इस साल मई में अंग्रेज़ी अख़बार गार्डियन में छपी ख़बर ने बताया कि नॉर्थ वेल्स का एक तटीय गांव फेयरबॉर्न धीरे-धीरे समंदर में समा रहा है और यहां के निवासी ब्रिटेन के पहले क्लाइमेट रिफ्यूजी (जलवायु परिवर्तन से विस्थापित होने वाला समुदाय) बनेंगे. ग्लेशियर और ध्रुवों पर जमी बर्फ के साथ समंदर का जमा हुआ हिस्सा भी गल रहा है और इस वजह से उसका जल स्तर लगातार ऊपर उठ रहा है. चूंकि ब्रिटेन का यह गांव बढ़ते समुद्र और पहाड़ियों के बीच में बसा है इसलिए यहां के 850 निवासियों को अपने घर छोड़कर अब कहीं और जाना होगा.
जाहिर सी बात है कि यह संकट सिर्फ फेयरबॉर्न का नहीं पूरी दुनिया का है. बुधवार को रिलीज़ हुई आईपीसीसी की ताज़ा विशेष रिपोर्ट के मुताबिक धरती का तापमान जिस रफ्तार से बढ़ रहा है उस हिसाब से दुनिया में इस सदी के अंत तक कुल 140 करोड़ लोगों का अस्तित्व ख़तरे में पड़ जायेगा.
भारत के समुद्रतटीय इलाकों, खासतौर से पूर्वी तट पर बसे सुंदरवन टापुओं का हाल भी फेयरबॉन जैसा होना तय है. भारत और बांग्लादेश में करीब 20,000 वर्ग किलोमीटर में फैला सुंदरवन मैंग्रोव का घना जंगल है और यूनेस्को की विश्व धरोहरों में शामिल है. लेकिन यहां उफनते पानी की वजह से लोगों का विस्थापन शुरू हो चुका है और यह आगे रुकने के बजाय और रफ्तार पकड़ने वाला हैं.
आईपीसीसी की इस रिपोर्ट को 36 देशों के 100 विशेषज्ञों ने लिखा है और इसके लिये दुनिया भर के 7000 शोध पत्रों की मदद ली गई है. रिपोर्ट का यह निष्कर्ष है कि अगर धरती की तापमान वृद्धि दो डिग्री से कम भी रखी गई तो भी समुद्र की सतह में 30 से 60 सेंटीमीटर की बढ़ोतरी होना तय है.
भारत पर गहराता संकट
आईपीसीसी की वर्तमान रिपोर्ट एक साल के भीतर आई इसकी तीसरी बड़ी रिपोर्ट है. पहली विशेष रिपोर्ट ठीक एक साल पहले अक्टूबर 2018 में आई थी. इसमें बताया गया था कि सदी के अंत तक अगर धरती की तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री को पार कर गई तो उसके क्या परिणाम होंगे. उसके बाद दूसरी रिपोर्ट इसी साल अगस्त में आई जिसमें जलवायु परिवर्तन की वजह से ज़मीन पर पड़ रहे दबाव के बारे में बताया गया था और खेती के साथ खान-पान के तरीकों में बदलाव की सिफारिश की गई थी.
इन दो रिपोर्ट्स में भारत के लिहाज़ से पर्याप्त सबक हैं. चाहे वह सूखे, बाढ़ और चक्रवाती तूफ़ानों के रूप में बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं की चेतावनी हो या फिर खाद्य सुरक्षा के संकट के बारे में. लेकिन हम इन संकटों के बारे में जानते हुये भी अनजान सा दिखने की कोशिश कर रहे हैं.
मिसाल के तौर पर इस साल आर्थिक सर्वे ने बताया कि खेती-बाड़ी में पानी को बेहद किफायत के साथ उपयोग किया जाये. लेकिन वित्तमंत्री द्वारा पेश किये गये बजट में सूखे या उससे निपटने का ज़िक्र तक नहीं किया गया. हालांकि सरकार ने वादा किया है कि साल 2024 तक हर घर में नल से पानी पहुंचा दिया जायेगा लेकिन सिंचाई के लिये बजट अब भी केवल 9681 करोड़ रुपये ही रखा गया है. यह जल संकट को देखते हुये काफी कम है.
आर्थिक सर्वे में यह भी था कि कृषि में इस्तेमाल होने वाले पानी का 60 फीसदी गन्ना और धान जैसी फसलों पर खर्च हो जाता है. यानी पानी की कमी से निपटने के लिए भारत को अपनी कृषि के पैटर्न को भी बदलना होगा. सर्वे में चेतावनी दी गई है कि अगर हालात में बदलाव नहीं आया तो 2050 तक भारत में सूखे की मार दुनिया में सबसे अधिक होगी. उससे तीस साल पहले आज की बात करें तो आज हमारी कृषि विकास दर पिछले पांच सालों के निम्नतम स्तर पर है.
आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट के मायने
आईपीसीसी की नई रिपोर्ट के मुताबिक तापमान की बढ़ती रफ्तार को देखते हुये सदी के अंत तक समंदर का जलस्तर 1.1 मीटर ऊपर उठ जायेगा. पिछले 100 सालों में यह केवल 15 सेंटीमीटर ही बढ़ा है और अभी हर साल इसमें औसतन 3.6 मिलीमीटर की बढ़ोतरी हो रही है जो बहुत चिंताजनक है.
भारत में करीब 30 करोड़ लोग निवास और जीविका के लिये समुद्र और उसके आसपास के इलाकों पर निर्भर हैं. इसी तरह भारत में 24 करोड़ लोग ग्लेशियरों पर पड़ने वाले पर्यावरण के असर की मार झेलेंगे. यानी अगर धरती के तापमान को 1.5 डिग्री से नीचे नहीं रखा गया ( जो कि अब असंभव लगता है) तो भारत की करीब 50 करोड़ आबादी जलवायु परिवर्तन की मार झेलेगी. इसका एक मतलब यह भी है कि मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और सूरत जैसे शहरों के अलावा बीसियों अन्य शहर भी संकट की जद में हैं.
धरती के बढ़ते तापमान के कारण लंबे सूखे और फिर बाढ़ जैसी स्थिति पैदा होना सामान्य होता जा रहा है. इसी साल जुलाई के महीने तक जहां देश के अधिकांश हिस्सों में सूखा था वहीं फिर लगातार बरसात ने तबाही के हाल पैदा कर दिये. अभी विश्व मौसम संगठन की एक रिपोर्ट ने कहा है कि 2015 से 2019 के बीच के पांच साल मानव इतिहास में अब तक का सबसे गर्म समय रहा है और इस साल जुलाई का महीना धरती पर अब तक का सबसे गर्म महीना था. इसी का असर दिखा कि यूरोप के कई शहरों में इस बार गर्मियों का तापमान दिल्ली जैसा हो गया.
जलवायु परिवेर्तन का प्रभाव नदियों पर भी होगा और इसकी वजह से पानी की भारी किल्लत होने ही वाली है.
कैसे रुकेगी यह तबाही
दुनिया के सभी देशों को अपने कार्बन एमीशन तेज़ी से कम करने होंगे. सामान्य शब्दों में कोयला, तेल और गैस जैसे फॉसिल फ्यूल का इस्तेमाल बंद या बहुत कम करना होगा और जंगलों का क्षेत्रफल बढ़ाना होगा. साल 2030 तक पूरी दुनिया को कार्बन उत्सर्जन (एमीशन) में 2010 के मुकाबले 45% की कमी करनी होगी औऱ साल 2050 तक पूरी दुनिया को नेट कार्बन इमीशन ज़ीरो करना होगा. यानी उतना ही कार्बन अंतरिक्ष में छोड़ा जाये जितना जंगल और समुद्र जैसे प्राकृतिक सिंक सोख सकें.
मौजूदा हाल में यह नामुमिकन लगता है. चीन, अमेरिका और रूस के साथ भारत दुनिया के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जकों में है और कार्बन एमीशन कम करने की ज़िम्मेदारी भारत पर भी रहेगी.
देश की विकास दर का सीधा रिश्ता ग्लोबल वॉर्मिंग से भी है. क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों (बाढ़, सूखा, ओला वृष्टि, चक्रवाती तूफान) से लड़ने में सरकार के पैसे और संसाधनों की बरबादी होती है. एक अमेरिकी साइंस पत्रिका ने पिछले 50 सालों में (1961 – 2010) दुनिया के 165 देशों के तापमान के पैटर्न और उनकी जीडीपी का अध्ययन किया. शोध में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन के कारण अमीर देशों को फायदा हुआ और भारत जैसे ग़रीब देशों को हानि हुई.
शोध बताता है कि गरीब और विकासशील देशों की जीडीपी में इन 50 सालों में क्लाइमेट चेंज ने 17% से 31% की चोट पहुंचाई. रिसर्च में कहा गया है कि सामान्य परिस्थियां न होने के कारण (जलवायु परिवर्तन के असर से) आज भारत की जीडीपी 30% कम है.
खाद्य सुरक्षा और पोषण पर इस साल जुलाई में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट में कहा गया कि दुनिया में 82 करोड़ लोगों को हर रोज़ पर्याप्त भोजन नहीं मिलता या वह बिल्कुल भूखे रहते हैं. इनमें से 51 करोड़ प्रभावित एशिया में हैं. साफ है कि भुखमरी औऱ कुपोषण के शिकार सबसे अधिक लोग भारत में हैं और इसका संबंध देश की विकास दर से है.
डाउन टु अर्थ मैग्ज़ीन में साल 2016 में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की जीडीपी में कुपोषित वर्कफोर्स के कारण तीन लाख करोड़ तक की हानि होती है जो कि जीडीपी के 2.5% के बराबर है. चीन ने पिछले कुछ सालों में कुपोषण की वजह से जीडीपी को होने वाले नुकसान को 0.4 फीसदी तक सीमित कर दिया है.
इससे यह समझा जा सकता है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाकर अर्थव्यवस्था को बढ़ाने का बात करना सही नहीं है. और इसका भारत जैसे विकासशील देशों के लिए और भी ज्यादा महत्व है.
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