तारीख थी 9 मई 1532. अचानक जोधपुर के राजमहल में चीख-पुकार मच गई. हर तरफ़ महाराज यानी राव गांगा के ऊपरी मंजिल से नीचे गिर जाने का कोलाहल था. इस हादसे ने सभी को स्तब्ध कर दिया. राजपरिवार के करीबियों को संदेह था कि राव गांगा झरोखे से खुद नहीं गिरे थे बल्कि इसमें कुंवर मालदेव का हाथ था. राव की अंत्येष्टि से कुंवर की अनुपस्थिति इस संदेह को यकीन में बदल रही थी. मालदेव का राज्याभिषेक सोजत के किले में हुआ और जोधपुर के नए राजा को करीब एक साल तक वहां से बाहर रहना पड़ा.

राव गांगा बेहद सरल व संतोषी स्वभाव के माने जाते थे, लेकिन मालदेव इसके बिलकुल उलट बेहद उग्र और महत्वाकांक्षी. इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा (1836-1947) ने अपनी किताब ‘जोधपुर राज्य का इतिहास’ में लिखा है कि राव बनते ही मालदेव ने अपनी रियासत की सीमाओं को बढ़ाना शुरु कर दिया. गद्दीनशीन होने के दस साल के भीतर ही उन्होंने नागौर, जालौर, सिरोही, सिवाना, टोंक, मेड़ता और अजमेर पर कब्जा कर लिया.

साम्राज्य विस्तार के दौरान राव मालदेव ने अपने ही कुटुंबियों की रियासत बीकानेर को भी नहीं बख़्शा. तब बीकानेर का शासन राव जैतसी के हाथ में था. एक ही परिवार के होने की वजह से राव जैतसी और राव गांगा ने कई मौकों पर एक-दूसरे की मदद की थी. लेकिन मालदेव ने इसका लिहाज न करते हुए पाहेबा के युद्ध (1541) में जैतसी की हत्या कर बीकानेर को भी हथिया लिया.

इधर राजपूताने (राजस्थान) में मालदेव की शक्ति तेजी से बढ़ रही थी, और उधर दिल्ली एक नए इतिहास की गवाह बनने जा रही थी. दिसंबर, 1530 में बाबर की मौत के बाद हिंदुस्तान की गद्दी के कई ख्वाहिशमंद पैदा हो गए थे. उन्हें लगता था कि दूसरा मुग़ल हुमायूं उतना काबिल न था. संभावित हुक्मरानों की इस दौड़ में सूर का पठान फरीद शाह यानी शेर शाह सूरी सबसे आगे था. नतीजतन हुमायूं और शेरशाह के बीच पहले 1537 में चौसा (उत्तरप्रदेश) और फ़िर 1540 में कन्नौज में जंग छिड़ी. इन दोनों में ही हुमायूं को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा था. उसके हाथ से दिल्ली का तख़्त फिसल चुका था.

यही वह पहला मौका था जब दिल्ली की सियासत ने मालदेव के दर पर दस्तक दी. कुछ समय पहले तक पूरे हिंदुस्तान की सल्तनत का मालिक रहा हुमायूं जब बचते-बचाते राजस्थान से गुज़र रहा था तब उसने अपने तीन दूत - मीर समन्दर, रायमल सोनी और शमसुद्दीन अत्काखां - को मालदेव के पास मदद की गुहार लेकर भेजा. लेकिन उसके हाथ निराशा ही लगी.

मालदेव की तरफ़ से हुमायूं को मदद न मिलने के पीछे विश्लेषकों के अलग-अलग मत हैं. ईस्ट-इंडिया कंपनी के राजनयिक रहे कर्नल जेम्स टॉड (1829) ने अपनी किताब ‘एनल्स एंड एंटीक्विटीज़ ऑफ राजस्थान’ में इस बारे में लिखा है कि ‘बयाना के युद्ध (1527) में राव मालदेव का एक बेटा रायमल, राणा सांगा की तरफ़ से बाबर से युद्ध करने गया और वहां मारा गया. मालदेव उस पुत्र शोक को नहीं भूला था.’ कर्नल टॉड आगे लिखते हैं, ‘कन्नौज रियासत के पतन की वजह से भी मालदेव मुसलमानों से नफ़रत करता था. इसलिए भी उसने हुमायूं को अपने यहां शरण नहीं दी.’

