देश में गहराती मंदी और उससे निपटने के उपाय पर चर्चा के बीच पिछले दिनों केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय( सीएसओ) के आंकड़े आए. इन आंकड़ों के मुताबिक नवंबर में खुदरा महंगाई 5.54 फीसद पर पहुंच गई जो पिछले तीन सालों में सबसे ज्यादा है. महंगाई बढ़ने में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी खाद्य पदार्थों की है. खाद्य महंगाई दर नवंबर में दस फीसदी से ऊपर थी जो बता रही है कि खाने-पीने की चीजों की कीमत इस समय बीते छह सालों में सबसे ज्यादा है. इस महंगाई पर मौसम का असर तो है, लेकिन इसे पूरी तरह से मौसमी इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि आने वाले वक्त में इसके और अधिक बढ़ने की संभावना जताई जा रही है. सरकार मंदी और लगातार घटते राजस्व जैसी समस्याओं से जूझ रही है. ऐसे में महंगाई की दस्तक उसकी परेशानी और ज्यादा बढ़ाएगी.

लगातार बढ़ती महंगाई के कारण सरकार को फिलहाल एक झटका लग चुका है. मंदी से जूझ रही सरकार आर्थिक वृद्धि को किसी भी कीमत पर तेज करना चाहती है, जिसके लिए सस्ते कर्ज मुहैया कराने पर जोर था. सरकार की इस कोशिश में पिछले काफी दिनों से आरबीआई ताल से ताल मिली रही थी. लेकिन पिछले पांच बार से लगातार ब्याज दरें घटाकर कर्ज सस्ते कर रही आरबीआई ने दिसंबर की एमपीसी बैठक में कर्ज दरों में कटौती नहीं की. आरबीआई ने बीच में महंगाई पर बिना ध्यान दिए कर्ज की दरों में कटौती की थी. लेकन अब खुदरा महंगाई इस स्तर पर आ गई है कि उससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता था. आरबीआई ने अपने आकलन में भी कहा है कि महंगाई आगे भी बढ़ सकती है. जानकारों के मुताबिक, अब आरबीआई की ओर से सरकार को इशारा कर दिया गया है कि ग्रोथ बढ़ाने के लिए फिलहाल उसके पास रेट कट की गुंजाइश नहीं है और आर्थिक वृद्धि के मोर्चे पर सरकार को अन्य उपाय तेज करने होंगे.

सरकार के लिए महंगाई बढ़ने से परेशान होने की और भी वजहें हैं. मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में महंगाई दर नियंत्रित रही. इसकी वजहें जो भी रही हों, लेकिन सरकार इस बात के लिए हमेशा अपनी पीठ ठोंकती रही कि उसने महंगाई पर नियंत्रण रखा. जाहिर है कि जब सरकार महंगाई कम होने के मोर्चे पर अपनी पीठ ठोंक रही थी तो वह बढ़ती महंगाई की जिम्मेदारी से बच कैसे सकती है. प्याज की कीमतों को लेकर जब पूरे देश में हाहाकार मचा तो मोदी सरकार फौरन दबाव में आ गई और प्याज आयात के आदेश हो गए. जबकि बहुत से जानकारों का मानना है कि सरकार द्वारा आयातित प्याज जब तक आएगा तब तक हो सकता है कि घरेलू बाजार में ही उसकी आपूर्ति सामान्य हो जाए और यह कवायद बेकार हो जाए. लेकिन, प्याज की महंगाई के लगातार सुर्खियों में रहने के कारण सरकार को यह कदम उठाना पड़ा.

महंगाई दर शहरी मध्यम वर्ग को बहुत तेजी से प्रभावित करती है. इस वर्ग की आवाज राजनीति से लेकर मीडिया तक में प्रमुखता से जगह पाती है, इसलिए सरकारें महंगाई और खास तौर से खाद्य पदार्थों की महंगाई से डरती हैं. लेकिन, अब मसला केवल प्याज का नहीं रहा है. सब्जियों की महंगाई नवंबर में अक्टूबर के मुकाबले दस फीसद बढ़ी है. आमतौर पर माना जाता है कि दिसंबर आते-आते सब्जियों के दाम पर अंकुश लग जाता है, लेकिन इस साल फिलहाल ऐसा होता नहीं दिख रहा है. खाद्य पदार्थों और सब्जियों की लगातार बढ़ती महंगाई सरकार के लिए चिंता की बात है.

जानकारों के मुताबिक, सरकार की पहली चिंता खाद्य पदार्थों की बढ़ती महंगाई के कारण जनमानस की नाराजगी है. जबकि दूसरी चिंता यह है कि मंदी औऱ राजस्व संकट से जूझ रही सरकार इस महंगाई से निपटने के लिए क्या करेगी? मंदी और महंगाई के एक साथ खतरनाक हो जाने के कारण अब मोदी सरकार के नीति-निर्धारकों की मुश्किलें और बढ़ेंगी.

