सुप्रीम कोर्ट ने भले ही कहा हो कि सूचना का अधिकार क़ानून के ज़रिये ब्लैकमेल और उगाही के अनगिनत मामले होते हैं लेकिन कोर्ट की कही बात केंद्र सरकार के बयानों से मेल नहीं खाती. पिछले एक साल के दौरान दो बड़े केंद्रीय मंत्रियों ने साफ कहा है कि सूचना का अधिकार के बेज़ा इस्तेमाल की कोई स्पष्ट जानकारी सरकार के पास नहीं है. और इस क़ानून में इसके ग़लत इस्तेमाल को रोकने के लिये पर्याप्त सेफगार्ड भी हैं.

सोमवार को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबड़े, जस्टिस बीआरगवई और जस्टिस सूर्यकांत की बेंच ने सूचनाधिकार कार्यकर्ता अंजली भारद्वाज, लोकेश बत्रा और अमृता जौहरी की ओर से दायर याचिका की सुनवाई करते हुये वकील प्रशांत भूषण से कहा, “ब्लैकमेल और उगाही के कई मामले हो चुके हैं. हम उस (समस्या को) संबोधित करना चाहते हैं.”

यह याचिका सूचना आयोग में खाली पड़े पदों की ओर कोर्ट का ध्यान दिलाने के लिये थी. उच्चतम न्यायालय द्वारा इस साल की शुरुआत में केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिये गये थे कि केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य के सूचना आयोगों में खाली पड़े पदों को भरा जाये. ऐसा न होने पर याचिका में अदालत से अपील की गई कि वह सरकार को रिक्तियां भरने के लिये निर्देश दे.

अपने आदेश में कोर्ट ने सरकार को तीन महीने के भीतर इन रिक्तियों को भरने के लिए कहा लेकिन सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं के वकील से यह भी कहा, “आपने देखा है कि किस तरह के लोग सूचना मांग रहे हैं. उनका इससे (सूचना से) कुछ लेना-देना नहीं है. इस (कानून) में कोई प्रावधान नहीं है कि सूचना मांगने वाले का उस जानकारी से क्या लेना-देना है?”

जब वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि जो लोग ग़लत काम कर रहे हैं उन्हें इस क़ानून से डर लगता है तो इसके जवाब में सीजेआई ने कहा कि हर कोई गलती नहीं कर रहा और यह बात वे अपने अनुभव के आधार पर कह रहे हैं. चीफ जस्टिस ने भूषण से यह भी कहा, “आप ऐसे जिरह कर रहे हैं जैसे कि इस क़ानून का दुरुपयोग कहीं होता ही नहीं है. अगर कुछ कदम उठाने से वह दुरुपयोग रोका जा सकता है तो उस दिशा में सोचना चाहिये.”

यह दिलचस्प है कि सरकार के आधिकारिक बयानों में अब तक कहीं भी वह डर नहीं झलका है जिसकी ओर कोर्ट ने इशारा किया है. पिछले एक साल में ही कम से दो मामलों में सरकार ने आरटीआई क़ानून की तारीफ की है और आम जनता के लिये इसे बहुत उपयोगी बताया है.

पिछले साल 19 दिसंबर को लोकसभा में “आरटीआई के बेज़ा इस्तेमाल” को लेकर सवाल पूछा गया था. इसके लिखित जवाब में कार्मिक मामलों और प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री जितेन्द्र सिंह ने सदन को बताया, “सूचना अधिकार क़ानून - 2005 के बेज़ा इस्तेमाल को लेकर सरकार के संज्ञान में कोई जानकारी नहीं लाई गई है.”

लोकसभा में आरटीआई के दुरुपयोग से जुड़े सवालों पर मोदी सरकार के जवाब

सांसद राम कुमार शर्मा ने आरटीआई से जुड़ा एक सवाल यह भी पूछा था कि इस क़ानून का बेज़ा इस्तेमाल रोकने के लिये सरकार ने क्या किया है. जवाब में सरकार ने बताया था कि सेक्शन-8 में इसके लिये उचित प्रावधान है जिसके तहत जानकारी देने से मना किया जा सकता है और कुछ संस्थान इससे बाहर रखे गये हैं.

