अपने छात्र जीवन में मुझे मार्क्स के समाजवाद में बड़ी दिलचस्पी हुआ करती थी. मैं यूरोप के किसी समाजवादी देश में कुछ समय रहकर देखना चाहता था कि वहां मार्क्स के सिद्धांतों को रोज़मर्रा के व्यावहारिक जीवन में किस प्रकार रूपांतरित किया गया है. 1967 में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान मुझे रेडियो मॉस्को के निमंत्रण पर दो सप्ताह तक सोवियत संघ की यात्रा करने का अवसर मिला. सोवियत संघ की यात्रा के साथ ही पू्र्वी जर्मनी के ‘रेडियो बर्लिन इंटरनैश्नल’ (आरबीआई) के निमंत्रण पर एक सप्ताह के लिए वहां भी गया. तब पहली बार बर्लिन दीवार भी देखी.
पूर्वी जर्मनी की सरकार ने, तत्कालीन पश्चिम बर्लिन को घेरते हुए, 1961 में बर्लिन दीवार बनायी थी. बनाई तो इसलिए थी कि पूर्वी जर्मन के नागरिक पश्चिम बर्लिन और वहां से तत्कालीन पश्चिम जर्मनी न भाग सकें. बताया यह जाता था कि पूंजीवादी पश्चिम जर्मनों द्वारा ‘जर्मन जनवादी गणतंत्र’ (जर्मन डेमोक्रैटिक रिपब्लिक/जीडीआर/ ज.ज.ग./पूर्वी जर्मनी) की लूट-खसोट, जासूसी और उसके लोगों के बीच झूठे प्रचार को रोकने के लिए ऐसा करना पड़ा.
अक्टूबर 1971 में पू्र्वी जर्मनी के ‘रेडियो बर्लिन इंटरनैश्नल’ ने भारत के लिए दिन में दो बार दैनिक हिंदी प्रसारण शुरू किया. मुझे भी प्रसारकों की टीम में शामिल किया गया. कुछ समय बाद मैं पूर्वी जर्मन विदेश मंत्रालय की ओर से एक मान्यता प्राप्त पत्रकार के तौर पर नवभारत टाइम्स, उस समय की साप्ताहिक पत्रिकाओं ‘धर्मयुग’ और ‘दिनमान’ के लिए लिखने भी लगा. समय के साथ जर्मन भाषा का मेरा ज्ञान बढ़ता गया. मैं पूर्वी जर्मन लोगों के साथ बातचीत में उनके अनकहे शब्दों को समझने लगा. पत्र-पत्रिकाओं में छपी पंक्तियों के बीच की अलिखित बातों को भी पढ़ने लगा.
भाषा और जनजीवन की मेरी बढ़ती हुई समझ के अनुपात में मेरी रिपोर्टें और लेख तल्ख होते गये. मुझे पूर्वी जर्मन गुप्तचर विभाग ‘स्टाज़ी’ की ओर से चेतावनियां भी मिलीं. पर मैं अपनी राह चलता रहा. नौबत यहां तक आयी कि 1978 में ‘रेडियो बर्लिन इंटरनैश्नल’ ने मेरी छुट्टी कर दी. सरकार की ओर से मुझे कहा गया कि मैं अब एक अवांछित व्यक्ति हूं, मुझे जाना होगा. पूर्वी बर्लिन में भारत के तत्कालीन राजदूत रॉय एक्सल ख़ान ने उस समय वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के पोलिट ब्यूरो में मीडिया के प्रभारी वेर्नर लाम्बेर्त्स से बात की, पर बात नहीं बनी. मेरी जिस रिपोर्ट को सबसे अधिक आपत्तिजनक पाया गया, वह साप्ताहिक दिनमान के 6-12 नवंबर 1977 के अंक में प्रकाशित हुई थी. वह पूर्वी जर्मन जनता की उस घुटन एवं कुढ़न की एक झलक देती है, जिसकी ठीक 12 साल बाद - 9 नवंबर 1989 को - पूर्वी जर्मन जनता द्वारा बर्लिन दीवार गिरा दिये जाने के रूप में परिणति हुई.