कर्नल जेम्स टॉड के मुताबिक मारवाड़ के राठौड़ कन्नौज के शासक जयचंद गहड़वाल के वंशज थे. इस बात का समर्थन जोधपुर से ताल्लुक रखने वाले इतिहासकार मुहणौत नैणसी (1520-70) की ख्यात (वंशावली के आधार पर इतिहास लेखन) और चंदबरदाई द्वारा रचित पृथ्वीरास रासो में भी मिलता है. 1192 में चौहान शासक पृथ्वीराज को हराने के अगले ही वर्ष शहाबुद्दीन ग़ौरी की सेनाओं ने जयचंद पर भी हमला बोल दिया. इसमें वह मारा गया. तब जयचंद के भाई-भतीजों ने जान बचाकर मरु प्रदेश में आश्रय लिया था.

लेकिन अन्य इतिहासकार इस विषय में कर्नल टॉड से बिल्कुल अलग राय रखते हैं. अकबरकालीन इतिहासकार निजामुद्दीन अहमद ने ‘तबकात-ए-अकबरी’ में इस बारे में लिखा है कि हुमायूं की हार के बाद मालदेव ने उसे सहायता के प्रस्ताव से जुड़े ख़त लिखे थे. उस दौरान शेरशाह बंगाल पर चढ़ाई करने गया हुआ था और हुमायूं अन्य शासकों की मदद से कुछ छोटी रियासतों को फतह करने के फेर में उलझा था. इसलिए उसने मालदेव के पत्रों पर ध्यान नहीं दिया. जब बाद में हुमांयू मालदेव की शरण में पहुंचा तब तक उसका मन बदल चुका था.

निजामुद्दीन लिखते हैं कि ‘...इसी बीच शेरशाह ने एक दूत के हाथों मालदेव को अशर्फियां भिजवाईं, जिनके बदले में मालदेव ने हुमांयू को पकड़कर उसे सौंप देने का वायदा किया. इस साजिश का आभास होने पर अत्काखां ने हुमायूं को आगाह कर दिया.’ ‘हुमायूंनामा’ और ‘अकबरनामा’ के मुताबिक राजस्थान से भागते हुए हुमांयू पर मालदेव की सेना ने हमला भी किया था, जिसमें हुमांयू बच निकला. गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार हुमायूं के कमजोर होने और शेरशाह की बढ़ती ताकत को देखकर ही मालदेव ने हुमायूं को शरण देने का अपना निर्णय बदला था.

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मालदेव अगर तब हुमाय़ूं का साथ दे देता तो इससे मुग़लों के साथ उसका बिल्कुल अलग तरह का संबंध स्थापित हो जाता जिसका असर पूरे राजपूताने यानी राजस्थान पर पड़ता. इसके चलते आने वाले समय में राजपूतों का ओहदा हमेशा ऊपर रहता. कयास तो ये तक लगाए जाते हैं कि यह बात करीब साठ साल बाद हिंदुस्तान में अंग्रेजों के आगमन पर भी प्रभाव डालती और आज शायद एक अलग ही भारत की तस्वीर हमारे सामने होती!

बहरहाल, हुमांयू के बाद हिंदुस्तान में बचे मालदेव और शेरशाह. दोनों ही जबरदस्त महत्वाकांक्षी थे. लिहाजा दोनों के राज्यों की सीमाएं और तलवारें कब तक नहीं टकराती! मालदेव से हारने के बाद बीकानेर के राव जैतसी के बेटे कल्याणमल और नागौर के वीरमदेव शेरशाह से मदद मांगने के लिए दिल्ली पहुंचे. उन दोनों ने बादशाह को यकीन दिलाया कि उनकी मदद से वह मारवाड़ को हथियाने में कामयाब हो जाएगा. लिहाजा शेरशाह अपनी फौज लेकर मारवाड़ की तरफ़ चल पड़ा. इधर मालदेव भी अपनी सेना के साथ शेरशाह के मुकाबले के लिए निकल गया. यह दूसरा मौका था जब मालदेव न सिर्फ़ राजपूत समुदाय और राजस्थान बल्कि पूरे हिंदुस्तान की किस्मत को बदल सकता था.

दोनों सेनाएं महीने भर तक अजमेर के पास जैतारण में पड़ाव डालकर पड़ी रही, लेकिन जंग नहीं हुई. कुछ इतिहासकारों के मुताबिक मालदेव की ताकत देखकर शेरशाह वहां से लौट जाना चाहता था. लेकिन सुरक्षित स्थान को छोड़ने में भी कम ख़तरा नहीं था. इस कशमकश की स्थिति में शेरशाह ने एक चाल चली. इतिहासकार अब्बास ख़ां सरवानी अपनी किताब ‘तारीख़-ए-शेरशाही’ में लिखते हैं कि शेरशाह ने मारवाड़ी भाषा में लिखे कुछ जाली ख़त मालदेव की छावनी में डलवा दिए. ये ख़त राजपूत सरदारों की तरफ़ से शेरशाह के नाम लिखे गए थे, जिनका लब्बोलुआब था, ‘बादशाह को अपनी जीत को लेकर संदेह करने की ज़रूरत नहीं है. युद्ध में हम राव को बंदी बनाकर आपके हवाले कर देंगे.’

