दिल्ली के कई इलाकों में बंदरों का आतंक पिछले दो दशकों में बढ़ता गया है. इस पर काबू पाने के लिये की गई सरकार की अब तक की कोशिशें नाकाम ही रही हैं. अगर यह समस्या सिर्फ आम आदमी को परेशान कर रही होती तो शायद सरकार इस पर ध्यान न देती. लेकिन बंदर तो बंदर हैं. वे आम और खास आदमियों में कोई भेद नहीं करते. इसलिए वीवीआईपी इलाका कहा जाने वाला लुटियन ज़ोन भी शुरू से वानर सेना के उतने ही निशाने पर रहा है.

पिछले महीने भाजपा सांसद राकेश सिन्हा को उनके नई दिल्ली स्थिति निवास पर बंदरों ने काट लिया. सिन्हा कहते हैं, ‘बंदरों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है. मुझे इस मंकी-बाइट के बाद पूरा एंटी रैबीज कोर्स करना पड़ा क्योंकि संक्रमण होने का ख़तरा था.’

अमृतसर से कांग्रेस सांसद गुरजीत सिंह औजला - जो संसद के निकट मीनाबाग कॉलोनी में रहते हैं - भी बंदरों से परेशान हैं. पूरे मीनाबाद में सांसदों ने अपने घरों को सींखचों से कवर किया हुआ है. लेकिन बंदर हैं कि मानते नहीं. कभी छत पर हंगामा करते हैं, कभी खिड़की पर टंगे एयरकंडीशनर पर चढ़कर कूदते हैं और कभी बाहर टंगे कपड़ों को फाड़ डालते हैं.

‘इनसे (बंदरों से) टकराने का कोई फायदा नहीं. अगर इन्हें भगाओ तो ये दुगनी संख्या में आ जाते हैं. मैंने पीडब्लूडी से शिकायत की और उनके कर्मचारी दीवारों पर कंटीले तार और प्लास्टिक की कील लगाकर गये लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. बंदर उन तारों पर भी आराम से चल लेते हैं.’ औजला कहते हैं.

दिल्ली में बंदरों का आतंक सांसदों, सरकारी कर्मचारियों और राहगीरों से लेकर अस्पतालों में आने वाले मरीज़ों और स्टाफ के अलावा रेहड़ी लगाने वाले दुकानदारों तक सभी को है. हालात किस तरह के हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल - 2018 - में दिल्ली में मंकी बाइट के 950 केस रिकॉर्ड किये गये.

बाड़ा हिन्दू राव अस्पताल के बाहर दुकान चलाने वाले 27 साल के राजू शर्मा दो बार बंदरों के शिकार हो चुके हैं. ‘बंदर यहां बेखौफ इधर-उधर घूमते हैं और उन्होंने यहां कई लोगों को काटा है. मरीज़ों की बात छोड़िये डॉक्टरों और नर्सों को भी काट चुके हैं. पिछले दिनों कुछ बंदर अस्पताल के रिकॉर्ड रूम में घुस गये और वहां जमकर हंगामा किया’ अपने हाथ में मंकी-बाइट का ताज़ा ज़ख्म दिखाते हुये राजू बताते हैं.

पिछले कई सालों से इस समस्या से जूझ रही दिल्ली सरकार ने अब नई रणनीति के तहत बंदरों की गिनती की योजना बनाई है. दिल्ली सरकार के एक अधिकारी कहते हैं कि यह गिनती देहरादून स्थित वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्लूआईआई) के साथ मिलकर की जायेगी और इससे राजधानी के अलग-अलग इलाकों में वानरों की संख्या और उनका व्यवहार जानने में मदद मिलेगी.

बंदरों को खाने-पीने की चीज़ें देने से उनका हौसला और बढ़ जाता है

दो दशकों से चल रहा है संघर्ष

दिल्ली में बंदरों से निपटने की कोशिश 90 के दशक से ही चल रही है. साल 2003 में दिल्ली सरकार ने बंदरों को पकड़ कर पहले उत्तर प्रदेश और फिर मध्य प्रदेश के जंगलों में भेजा था. लेकिन वे खाने की तलाश में जंगलों से भाग कर वहां के शहरी इलाकों में घुस गये. इसके बाद दोनों ही सरकारों ने दिल्ली के बंदरों से तौबा कर ली.

उसके बाद बंदरों को भगाने के लिये लंगूरों की मदद ली गई वे भी कब तक और कितने बंदरों को भगाते? फिर वन्यजीव कार्यकर्ताओं ने लंगूरों पर ज्यादती का सवाल भी उठा दिया. दिल्ली हाइकोर्ट के आदेश के बाद साल 2007 से एमसीडी ने बंदरों को दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर पर बनी असोला-भाटी वाइल्ड लाइफ सेंक्चुरी में भेजना शुरू किया.