पूर्वी जर्मनी के एक अलग जर्मन देश बनने की 28वीं वर्षगांठ के समय वहां दिख रहे जन-असंतोष पर प्रकाश डालती इस रिपोर्ट का शीर्षक था ‘वर्षगांठ या वर्षों की गांठ.’ दिनमान के प्रधान संपादक, स्वर्गीय रघुवीर सहाय ने शीर्षक सहित अक्षरशः सब वैसा ही रहने दिया था, जैसा मैंने लिखा था और जिसे नीचे दिया गया है.
वर्षगांठ या वर्षों की गांठ
जर्मन जनवादी गणतंत्र का स्थापना दिवस 7 अक्टूबर को हर वर्ष यहां ‘बड़ी धूमधाम’ से मनाया जाता है. इस बार की 28वीं जयंती पर भी धूम और धाम की कमी नहीं थी. इस बार भी सरकारी प्रचार विभाग के कर्मचारियों की कृपा से राजधानी बर्लिन की सड़कें, हमेशा की ही तरह, कई दिनों पहले से ही राष्ट्रीय तिरंगे और मज़दूर वर्ग के लाल झंडे से सजकर बरासत में नहा रही थीं. पत्र-पत्रिकाओं में चौतरफा सफलताओं वाले आंकड़ों के पुल बांधे गये थे. हमेशा की तरह इस बार भी बर्लिन के केंद्र में स्थित अलेक्सांदर चौक और आसपास के खुले मंचों पर नाच-गाने हो रहे थे. मेले जैसा मजमा था. पर हमेशा से कुछ भिन्न इस बार मौसम देवता मज़दूर वर्ग पर विशेष कृपालु थे. उत्तरी ध्रुवीय ठंडी हवाओं की जगह दक्षिणी गर्म हवाएं चल रही थीं. धूप खिली हुई थी. हमेशा से भिन्न इस बार सैनिक परेड भी हुई. पिछले वर्षों में वह परंपरानुसार मई-दिवस को ही हुआ करती थी.
और भी कई भिन्नताएं थीं. बर्लिन की 365 मीटर ऊंची टेलीविज़न मीनार के सामने स्थित ‘गणतंत्र प्रासाद’ को, जिसका जून 1976 में उद्घाटन करते समय - उस समय पार्टी-प्रधान और अब राज्य-प्रमुख भी - श्री एरिश होनेकर ने कहा था कि ‘यह जनता का महल है,’ उस दिन जनता के लिए बंद कर दिया गया था. हर वर्ष पूरे अक्टूबर भर चलने वाले बर्लिन के सांस्कृतिक महोत्सव के अंतर्गत उस दिन ‘गणतंत्र प्रासाद’ में होने वाले भारतीय सितारवादन और वियतनामी लोककला मंडली के कार्यक्रमों को स्थगित कर दिया गया.

सुबह शीशमहल जैसे इस ‘गणतंत्र प्रासाद’ के सामने ही सैनिक परेड हुई. शाम को पांच हज़ार सीटों वाले उसके परिवर्तनीय मुख्य हॉल में पार्टी और सरकार के प्रमुख नेताओं तथा विदेशी कूटनीतिक प्रतिनिधियों, और राष्ट्रीय अलंकरणों से आभूषित कुछ विशेष लोगों के सम्मान में भोज समारोह का आयोजन किया गया. लगता है, दोनों आयोजनों का निर्णय जल्दबाज़ी में किया गया. केवल हफ्ते भर पहले ही यह घोषणा की गयी थी कि गणतंत्र दिवस के दिन ‘गणतंत्र प्रासाद’ जनता के लिए बंद रहेगा.
