राजधानी दिल्ली समेत उत्तर भारत के कई हिस्सों में वायु प्रदूषण हानिकारक स्तर पर है. इससे निपटने के लिए आपातकालीन कदम उठाये जा रहे हैं और इनके तहत स्कूलों को बंद करने के साथ-साथ ऑड-ईवन कार स्कीम की अवधि भी बढ़ायी जा रही है. लेकिन दुनिया के सबसे जाने-माने मेडिकल जर्नल लांसेट से जुड़े संगठन लांसेट काउंटडाउन की ताजा रिपोर्ट - जो इस लेख को लिखे जाने तक प्रकाशित नहीं हुई है - इससे कहीं बड़े ख़तरों के बारे में हमें आगाह करती है.

यह रिपोर्ट दुनिया के हर महाद्वीप के 35 प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों और संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों के निष्कर्षों और आम सहमति को दुनिया के सामने रखती है. इसके ताजा संस्करण में क्लाइमेट चेंज, जंगल की आग और लू (हीटवेव) के कारण पूरी दुनिया पर छाये संकट की बात की गई है.

भारतीय समय के अनुसार गुरुवार अल-सुबह रिलीज होने जा रही इस रिपोर्ट में स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के 41 संकेतकों (इंडिकेटर्स) के आधार पर कहा गया है कि ग्लोबल वॉर्मिंग का सबसे बड़ा असर हमारे बच्चों और बुजुर्गों पर पड़ने जा रहा है.

लांसेट काउंटडाउन - 2019 के मुताबिक जैसे-जैसे धरती का तापमान बढ़ेगा दुनिया में नवजात शिशु इसका सबसे बड़ा शिकार होंगे. क्लाइमेट चेंज से लगातार बढ़ रही खाद्य असुरक्षा और महंगे होते अनाज के कारण छोटे-छोटे बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं. पूरी दुनिया में 1960 के बाद से लगातार अनाज का उत्पादन प्रभावित होता गया है और भारत में भी मक्का और चावल की पैदावार दो प्रतिशत घटी है. यह महत्वपूर्ण है कि हमारे देश में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में होने वाली ज़्यादातर बीमारियों और उनकी दो-तिहाई मौतों के लिये कुपोषण ही ज़िम्मेदार है.

भारत के नज़रिये से 2019 की रिपोर्ट यह भी कहती है कि आने वाले दिनों में जलवायु परिवर्तन के कारण बच्चों के ऊपर संक्रामक बीमारियों के सबसे अधिक हमले होंगे. क्योंकि इसकी वजह से पानी में पैदा होने और पनपने वाले जीवाणुओं (वाइब्रियो कॉलेरी) के लिये आदर्श परिस्थितियां बनेंगी. इसके चलते हैजा जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ेगा. भारत में अस्सी के दशक से हैजा के संक्रमण में प्रतिवर्ष तीन फीसदी की बढ़ोतरी हो रही है.

खतरे का अंदाज़ा इसी बात से भी लगाया जा सकता है कि पिछले 30 सालों में, पूरी दुनिया में डायरिया फैलाने वाले जीवाणुओं के लिये माकूल दिनों की संख्या दोगुनी हो गई है. यही बात हैजा और दूसरी संक्रामक बीमारियों के लिये भी कही जा सकती है. लांसेट काउंटडाउन रिपोर्ट के मुताबिक जिन देशों में हैजा जैसी बीमारियां निरंतर नहीं होतीं, आने वाले दिनों में वहां भी इसका प्रकोप बढ़ने की आशंका है. ज़ाहिर तौर पर नवजात शिशुओं और बच्चों पर ऐसे हालात की सबसे अधिक मार पड़ेगी.

‘बदलती जलवायु का सबसे अधिक ख़तरा बच्चों को ही होता है. उनका शरीर और इम्यून सिस्टम बीमारियों से लड़ने के लिये पूरी तरह से तैयार नहीं होता. इसकी वजह से पर्यावरण में मौजूद प्रदूषण और बीमारियों के प्रति वे अधिक संवेदनशील होते हैं’ लांसेट काउंटडाउन के कार्यकारी निदेशक डॉ निक वॉट्स कहते हैं.