बंदरों को कहीं भेजने से पहले उन्हें पकड़ना भी जरूरी था. इसके लिये पेशेवर बंदर पकड़ने वालों की मदद ली गई जिसमें लाखों रुपया खर्च हुआ. इस रिपोर्टर ने असोला भाटी वन्य जीव अभ्यारण्य जाकर एंट्री रजिस्टर चेक किया तो पता चला कि सितम्बर 2019 तक यहां कुल 21,871 बंदर पहुंचाये जा चुके हैं! सेंक्चुरी के कर्मचारियों का कहना है कि सरकार हर साल 1.2 करोड़ रुपये इन बंदरों के खाने-पीने पर खर्च कर रही है.

‘हर रोज़ करीब 2,500 किलोग्राम सब्ज़ी और फल यहां पर मौजूद वानरों के लिये लाये जाते हैं. इसमें केला, अमरूद, खीरा, टमाटर और भुट्टा शामिल है. वानरों की सेवा इसलिये ताकि वे यहां से निकल कर फिर वापस रिहायशी इलाकों में न चले जायें.’ असोला-भाटी अभ्यारण्य में काम कर रहे कर्मचारी केसर हमें बताते हैं.

बंदर क्यों गये इंसानों की बस्ती में?

लेकिन बात सिर्फ वानरों की नहीं है. तमाम राज्यों में कई वन्य जीव अब इंसानी बस्तियों का रुख कर रहे हैं और यह संघर्ष बढ़ता ही जा रहा है. जंगलों का लगातार खत्म होते जाना और वन विभाग द्वारा आर्थिक मुनाफे के लिये फलविहीन ‘मोनोकल्चर फॉरेस्ट’ लगाना इसकी एक बड़ी वजह है. ऐसे जंगल शाकाहारी वन्य जीवों के किसी काम के नहीं. इसके चलते मांसाहारी जानवरों और उनके शिकार के बीच का संतुलन भी गड़बड़ा गया है. इसलिये पहाड़ी राज्यों में तेंदुये और बाघ अब गांवों में अधिक आने लगे हैं.

वन्य और जैव विविधता के जानकार और दिल्ली स्थित द एनर्जी एंड रिसोर्सेज़ इंस्टिट्यूट (टैरी) में सीनियर फेलो योगेश गोखले कहते हैं, ‘हमने यह संकट पिछले कई दशकों में अपने हाथों से खड़ा किया है. उन जंगलों को खत्म कर जहां यह जीव रहते थे हमने उनका बसेरा उजाड़ दिया. वन विभाग जंगल में सिर्फ टिंबर उगाना चाहता है क्योंकि इससे उसे आर्थिक मुनाफा होता है. इसलिये बंदर शहरों में आ गये. हमारे शहरों में कचरा प्रबंधन इतना ख़राब है कि बंदरों को आसानी से बचा-खुचा खाना मिल रहा है. अब आप कुछ भी कीजिये बंदरों ने हमारे साथ रहना और जीना सीख लिया है और वे मस्त हैं.’

यह भी महत्वपूर्ण है कि वानरों के साथ हमारी धार्मिक आस्था जुड़ी होने से कई लोग उनकी पूजा करते हैं और इन्हें नियमित रूप से भोजन देते हैं. इससे उनका हौसला और बढ़ता है.

क्या बनेगा यह एक चुनावी मुद्दा?

यह बात थोड़ा हैरान करती है कि विधानसभा या लोकसभा चुनावों में बंदरों का उत्पात अभी तक दिल्ली में चुनावी मुद्दा नहीं बना है. जबकि इससे आम और खास सभी लोग प्रभावित होते हैं और इनसे निपटने में हर साल करोड़ों रुपया खर्च होता है.

‘बंदरों की समस्या तो ज़रूर है लेकिन यह दिक्कत कुछ इलाकों तक ही सीमित है और ये ज़्यादातर पॉश एरिया हैं.’ दक्षिण दिल्ली की ग्रेटर कैलाश सीट से आम आदमी पार्टी के विधायक सौरभ भारद्वाज कहते हैं. ‘मंकी-प्रॉब्लम कभी चुनावी मुद्दा नहीं बना लेकिन यह विधानसभा द्वारा बनाई गई एक महत्वपूर्ण कमेटी में चल रहा है और हम इसे हल करने की दिशा में काम कर रहे हैं’ भारद्वाज कहते हैं.

बंदरों से जूझना बना एक कारोबार!