इस भोज समारोह में प्रधानमंत्री श्री विली श्टोफ़ ने कहा कि ‘हमारी जनता सोवियत जनता के साथ अटूट मैत्री में हमेशा के लिए बंध कर अत्यंत प्रसन्न है.’ ज.ज.ग. के ‘मज़दूर वर्ग की नयी सफलताओं’ और ‘महान सोवियत जनता के साथ ज.ज.ग. जनता की अटूट मैत्री’ के लिए उठे जामेसेहत के गिलास जब आपस में खनखना रहे थे, वहां से मुश्किल से दो सौ मीटर की ही दूरी पर, टेलीविज़न मीनार के ठीक नीचे, ‘रूसियो चले जाओ’ के नारों के बीच देश की ‘जन-पुलिस’ पर जनता बीयर की बोतलें बरसा रही थी. इस घटना में, जिसे कोई 16 घंटे बाद ज.ज.ग. की सरकारी समाचार एजेंसी ने अपने एक छोटे-से समाचार में ‘कुछ गुंडे-बदमाशों का उत्पात’ बताया, अपुष्ट समाचारों के अनुसार भारी संख्या में लोग घायल हुए.
कहते हैं कि दो पुलिस वाले मरणासन्न अवस्था में अस्पताल पहुंचे. (इसे संबद्ध अस्पताल के एक गुमनाम स्रोत ने स्वयं टेलीफ़ोन कर मुझे बताया.) 34 अन्य लोगों को भी अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. कुछ प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि इस दंगे में एक युवती घटनास्थल पर ही मर गयी. जैसा कि हमेशा होता है, ज.ज.ग. के प्रेस में इस घटना का केवल संक्षेप में उल्लेख मात्र किया गया, कोई विवरण नहीं दिये गये.
मैंने उस दिन अलेक्सांदर चौक और टेलीविज़न मीनार के आसपास अप्रयाशित भीड़ पायी. एक स्थान पर कुछ नौजवानों को पुलिस के साथ उलझते और उस पर फ़ब्तियां कसते देखा. मौसम अच्छा होने से अप्रत्याशित भीड़ किसी हद तक स्वाभाविक ही थी. पर, इस स्वाभाविकता में एक अस्वाभाविक बेचैनी की गंध बसी हुई थी. उसी समय मुझे आशंका हुई कि आज कुछ होकर रहेगा. कहते हैं कि पुलिस ने भी संभाव्य को ताड़ कर शाम छः बजे तक पानी की तोपों आदि भीड़ से लड़ने के साधनों से अपने आप को लैस कर लिया था. रात कोई साढ़े नौ बजे के आसपास भीड़ एक तरह से सिर्फ़ नौजवानों के मज़मे के रूप में ही रह गयी.
कहते है कि इसी समय एक पू्र्वप्रकाशित कार्यक्रम के अनुसार एक प्रसिद्ध पॉप गायक मंडली को टेलीविज़न मीनार के नीचे अपना कार्यक्रम देना था. पर, वह मंडली वहां पहुंची ही नहीं. इससे उसके चहेते बेताब होने लगे और उसे ले आने की मांग करने लगे. कुछ दूसरे लोगों का कहना है कि वह मंडली वहां उपस्थित थी, पर उसके गीत नौजवानों को बहुत उबाऊ लगने लगे. वे हो-हल्ला मचाने लगे. जो भी हो, इस बात पर सभी एकमत हैं कि वहां मौजूद नौजवानों के हो-हल्ले को दबाने के लिए पुलिस ने हस्तक्षेप किया. इससे नौजवानों की तल्ख़ी और भी बढ़ गयी. उनमें से कुछ ने, जो संभवतः कुछ नशे में थे, उन कवियों और बुद्धिजीवियों के बारे में एकजुटता के नारे लगाने शुरू कर दिये, जिन्हें पिछले कुछ महीनों या सप्ताहों में ज.ज.ग. से निकाल दिया गया है.
