार प्रदेश संगठन से जुड़े किसी बड़े फैसले में राजे की बिलकुल भी नहीं सुनी गई. पूनिया के पदग्रहण समारोह में राजे के शामिल न होने से इस तरह की चर्चाएं फ़िर जोरों पर हैं.
दरअसल, वसुंधरा राजे सिंधिया का पिछला पूरा कार्यकाल (2013-18) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से तनातनी के बीच ही बीता. तब शायद ही ऐसी कोई छमाही गुज़री जब सियासी गलियारों में वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने की चर्चा ने जोर न पकड़ा हो. लेकिन विधायकों पर उनकी जबरदस्त पकड़ के चलते ऐसा नहीं किया जा सका. लेकिन बीते विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद उन्हें कमजोर करने में भाजपा हाईकमान ने कोई कसर नहीं छोड़ी है. इसकी शुरुआत वसुंधरा राजे को भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर की गई. जानकारों ने इसे उन्हें राजस्थान की राजनीति से दूर करने की कोशिश के तौर पर देखा.
इसके बाद प्रदेश के पूर्व गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया को नेता प्रतिपक्ष बना दिया गया जबकि कहा जा रहा था कि पूर्व मुख्यमंत्री खुद इस पद को संभालना चाहती थीं. कटारिया और राजे के संबंध सामान्य नहीं माने जाते. 2012 में जब राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में थी तब वसुंधरा राजे ने कटारिया की एक चुनावी यात्रा के विरोध में पार्टी छोड़ने तक की धमकी दे दी थी. नतीजतन उनको अपनी यात्रा स्थगित करनी पड़ी.
फिर इस लोकसभा चुनाव में भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने हनुमान बेनीवाल के साथ गठबंधन कर वसुंधरा राजे सिंधिया को असहज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सूबे में बेनीवाल की छवि घोर राजे विरोधी के तौर पर स्थापित है. बाद में केंद्रीय कैबिनेट में जिन गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुनराम मेघवाल और कैलाश चौधरी को शामिल किया गया, उन्हें भी राजे विरोधियों के तौर पर ही पहचाना जाता है. कुछ महीने पहले लोकसभा अध्यक्ष बनाए गए ओम बिरला से भी पूर्व मुख्यमंत्री की तनातनी की ख़बरें किसी से छिपी नहीं हैं.
लेकिन इस सब के बावजूद राजस्थान में ऐसे विश्लेषकों की कमी नहीं जो मानते हैं कि प्रदेश संगठन पर राजे की पकड़ अभी ढीली नहीं हुई है. सूत्र बताते हैं कि राजस्थान के कई नेता खुलकर पूनिया का स्वागत या समर्थन करने तक से झिझक रहे हैं. एक वरिष्ठ पत्रकार के मुताबिक पूनिया को नया पद मिलने पर पार्टी के कई वरिष्ठ नेता जयपुर में होने के बावजूद उन्हें बधाई देने नहीं पहुंचे थे. कहने वाले तो यह तक कहते हैं कि ख़ुद पूनिया को भी इस बात का अहसास है कि राजे को राजस्थान से हटा पाना इतना आसान नहीं. लिहाजा वे भी अपने लिए कोई रास्ता बंद नहीं करना चाहेंगे. पद ग्रहण करने के बाद पूनिया ने जो बयान दिए हैं उनसे भी यही इशारा मिलता है.
प्रदेश के एक वरिष्ठ पत्रकार का इस बारे में कहना है, ‘कार्यकर्ताओं का नेता होने में और जनता का नेता होने में बड़ा फ़र्क है. सतीश पूनिया जैसा युवा और ऊर्जावान नेता कार्यकर्ताओं को तो ख़ुद से जोड़ सकता है. लेकिन जनता वसुंधरा राजे से जुड़ाव रखती हैं. यही कारण है कि राजे के प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए पिछले बीस साल में की गई तमाम कोशिशें नाकाम रही हैं.’
बहरहाल, सतीश पूनिया और वसुंधरा राजे एक दूसरे को किस तरह प्रभावित करेंगे, यह तो वक़्त ही बताएगा. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि पूनिया के प्रदेशाध्यक्ष बनने से जो नेता सच में प्रभावित हुआ है जयपुर के राजनैतिक गलियारों में उसका ज़िक्र न की बराबर है. राजस्थान की जयपुर ग्रामीण सीट से लगातार दूसरी बार लोकसभा पहुंचने वाले राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को इस बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली. इसने कई राजनीतिकारों को चौंकाया. इसकी प्रमुख वजह थी कि पिछली मोदी सरकार के अधिकतर मंत्रियों का नाता किसी न किसी विवाद से जुड़ा ही रहा. लेकिन राज्यवर्धन सिंह राठौड़ के कार्यकाल को अपेक्षाकृत संतोषजनक माना गया. साथ ही वे अपने पूरे कार्यकाल में आलाकमान के सामने एक अनुशासित सिपाही की तरह ही पेश आए.