दिल्ली के विधानसभा और सिविल लाइन इलाके में रवि कुमार बंदरों की समस्या से निपटने के लिये पूरी एजेंसी चलाते हैं. उनकी फर्म बंदर भगाने के लिये बाकायदा ‘ट्रेंड पेशवर’ मुहैया कराती है. रवि कुमार खुद लंगूर की आवाज़ निकाल कर बंदरों को भगाते हैं और उनके कर्मचारी भी इस काम में ट्रेंड हैं. दिल्ली सरकार ने भी उनकी सेवायें ली हैं. सरकारी भवनों और अस्पताल परिसर में अक्सर रवि और उनके साथी बंदर भगाने के लिये बुलाये जाते हैं.

‘पहले हम लंगूर की मदद से बंदर भगाते थे लेकिन वाइल्ड लाइफ एक्टिविस्ट कहते हैं कि यह लंगूरों पर अत्याचार है. अब हम खुद ही लंगूर की आवाज़ निकाल कर बंदरों को भगा रहे हैं’ रवि कुमार कहते हैं.

क्या नसबन्दी हो सकता है समाधान?

बंदरों की ही नहीं गायों से लेकर कुत्तों तक कई जानवरों की संख्या पिछले कुछ समय में तेज़ी से बढ़ी है. पहाड़ के रिहायशी इलाकों में रह रहे लोगों के अलावा किसान भी बंदरों से काफी परेशान हैं. कुछ जगह बंदरों को ज़हर देकर मारने की बात भी सामने आयी तो कहीं नसबन्दी को इस समस्या के हल के रूप में आजमाया जा चुका है.

हिमाचल प्रदेश में 2006 से बंदरों की संख्या पर काबू पाने के लिये एक नसबन्दी कार्यक्रम चलाया जा रहा है. राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इसके तहत अब तक 40,000 बंदरों की नसबन्दी की जा चुकी है. हिमाचल सरकार का दावा है कि 2004 और 2015 के बीच बंदरों की संख्या एक लाख कम हुई है. लेकिन सच यह है कि आम आदमी और किसानों को बंदरों के आतंक से तब भी राहत नहीं मिल पाई.

साल 2017 में वन्य जीव सुरक्षा क़ानून के तहत राज्य सरकार ने 10 ज़िलों में बंदरों को ‘वर्मिन (दुश्मन)’ घोषित कर दिया यानी अब उन्हें मारा जा सकता है. सरकार का कहना था कि वानर अब यहां इंसानी ज़िन्दगी और फ़सल के लिये ख़तरा बन गये हैं. हिमाचल सरकार कहती है कि अब तक उसने नसबन्दी केंद्र स्थापित करने में 7.7 करोड़ रुपया खर्च किया है. वन विभाग का दावा है कि ‘जब पर्याप्त संख्या में वानरों के ऑपरेशन हो जायेंगे तो नसबन्दी का असर दिखेगा और बंदरों की संख्या ज़रूर कम होगी.’

हालांकि वन्य जीव कार्यकर्ता इसे सिर्फ जनता के पैसे की बर्बादी मानते हैं और कहते हैं कि इससे समस्या और बढ़ी है. ‘हिमाचल सरकार का फिज़ूल का कार्यक्रम अब तक लोगों के कम से कम 30 करोड़ रुपये बर्बाद करवा चुका है. सच तो यह है कि इन इलाकों में अब बंदर और आक्रामक हो गये हैं और सरकार को बंदरों को वर्मिन घोषित करना पड़ा है’ बीजेपी नेता और पूर्व मंत्री मेनका गांधी द्वारा संचालित पीपुल फॉर एनिमल (पीएफए) की ट्रस्टी गौरी मौलेखी कहती हैं.

अब केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय ने एक कार्यक्रम चलाया है जिसके तहत नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ इम्युनोलॉजी (एनआईआई), वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (डब्लूआईआई) के साथ मिलकर एक गर्भनिरोधक विकसित कर रहा है. इसे इंजेक्शन के ज़रिये दिया जायेगा और इससे मादायें बच्चे पैदा नहीं कर पायेंगी. दुनिया के दूसरे देशों में हाथियों, जंगली सुअरों और नीलगाय जैसे जानवरों की संख्या में काबू के लिये इस तकनीक का इस्तेमाल किया जा चुका है.

‘बंदरों को उठाकर कहीं फेंक देना समस्या का स्थाई हल नहीं है. हालांकि दिल्ली में बंदरों को हाइकोर्ट के आदेश के बाद असोला-भाटी (अभ्यारण्य) में भेजा जा रहा है. लेकिन यह कामचलाऊ हल है जब तक कि हम यह गर्भ निरोधक तैयार नहीं कर लेते. यह दुनिया भर में कई वन्य जीवों पर इस्तेमाल हो चुका है. यह एकमात्र उपाय दिखता है जो हालात को बिना और बिगाड़े बंदरों की संख्या पर काबू करेगा’ मौलेखी कहती हैं.


हृदयेश जोशी पत्रकार हैं और राजनीति के साथ पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर लिखते हैं.