जिन लोगों के समर्थन में नारे लगे, उन्हीं में गायक और कवि वोल्फ़ बीयरमान, लेखिका और कवियत्री ज़ारा किर्श और रूडोल्फ बारो नाम के एक अर्थशास्त्री के नाम भी बताये जाते हैं. बारो की पुस्तक ‘यथार्थ अस्तित्वमान समाजवाद और उसका विकल्प’ के कारण उन्हें सितंबर के आरंभ में गिरफ्तार कर लिया गया था. इसी गहमागहमी में कुछ दुस्साहसिकों ने यह भी नारा लगा दियाः ‘रूसियों चले जाओ’, ‘रूसियों को निकाल दो.’
कहते हैं कि पुलिस ने इस अंतिम नारे के बाद रबड़ के डंडे चलाना और पानी की तोपों से भीड़ पर पानी छोड़ना शुरू कर दिया. भीड़ में भगदड़ मच गयी. इसी आपाधापी में कुछ लोग टेलीविज़न मीनार की नींव के पास की उन लोहे की जालियों पर जमा हो गये, जिनके नीचे मीनार का वातानुकूलन और वायु-नियंत्रण संयंत्र है. संभवतः बहुत अधिक बोझ के कारण एक जाली टूट गयी और कुछ लोग कई मीटर नीचे लगे यंत्रों आदि पर गिर गये. जब मौक़े पर तैनात कार्यकर्ता दुर्घटनाग्रस्त लोगों की सहायता के लिए वहां आये, तो नौजवानों की भीड़ ने उन्हें रोकने की कोशिश की और उन पर बीयर की बोतलें फेंकीं.

पुलिस के साथ भी यही हुआ. काफ़ी संख्या में पुलिसवाले घायल हुए. बड़ी कठिनाई से दुर्घटनाग्रस्त लोगों को बाहर निकाला जा सका. उनमें से एक की शायद इस दौरान मृत्यु हो चुकी थी. प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि पुलिस और नौजवानों के बीच यह छिटफुट लड़ाई मध्यरात्रि तक चलती रही. लगभग 700 नौजवानों को पुलिस ने अलेक्सांदर चौक के नीचे स्थित पदयात्री और भूमिगत रेल की सुरंगों में सारी रात रोके रखा और जवाब तलब किया. यह सारा क्षेत्र रात भर पुलिस के घेरे में रहा.
मध्यरात्रि से कुछ पहले ही किसी ने पश्चिम जर्मन टेलीविज़न ‘ए.आर.डी.’ के संवाददाता को ख़बर कर दी. वह तुरंत अपना कैमरा लेकर घटनास्थल पर पहुंचा. किंतु सादी पोशाक में पुलिस ने उसे चित्र आदि लेने से रोकने की कोशिश की. धमकी भी दी कि एक अन्य पश्चिम जर्मन संवाददाता की तरह उसे भी निकाल दिया जा सकता है. सादे कपड़ों में एक व्यक्ति ने उसका कैमरा छीन लेने की कोशिश की. खींचतान में उसका कैमरा गिर गया. उस संवाददाता के दुर्भाग्य से उसके कैमरे की फ़िल्म शायद खुल गयी. उसने इस ऐतिहासिक घटना के जो कुछ भी चित्र लिये थे, वे ‘एक्सपोज़’ हो गये (मिट गये). उसने उसी रात एक विरोधपत्र लिखा, जिसे लेने से उस रात ज.ज.ग. के विदेश मंत्रालय ने इनकार कर दिया. एक दिन बाद विदेश मंत्रालय ने केवल खेद प्रकट किया कि किसी व्यक्ति ने उस का कैमरा छीनने की कोशिश की थी.