इसे देखते हुए जयपुर से लेकर दिल्ली तक यह संभावना जताई गई कि राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को प्रदेश संगठन में कोई बड़ी जिम्मेदारी मिलने वाली है. माना गया कि ऐसा होने पर राठौड़ वसुंधरा के लिए बड़ी चुनौती बन सकते थे. एक वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषक इस बारे में कहते हैं, ‘पूर्व मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत की वजह से राजस्थान में राजपूत मुख्यमंत्री की स्वीकार्यता आज भी महसूस की जा सकती है. ख़ुद राजे भी मराठा राजघराने से आने के बावजूद ख़ुद को राजपूत की बेटी बताकर ही राजस्थान में स्थापित हो पाई हैं. ऐसे में कइयों को राठौड़ की शक्ल में प्रदेश का भावी मुख्यमंत्री नज़र आने लगा था.’
विश्लेषकों ने तब ये तर्क भी दिए कि युवा होने की वजह से राज्यवर्धन सिंह राठौड़ कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट का बेहतर तोड़ साबित हो सकते हैं. दूसरे, वे फौज में कर्नल रहने के अलावा ओलंपिक खेलों में पदक जीतकर देश का नाम भी रोशन कर चुके हैं. उनकी ये उपलब्धियां और खासियतें भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस की राष्ट्रवादी विचारधारा से मेल खाने के साथ-साथ आमजन को भी खासा प्रभावित करती है. वहीं, वसुंधरा राजे सिंधिया भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पेर राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को अपने प्रतिद्वंदी के तौर पर ज़ाहिर करती रही हैं.
लेकिन अब इन कयासों पर हाल-फिलहाल विराम लग चुका है. विश्लेषकों की मानें तो अपनी इस स्थिति के लिए राठौड़ ख़ुद जिम्मेदार हैं. सूत्रों की मानें तो पिछले कार्यकाल में राज्यवर्धन सिंह राठौड से जुड़ा कोई विवाद तो सार्वजनिक नहीं हुआ, लेकिन उनके तौर-तरीकों से भाजपा के कई नेता और कार्यकर्ता काफी नाराज़ थे. इस बात की शिकायत कई बार प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी पहुंची थी. भारतीय जनता पार्टी से जुड़े एक वरिष्ठ कार्यकर्ता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘शायद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने यह बात भांप ली कि दोबारा कोई बड़ा पद मिलने पर राठौड़ का अहंकार उनसे कोई न कोई बड़ी ग़लती ज़रूर करवाएगा.’
राजस्थान के एक वरिष्ठ पत्रकार भी कुछ ऐसी ही बात दोहराते हैं. वे कहते हैं, ‘राठौड़ अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत से ही मीडिया में छाए रहे. फिर प्रसारण मंत्री बनने के बाद उनके बनाए लंबे-लंबे सेल्फी वीडियो तमाम न्यूज़ चैनलों में चलते दिखे. इनमें से अधिकतर लोकसभा चुनाव से पहले सामने आए.’ इससे पहले सर्जिकल स्ट्राइक के वीडियो पर अपने ग़ैरजिम्मेदाराना बयान की वजह से भी राठौड़ सुर्ख़ियों में शामिल रहे थे.
हालांकि राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को चाहने वाले यह नहीं मानते कि भाजपा शीर्ष नेतृत्व उनके नेता से नाख़ुश है. राठौड़ के एक समर्थक कहते हैं कि इस बार केंद्रीय कैबिनेट में राजस्थान से उचित संख्या में सांसदों को शामिल किया जा चुका है. लेकिन अगले मंत्रिमंडल विस्तार में राठौड़ का शामिल होना लगभग तय है. कुछ अन्य ऐसा होने में अभी दो-ढाई साल का समय मानते हैं. उनके मुताबिक पार्टी हाईकमान देर-सवेर केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को राजस्थान भेजकर कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंपेगा. राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को उसके बाद ही दिल्ली बुलाया जाएगा.
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