इसी साल 12 अक्टूबर को केंद्र सरकार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद सबसे ताकतवर माने जाने वाले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सूचना अधिकार कानून को भारत की “लोकतांत्रिक यात्रा में एक बहुत बड़ा मील का पत्थर” बताया था. गृह मंत्री शाह ने यह बात केंद्रीय सूचना आयोग के 14वें वार्षिक समारोह में कही थी.

यहां पर दिये करीब 30 मिनट के अपने भाषण में गृहमंत्री ने सूचना अधिकार क़ानून की प्रशंसा में कहा कि इसने प्रशासन और जनता के बीच “अविश्वास की खाई” पाटने का काम किया है.

अमित शाह ने कहा, “जब (2005 में) सूचना का अधिकार क़ानून बना तो ढेर सारी आशंकायें व्यक्त की जाती थीं और जब इस कानून का प्रारूप मैंने भी 2006 में देखा तो मुझे भी लगता था कि इसका दुरुपयोग होने की संभावना है. लेकिन इतने वक़्त बाद आज हम कह सकते हैं कि दुरुपयोग बहुत कम हुआ है और सदुपयोग बहुत ज़्यादा हुआ है.”

मुख्य न्यायाधीश ने सोमवार को सुनवाई के दौरान कहा था कि उन्हें महाराष्ट्र में बताया गया कि सरकार के मंत्रालय इस कानून के कारण “पंगु” हो गये हैं. गृह मंत्री ने भी अपने भाषण में आरटीआई क़ानून के बेज़ा इस्तेमाल की संभावनाओं का ज़िक्र तो किया लेकिन यह कहा कि इससे “शासन की गति” बढ़ी है.

अमित शाह ने साफ कहा था कि, “… (यह डर था कि) किसी को विक्टिमाइज़ करना है तो इसका उपयोग हो सकता है… प्रमोशन की स्पर्धा में किसी को रोक देना है तो भी आरटआई लगा के छह महीने के लिये बेचारे को दिक्कत में डाल दो… बाद में देखा जायेगा… टेंडरों के आबंटन में भी इसका दुरुपयोग होने की संभावना थी… परंतु एक पहलू जिसका भय था… आज सूचना का अधिकार आने के बाद, जब डीटेल देखते हैं, हम जब इस (कानून) के परिणामों की समीक्षा करते हैं, उसका विश्लेषण करते हैं तो यह ज़रूर नज़र में आता है कि नुकसान से ज्यादा, बहुत ज़्यादा फायदा हुआ है. पारदर्शिता बढ़ी है. भ्रष्टाचार कम हुआ है और शासन की गति बढ़ी है.”

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महत्वपूर्ण है कि आरटीआई क़ानून ने आम आदमी को जो ताक़त दी है उससे पिछले 14 सालों में कई घोटाले और गड़बड़ियां सामने आई हैं. सबसे ताज़ा मामला चुनावी बॉन्ड का है जिसमें आरटीआई कार्यकर्ता एयर कमोडोर लोकेश बत्रा और अंजली भारद्वाज की याचिकाओं से बहुत सी महत्वपूर्ण जानकारियां निकल कर आईं जो मौजूदा सरकार को कटघरे में खड़ा करती है.

चुनावी बॉन्ड का मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है लेकिन यह भी सच है कि अलग-अलग वजहों से आरटीआई क़ानून के ज़रिये जानकारी हासिल करना कठिन होता जा रहा है. किसी भी विभाग से जानकारी न मिलने के बाद आपके पास राज्य और केंद्र के सूचना आयोगों में अपील का प्रावधान है. लेकिन आज हाल यह है कि पूरे देश की सूचना अदालतों में कुल दो लाख मामले लंबित हैं. केंद्रीय सूचना आयोग में ही इस वक्त 33 हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं. और इसकी एक बड़ी वजह यह है कि इन आयोगों के कई पद एक लंबे समय से खाली हैं.