पश्चिम जर्मनी और अन्य पश्चिमी देशों में इसे एक अप्रत्याशित घटना मान कर बड़ा महत्व दिया गया. पर बर्लिन में नियुक्त पश्चिमी संवाददाताओं की आम राय यही है कि यह घटना किसी नियोजित राजनैतिक विरोध की अभिव्यक्ति से अधिक ज.ज.ग. के नौजवानों में व्याप्त यहां के परम अनुशासित जीवन के प्रति उनकी लंबी ऊब का क्षणिक प्रदर्शन है. ज.ज.ग. के अधिकारी इसमें किसी जन-असंतोष को देखने के बदले इसे कुछ ‘’लंबे बालों वाले जीन्सधारी पॉप संस्कृति प्रेमी गुंडों-बदमाशों का उत्पात’’ भर मानते हैं.
पर इस तरह की घटनाओं को बहुत ज़्यादा समय तक गुंडागर्दी के नाम पर ही नहीं टाला जा सकता. सरकारी प्रचार इस बात को सिद्ध करने की चाहे जितनी कोशिश करे कि यहां अपराधवृत्ति बढ़ती पर नहीं है, क्योंकि पूंजीवादी देशों की तरह अपराधों के लिए यहां कोई उपजाऊ भूमि नहीं है. लेकिन स्वयं सरकारी अधिकारी भी निजी तौर पर अपराधों में वृद्धि और नौजवानों में बढ़ती हुई उद्दंडता पर चिंता प्रकट करते हैं. ज.ज.ग. में अपराध-समाचार प्रकाशित नहीं होते. न ही गंभीर अपराधों के बारे में कोई आंकड़े दिये जाते हैं. इसलिए इस तरह के समाचार केवल लोकमुख से ही सुनने में आते हैं.
उदाहरण के लिए, सुनने में आया था कि इस वर्ष पोट्सडाम के पास वेर्डर नामक स्थान पर वसंतोत्सव के समय, जिस में सभी विदेशी कूटनीतिज्ञ भी आमंत्रित थे, नौजवानों ने इतना उत्पात मचाया कि सामान्य पुलिस के अलावा ऐसे दूसरे बहुत से लोगों को भी ‘स्वतंत्र जर्मन युवक’ संघ की कमीज़ें पहना कर रात-रात भर वहां पहरा देने के लिए कहा गया, जो अन्यथा विश्वविद्यालय प्राध्यापक या किसी सरकारी विभाग में अधिकारी हैं.
इस वर्ष की गर्मियों में फ्रांकफुर्ट-ओडर में हुए एक जर्मन-पोलिश युवा महोत्सव के समय बहुत से नौजवानों को वहां जाने वाली ट्रेनों और बसों से रास्ते में ही उतार दिया गया, ताकि वे वहां कोई अप्रिय तमाशा नहीं कर पायें. फ़्राइबेर्ग नामक एक शहर में एक वाइन-महोत्सव के समय भी पुलिस और नौजवानों में झड़प होने की बात सुनने में आयी है.
तोड़फोड़, डकैती और सेंधमारी भी बढ़ती पर है. कुछ ही समय पहले बर्लिन के एक फ़ुटबॉल क्लब के प्रेमियों पर यहां के उच्च न्यायालय में एक मुकद्दमा चला. आरोप यही था कि वे हर खेल के बाद क़ानून और व्यवस्था के लिए ख़तरा बन जाते हैं. तोड़फोड़ करते हैं और जनतां में आतंक फैला देते हैं. ऐसे ही कुछ नौजवानों ने ड्रेस्डेन के एक बैंक में डाका डाल कर कई लाख की रकम लूट ली. कुछ ही समय बाद वहां के एक संग्रहालय में सेंध लगा कर कई लाख मार्क मूल्य के हीरे-जवाहरात के बने हुए कुछ पुराने आभूषण भी चुरा लिये गये.