लांसेट काउंटडाउन की रिपोर्ट बताती है कि अगर हालात नहीं सुधरे तो आज पैदा होने वाले बच्चे अपनी किशोरावस्था से युवावस्था तक सिर्फ ज़हरीली हवा में ही सांस लेंगे. इससे उनमें फेफड़ों और दिल की बीमारियां बढ़ेंगी. डॉ निक के मुताबिक बचपन में शरीर को हुआ नुकसान आगे भी परेशान करता रहता है और जीवन भर कई परेशानियों का कारण बनता है. निक कहते हैं. ‘जब तक सभी देश मिलकर कदम नहीं उठाते और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को नहीं रोकते स्वास्थ्य को बेहतर करने की कोशिशें बेकार होंगी और क्लाइमेट चेंज के कारण एक पूरी पीढ़ी की सेहत खराब होगी.’

लांसेट की यह रिपोर्ट ऐसे वक्त में आई है जब दिल्ली में प्रदूषण का स्तर एक बार फिर बढ़ गया है. विभिन्न शोधकर्ताओं के मुताबिक अभी दिल्ली की हवा में सांस लेना हर रोज़ 40 से 50 सिगरेट पीने जैसा है. डाक्टरों का कहना है कि इन दिनों प्रदूषण के उच्चतम स्तर के कारण अधिक से अधिक मरीज़ अब आईसीयू में भर्ती किये जा रहे हैं. प्रदूषण केवल हृदय या फेफड़ों पर ही नहीं आपके गुर्दे, किडनी, दिमाग और शरीर के किसी भी हिस्से पर हमला कर रहा है.

देश के बाकी हिस्सों के हालात भी अच्छे नहीं हैं. जिस तरह से कार्बन छोड़ने वाले फॉसिल फ्यूल (कोयला, तेल और गैस) का इस्तेमाल, गाड़ियों, बिजलीघरों और जेनरेटर चलाने के लिये हो रहा है उससे ग्लोबल वॉर्मिंग के साथ हवा में ज़हर बढ़ना लाजिमी है. लांसेट काउंटडाउन - 2019 में कहा गया है कि 2016 से 2018 के बीच जहां पूरी दुनिया में फॉसिल फ्यूल का प्रयोग 2.6 फासदी बढ़ा वहीं भारत में कोयले से मिलने वाली बिजली 11 फीसदी बढ़ गई. इसका नतीजा यह हुआ पीएम 2.5 जैसे ख़तरनाक कणों के कारण 2016 में हमारे यहां 5.3 लाख लोगों की मौत हुई.

कार्बन छोड़ने वाले ईंधन का इस्तेमाल हमारे विनाश का कारण है. आज दुनिया भर में 1.71 लाख किलो कोयला हर सेकेंड जलाया जा रहा है. इसी तरह 1.16 करोड़ लीटर गैस और 1.86 लाख लीटर तेल प्रति सेकंड ईंधन के रूप में इस्तेमाल हो रहा है. ज़ाहिर है इन हालात में ग्लोबल वॉर्मिंग और उसके कारण मौसम में चरम बदलाव दिख रहे हैं. लांसेट रिपोर्ट के मुताबिक इससे खाद्य सुरक्षा पर संकट और भी गहरा होता जाएगा. खासकर भारत जैसे विकासशील देशों पर.

अपनी भौगोलिक स्थित के कारण भारत पर क्लाइमेट चेंज का ख़तरा कई अन्य देशों से वैसे भी अधिक है. 2017 में हुए एक अध्ययन में भारत को क्लाइमेट चेंज के ख़तरे के लिहाज़ से दुनिया का छठा सबसे अधिक संकटग्रस्त देश बताया गया था. इसी साल जनवरी में एचएसबीसी की एक रिपोर्ट में भी कहा गया कि 67 देशों में भारत की इकॉनोमी को जलवायु परिवर्तन से सबसे बड़ा ख़तरा है.

इससे समझा जा सकता है कि हम किस मुहाने पर खड़े हैं और लांसेट काउंटडाउन की ताज़ा रिपोर्ट हमें इसी कड़वी सच्चाई को याद दिला रही है.