महंगाई का प्रबंधन सरकार कैसे करेगी, यह तो आने वाले वक्त में ही पता चलेगा. लेकिन, सीएसओ के अगर पिछले कुछ महीनों के आंकड़ों पर गौर करें तो साफ होता है कि अर्थव्यवस्था सुस्ती के दुष्चक्र में कैसे फंसी हुई है. नवंबर में आए महंगाई के आंकड़ों पर गौर करें तो हाउसिंग महंगाई 4.58 से घटकर 4.49 हुई है. कपड़ों और फुटवियर की महंगाई भी 1.65 से कम होकर 1.30 पर आ गई है. जबकि सब्जियों की महंगाई 26 फीसद से बढ़कर 36 फीसद हुई है. दालों की महंगाई 11.72 फीसद से बढकर 13.94 फीसद हो गई है. अनाज की महंगाई में यह वृद्धि दर 2.16 से 3.71 फीसद है.

अगर कोर महंगाई के आंकड़े पर गौर करें तो भी यही स्थिति दिखती है. कोर महंगाई नापने में खाद्य पदार्थों और ईंधन को बाहर रखा जाता है. कोर महंगाई की दर अक्टूबर में 3.5 फीसद थी और इसमें कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई हैं. सवाल उठता है कि जब खुदरा महंगाई इतनी तेजी से बढ़ी है तो कोर महंगाई क्यों नहीं बढ़ रही है. इसका जवाब है कि खाने-पीने की चीजों को छोड़कर अर्थव्यवस्था में कोई खास मांग नहीं है. इन आंकड़ों से साफ है कि लोग जीवन के हर क्षेत्र में खपत की कमी कर रहे हैं और उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा खाने-पीने की चीजों पर खर्च हो रहा है. यह स्थिति बताती है कि आर्थिक सुस्ती अपनी जगह बरकरार है.

गिरती खपत की पुष्टि और भी बहुत से आंकड़े करते रहे हैं, लेकिन महंगाई के इन आंकड़ों से ही समझा जा सकता है कि निम्न मध्यम वर्ग के लिए जीवनयापन कितना मुश्किल हो रहा है. इस वर्ग ने घटती कमाई के कारण अपनी रोज की जरुरतों के खर्चे पहले से कम कर रखे थे और अब अब खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ने से उसे बाकी चीजों की खपत और भी घटानी पड़ेगी. खाद्य पदार्थों के अलावा इस वर्ग में बाकी चीजों की खपत और कम होने से आर्थिक सुस्ती और गहरायेगी ही. इसके अलावा अगर यह स्थिति लंबे समय तक बनी रही और इस वर्ग की आय में बढ़ोत्तरी न हुई तो देश में निम्न वर्ग की एक बड़ी संख्या गरीबी रेखा के आस-पास आ जाएगी.

इसके अलावा महंगाई के आंकड़ों में विरोधाभास बताता है कि स्थिति कितनी जटिल है. अक्टूबर के महंगाई के आंकड़ों पर गौर करें तो खुदरा महंगाई की दर 16 महीनों के उच्चतम स्तर पर 4.6 थी. वहीं, थोक महंगाई .16 फीसद पर थी जो पिछले चालीस महीनों के न्यूनतम पर थी. थोक महंगाई दर और खुदरा महंगाई दर में फर्क स्वाभाविक है क्योंकि चीजें कई सप्लाई चेन से होती हुई बिकती हैं. लेकिन, एक ही समय पर खुदरा महंगाई का इतने उंचे स्तर पर होना और थोक महंगाई का इतने नीचे स्तर पर होना कुछ और कहता है.

थोक महंगाई की गणना उत्पादन के स्तर पर कीमतों को बताती है. अक्टूबर में थोक महंगाई का चालीस महीनों के न्यूनतम स्तर पर होना बताता है कि उत्पादन करने वालों को उनकी चीजों की वाजिब कीमत नहीं मिल रही है. इसका मतलब है कि उत्पादकों के स्तर पर मांग कम है जिसके कारण वहां कीमतें नहीं बढ़ रही हैं. इनमें किसान से लेकर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर तक शामिल है. इस वजह से ग्रामीण क्षेत्रों की क्रयशक्ति बुरी तरह से प्रभावित हुई है. इसका एक उदाहरण ग्रामीण क्षेत्रों में कपड़े और जूतों की महंगाई में दिख रही गिरावट है.

अब सवाल है कि सरकार क्या करेगी? महंगाई से निपटेगी या महंगाई कि चिंता छोड़ आर्थिक वृ्द्धि पर ध्यान लगाएगी. आर्थिक जानकार कहते हैं कि चूंकि महंगाई सरकारों के लिए राजनीतिक रुप से संवेदनशील मुद्दा होता है, इसलिए सरकार महंगाई से निपटने को प्राथमिकता देगी. लेकिन इसके साथ ही जानकारों को यह भी चिंता है कि कहीं यह न हो कि सरकार मंदी के मोर्चे को फिलहाल भूल ही जाए और अपनी सारी ऊर्जा महंगाई से निपटने में लगा दे. अगर ऐसा हुआ तो आर्थिक वृद्धि पर और फर्क पड़ेगा जो दीर्घकाल के लिए अच्छी बात नहीं होगी.