बर्लिन में विदेशी मुद्रा में व्यापार करने वाली एक ‘इंटरशॉप’ की 32 हज़ार पश्चिम जर्मन मार्क के बराबर की नकदी बड़ी सफ़ाई से उड़ा ली गयी. चार आदमी, जो पुलिस की वर्दी में थे, पुलिस की कार में आये और कहा कि उन्हें पता चला है कि इस दूकान में कुछ जाली पश्चिम जर्मन नोट आ गये हैं. उन्होंने आदेश दिया कि सारी नकदी उनके हवाले कर दी जाये, ताकि विशेषज्ञ नकली नोट छांट सकें. इन सभी घटनाओं में अपराधियों का अभी तक पता नहीं चला है. यह हाल है ज.ज.ग. जैसे एक समाजवादी देश का.
युवाओं की बेचैनी को बड़ी आसानी से अनुशासनहीनता या उद्दंडता का नाम दिया जा सकता है, भले ही बेचैनी सिर्फ़ उन्हीं में नहीं है. सभी प्रेक्षक इस बात पर एकमत हैं कि इस समय ज.ज.ग. की जनता में अपूर्व क़िस्म की बेचैनी देखने में आ रही है. लोग वर्तमान राजनैतिक और आर्थिक स्थिति से असंतुष्ट प्रतीत होते हैं. अपना असंतोष सरलता से व्यक्त नहीं कर सकते, इसलिए उनमें अजीब-सी कुढ़न है. कारख़ानों में कागज़ी तौर पर उत्पादन तो खूब बढ़ रहा है, पर वास्तव में यदि घट नहीं रहा है, तो लगभग स्थिर ज़रूर हो गया है. कुछ लोग दबी ज़बान यह भी कह देते हैं कि ‘किस के लिए उत्पादन बढ़ायें, रूसियों के लिए?’ (मॉस्को के क्रेमलिन में उस समय कठोर हाथ वाले लेओनिद ब्रेज़नेव का राज था.)
सितंबर में ज.ज.ग. में कॉफ़ी की क़ीमत बढ़ा दी गयी. पुरानी अच्छी कॉफ़ी की जगह नयी पैकिंग में कुछ घटिया क़िस्म की कॉफ़ी बाज़ार में लायी गयी. उसमें असली कॉफ़ी कम और मिलावट ज़्यादा है. कुछ मनचले लोगों ने इस नयी कॉफ़ी को लोकभाषा में एक मनचला नाम भी दे दिया, ‘एरिश ताज.’ (यह पार्टी और सरकार में सर्वोच्च सत्ताधारी एरिश होनेकर पर एक कटाक्ष था.) अक्टूबर में सिगरेट का मूल्य भी अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ा दिया गया. बाद में इस सूची में और भी कई नाम शामिल होंगे.
26 सितंबर को ज.ज.ग. की सत्ताधारी ‘समाजवादी एकता पार्टी’ के महासचिव और राज्याध्यक्ष एरिश होनेकर ने पार्टी कार्यकर्ताओं के एक शिक्षण पाठ्यक्रम में एक बहुत ही ध्यानाकर्षक भाषण दिया. आरंभ में पश्चिम जर्मनी को बहुत सी बातों के लिए खरी-खोटी सुनाने की अनिवार्य शाब्दिक कसरत कर लेने के बाद उन्होंने कुछ स्वीकारोक्तियां अपने बारे में भी कीं. यद्यपि इस भाषण में भी पारंपरिक आत्मप्रशंसक घिसेपिटे नारों और विरोधाभासों की कमी नहीं थी, फिर भी उसमें कुछ नवीनताएं भी थीं. उन्होंने दबी ज़बान स्वीकार किया कि ज.ज.ग. की आर्थिक हालत इस समय बहुत अच्छी नहीं है. विदेश व्यापार में असंतुलन आ गया है. पिछले कुछ वर्षों में पूंजीवादी बाज़ारों में कच्चे माल की क़ीमत लगातार बढ़ते जाने से ‘1973 के बाद से हमें 14 अरब मार्क (उस समय लगभग 53 अरब रुपये) के बराबर अतिरिक्त विदेशी मुद्रा ख़र्च करनी पड़ी है.’