इतिहास में यह ज़िक्र भी मिलता है कि शेरशाह की मदद करते हुए वीरमदेव ने कुछ ढालों में बादशाह के नाम की एक-एक हजार मोहरें और फारसी में लिखे रुक्के सिलवा दिए. किसी व्यापारी के हाथों ये ढालें राजपूत सरदारों के बीच कौड़ियों के भाव बिकवा दी गईं जो मोहर वाली बात से पूरी तरह अनजान थे. फ़िर मालदेव को सूचना भिजवाई गई कि उसके सरदार बिक चुके हैं, भरोसा न हो तो ढालों की गद्दियां उधड़वा कर देख लो. स्वभाव से शक्की मालदेव ने ऐसा ही किया और उसे बादशाह की मोहरें और ख़त मिल गए.

दो राजपूत सरदारों जैता व कुंपा को शेरशाह की इस चाल का भान हो गया था. उन्होंने मालदेव को समझाने की हरसंभव कोशिश की. लेकिन राव ने उनकी एक न सुनी और जैतारण से रातों-रात ही अपनी सेना को लेकर जोधपुर लौट गया. ख़ुद पर लगे विश्वासघात के आरोपों से आहत जैता व कुंपा के साथ महावीर राव खीवकरण, राव पांचायण और राव अखैराज ने अपनी-अपनी टुकड़ियों के साथ वहीं रुककर युद्ध करने की ठानी. इन सरदारों ने अपने पंद्रह हजार सैनिकों के साथ शेरशाह की अस्सी हजार से ज्यादा की फौज़ से 4 जनवरी 1544 की सुबह सुमेल नदी के किनारे मुठभेड़ की. इतिहास में यह युद्ध गिरी-सुमेल के नाम से प्रसिद्ध है.

इस युद्ध का उदाहरण अक्सर उस प्रश्नचिह्न के जवाब में दिया जाता है जो राजपूतों की वीरता पर लगाया जाता रहा है. ‘तारीख़-ए-शेरशाही’ में ज़िक्र मिलता है कि संख्या में चौथाई से भी कम होने के बावजूद राजूपत दिल्ली की सेना पर इक्कीस साबित हुए थे, इसे देखते हुए एक अफ़गान सेनापति ने शेरशाह को मैदान छोड़ने तक की सलाह दे डाली थी. लेकिन ऐन मौके पर सेनापति जलालख़ां जलवानी एक टुकड़ी लेकर वहां पहुंच गया और शेरशाह जैसे-तैसे फतह हासिल करने में सफल रहा. इस युद्ध में शेरशाह की क्या स्थिति हुई यह बात उसके इस कथन से समझी जा सकती है कि ‘खैर करो, वरना मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिंदुस्तान की बादशाहत खो देता.’

गौरीशंकर हीराचंद ओझा लिखते हैं कि ‘मालदेव अपनी शंकाशीलता के कारण ही गिरी-सुमेल के युद्ध में शेरशाह को परास्त नहीं कर सका. यदि मालदेव में राजनीतिक योग्यता की कमी न होती तो वह भारत में हिंदू राज्य की स्थापना कर सकता था.’

गिरी-सुमेल में अपने राजा की भूल की वजह से हुई कई प्रमुख राजपूत सरदारों और सैनिकों की मौत से बचे हुए राजपूतों में निराशा घर कर गई. बाद में शेरशाह ने जोधपुर पर हमला बोलकर उस पर कब्जा कर लिया. हालांकि 1545 में शेरशाह की अचानक मौत के बाद मालदेव फ़िर से जोधपुर हासिल करने में सफल रहा. लेकिन फ़िर मारवाड़ को उसका पुराना वैभव फिर कभी वापिस नहीं मिल पाया.

मालदेव के निधन के बाद हुमायूं के बेटे अकबर ने जोधपुर को अपने कब्जे में ले लिया और मालदेव के पुत्रों को बादशाह के आश्रय में रहना पड़ा. हालांकि मालदेव के एक पुत्र चंद्रसेन ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया. इसलिए ही चंद्रसेन को राजस्थान में महाराणा प्रताप का अग्रज और मारवाड़ का ‘प्रताप’ जैसी उपाधियों से सम्मानित किया जाता है. किस्सा लंबा है, इसलिए कभी और…