सोवियत संघ की भी एक तरह से अप्रत्यक्ष आलोचना करते हुए होनेकर ने कहा कि ‘पारस्परिक आर्थिक सहायता परिषद (यूरोपीय कम्युनिस्ट देशों का कोमेकॉन नामक साझा बाज़ार) के अंतर्गत भी कच्चे माल के मूल्य, बन कर तैयार वस्तुओं की तुलना में, कहीं ज़्यादा बढ़ गये.’ होनेकर के ही कथनानुसार, ज.ज.ग. का 70 प्रतिशत निर्यात समाजवादी देशों को और केवल 30 प्रतिशत ग़ैर-समाजवादी देशों को जाता है - अर्थात उसे अपने तैयार माल के लिए स्वयं अपने बंधु समाजवादी देशों से ही सही मूल्य नहीं मिलता.
इस असंतुलित आर्थिक स्थिति में कुछ कमी लाने के उद्देश्य से ही कुछ समय पूर्व तेल, कागज़ और हर तरह के प्रशासनिक ख़र्च में कमी करने के आदेश जारी किये गये. तेल की खपत में एक-चौथाई और प्रशासनिक ख़र्चों में कम से कम 15 प्रतिशत कमी करने का लक्ष्य रखा गया है. मज़े की बात यह है कि अब तक ज.ज.ग. के नेता बड़े गर्व की चोट कहते आ रहे थे कि हमारा 90 प्रतिशत तेल सोवियत संघ से आता है. उसकी क़ीमत लंबे समय के आधार पर सामूहिक तौर पर तय की जाती है - अर्थात तेल संकट हमारी समस्या नहीं है. किंतु अब श्री होनेकर अचानक स्वीकार करते हैं कि आयातित तेल छः गुना मंहगा हो गया है, इसलिए हमें तेल की खपत कम करनी है.
इस आदेश का निचले स्तर के आज्ञाकारी अधिकारियों ने किस अंधनिष्ठा से पालन किया, इसका उदाहरण देते हुए श्री होनेकर ने स्वयं इस भाषण में कहा कि ‘जनसेवा प्रतिष्ठानों या स्वास्थ्यसेवा संस्थानों के लिए ज़रूरी पेट्रोल भी उनसे छीन लिया गया और अवकाश शिविरों या बच्चों के लिए स्कूली खाने के पैसे में कटौती कर दी गयी.’ ज.ज.ग. में आंकड़ों का उत्पादन अधिक और चीज़ों का उत्पादन कम होता है. इसे प्रत्यक्ष रूप से स्वीकार करते हुए श्री होनेकर ने कहा, ‘ऐसे उद्यमों के प्रबंधक, जहां शासकीय योजना-लक्ष्य पूरे नहीं होते, इसका कारण दूसरों की गिरेबां में खोजते हैं... निश्चय ही हमें यथार्थवादी योजनाएं चाहियें. पर यथार्थवादी का अर्थ अपने ही क्षेत्र में कमियों के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व नहीं हो सकता.’
श्री होनेकर इन कमियों के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए भले ही तैयार नहीं, उनकी जनता के पास तो फ़िलहाल कोई दूसरा विकल्प ही नहीं है. बर्लिन जैसे बड़े शहरों में तो स्थिति फिर भी बहुत अच्छी है. ग्रामीण अंचलों में कई बार आवश्यक खाद्य पदार्थ भी ठीक से नहीं मिलते. कई बार तो किसी एक चीज़ का ढेर लग जाता है और कई बार हफ़्तों उसके दर्शन ही नहीं होते. जले पर नमक छिड़कना तो यह हुआ कि पिछले वर्षों में तथाकथित ‘मार्केट ह़ॉल’ (डिपार्टमेंट स्टोर) तो कम बने हैं, विदेशी मुद्रा वाली ‘इंटरशॉप’ दूकानें - जहां पश्चिम जर्मन मार्क या डॉलर के बदले रंगीन टेलीविज़न से लेकर मिर्च-मसाले तक सब कुछ ख़रीदा जा सकता है - कहीं ज़्यादा और देश के हर कोने में खोली गयी हैं.
इन दूकानों में केवल वही लोग ख़रीद सकते हैं, जिनके पास विदेशी मुद्रा हो. इसलिए वे लोग, जिनके पश्चिम जर्मनी में नाते-रिश्तेदार हैं और जिन्हें उनसे समय-समय पर पैसा मिला करता है, या वे लोग जो कालेबाज़ार में पैसा बदलते हैं, इन दूकानों में भीड़ लगाये रहते हैं. वे अपने आपको दूसरों से कुछ बड़ा समझते हैं. यह स्थिति कुछ लोगों के लिए इस हद तक असहनीय हो गयी है कि वे खुले आम कहने लगे हैं - हमारे वर्गहीन समाज में दो नये वर्ग बन गये हैं. एक वह, जिसके पास विदेशी मुद्रा है, और दूसरा वह, जिसके पास निगोड़ी देशी मुद्रा है. देशी मुद्रा वाला अपने ही देश में विदेशी बनता जा रहा है.
‘इंटरशॉप’ दूकानों के कारण केवल स्वदेशी मुद्रा वाले नागरिकों का असंतोष अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया होना चाहिये, वर्ना श्री होनेकर ड्रेस्डेन में यह कहते नहीं सुने जाते कि यह सच है कि वे लोग, जिनके पास विदेशी मुद्रा नहीं है, कुछ घाटे में पड़ गये हैं. तब भी अपनी दो समानांतर मुद्राओं वाली अर्थनीति का बचाव करते हुए उन्होंने कहा, ‘सभी जानते हैं कि हमारे यहां हर साल पूंजीवादी देशों से कोई 95 लाख पर्यटक आते हैं. वे यहां खाते-पीते और अधिकतर ठहरते भी हैं और उनकी जेबों में पैसा भी होता है. ‘इंटरशॉप’ दूकानें इसलिए हैं कि यह पैसा हमारे पास ही रह जाये.’
ऐसी स्थिति में दूसरे दर्जे का नागरिक बन जाने पर अपने देश की वर्षगांठ के दिन कुछ नौजवान अपने मन में दबी वर्षों की गांठ यदि खोल बैठें, तो आश्चर्य क्या!
6 नवंबर 1977 को दिनमान में पूर्वी जर्मनी को बौखला देने वाली इस रिपोर्ट के प्रकाशन के ठीक 12 साल बाद वहां की जनता ने न केवल बर्लिन दीवार गिरा दी, साल भर के भीतर पूर्वी जर्मनी का अस्तित्व भी मिट गया. 3 अक्टूबर 1990 के दिन जर्मनी का राजनैतिक एकीकरण पूरा हो गया. मैं इसकी कामना तो करता था, पर अपने जीवनकाल में इसे असंभव मानता था. बर्लिन में हुए एकीकरण के भव्य समारोह के समय मैं भी वहां था.
उसे संभव बनाने का सबसे अधिक श्रेय मैं तत्कालीन सोवियत नेता मिख़ाइल गोर्बाचेव को देता हूं. यूरोप के सभी कम्युनिस्ट देशों की दमित जनता के लिए वे एक दैवीय वरदान के समान थे. उनकी जगह यदि कोई दूसरा व्यक्ति क्रेमलिन में रहा होता, तो न तो बर्लिन दीवार गिरती और न जर्मनी का कभी एकीकरण होता. तब वही हुआ होता जो अगस्त 1968 में चेकोस्लोवाकिया में हुआ. वहां की तरह ही सोवियत टैंक सुधार या बदलाव के हर प्रयास को रौंद डालते. 1991 में स्वयं सोवियत संघ के भी बिखर जाने और देखते ही देखते यूरोप के सभी कम्युनिस्ट देशों में मार्क्सवाद की अर्थी उठ जाने तक यही रहा है मार्क्सवादी समाजवाद का असली चेहरा.
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