2019 पूरी दुनिया में जलवायु रक्षा के लिए छात्रों एवं युवाओं के सबसे बड़े प्रदर्शनों का वर्ष था. स्वीडन की मात्र 16 वर्ष की ग्रेटा तुनबेर्ग के हर शुक्रवार को स्कूल जाने के बदले सड़कों पर जाकर ‘फ़्राइडेज़ फ़ॉर फ़्यूचर’ नाम के प्रदर्शनों ने दुनिया को झकझोर दिया था. लग रहा था, 2019 का नोबेल शांति पुरस्कार ग्रेटा को ही मिलेगा. किंतु अक्टूबर के आरंभ में नोबेल पुस्कारों की घोषणा के समय न तो ग्रेटा को शांति पुरस्कार मिला और न ही दिसंबर के प्रथम दो सप्ताहों तक चला संयुक्त राष्ट्र का सबसे लंबा जलवायु रक्षा सम्मेलन ही कोई विशेष परिणाम दे पाया.

इस 25वें जलवायु रक्षा सम्मेलन का मुहूर्त ही शुभ नहीं था. उसे वास्तव में होना था लैटिन अमेरिकी देश चिली की राजधानी संतियागो में. किंतु वहां अक्टूबर के मध्य से ही सरकार विरोधी दंगे हो रहे थे. ऐसे में चिली को विवश होकर संयुक्त राष्ट्र से कहना पड़ा कि वह सम्मेलन के लिए कोई दूसरा देश और स्थान ढूंढे. अंतिम समय में स्पेन ने अपनी राजधानी माद्रिद में लगभग 200 देशों के इस महामिलन को आयोजित कर संयुक्त राष्ट्र की नाक बचा ली.

ग्रेटा की ग्रेट बातों का नहीं के बराबर असर

अमेरिका का दौरा कर रही ग्रेटा तुनबेर्ग एक कैटामरान नौका से अटलांटिक महासागर पार करती हुई माद्रिद पहुंची थी. वहां उसने सम्मेलन के प्रतिनिधियों को संबोधित भी किया. ‘फ़्राइडेज़ फ़ॉर फ़्यूचर’ आन्दोलन के उसके युवा सहयोगी भी दो सप्ताहों तक वहां डेरा डाले रहे. इन सभी को ख़ूब वाह-वाही भी मिली. किंतु सम्मेलन के परिणाम पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखा. संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंतोनियो गूतेरेश सहित सबके लिए यह परिणाम निराशाजनक ही रहा.

पिछले कई सम्मेलनों के समान इस बार भी विश्व के सभी छोटे-बड़े देशों को यह बताना था कि 2015 के पेरिस समझौते के अनुसार पृथ्वी के तापमान में औसत वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस से कम ऱखने के लिए यथासंभव केवल 1.5 डिग्री तक ही पहुंचने देने के लिए उन्होंने अपने यहां क्या क़दम उठाने की योजनायें बनायी हैं. पेरिस समझौते में भारत और चीन जैसे नवऔद्योगिक देशों ने भी पहली बार आश्वासन दिया था कि वे तापमानवर्धक गैसों का उत्सर्जन घटाने के लिए हरसंभव प्रयास करेंगे.

अब तक की योजनायें पर्याप्त नहीं

विभिन्न देशों ने अब तक अपनी जो योजनायें बतायी हैं या आश्वासन दिये हैं, उनसे पेरिस समझौते में तय सीमा के उल्लंघन को रोकना संभव नहीं होगा. ऐसी आशंका पेरिस समझौते के समय भी थी. इसीलिए उसमें यह भी कहा गया था कि 2020 आने के साथ, हर पांच वर्षों पर, इन देशों को पिछली बार की अपेक्षा नये और कहीँ अधिक महत्वाकांक्षी वादे करने होंगे. इसका यही अर्थ है कि 2020 में जब ब्रिटेन के ग्लास्गो शहर में 26वां संयुक्त राष्ट्र जलवायु रक्षा सम्मेलन होगा, तब सभी देशों को 2030 तक के लिए अपनी नयी योजनाएं पेश करनी होंगी. माद्रिद सम्मेलन में उन्हें इतना ही बताना था कि वे अब तक घोषित अपने लक्ष्यों में सुधार करने जा रहे हैं या नहीं.

केवल यूरोपीय संघ ने यह आश्वासन दिया कि वह 2050 तक ‘जलवायु परिवर्तन-निरपेक्ष’ हो जायेगा. अर्थात तब तक यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में तापमानवर्धक गैसों का उत्सर्जन इतना घट चुका होगा कि जलवायु पर उसका प्रभाव न के बराबर रह जायेगा. यूरोपीय प्रतिनिधियों और मीडिया ने इस बात को ख़ूब उछाला कि भारत, चीन और ब्राज़ील ने या अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया तथा जापान जैसे जी-20 के सदस्य देशों ने अपनी ओर से किसी बेहतरी की घोषणा नहीं की.

इस सम्मेलन में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्राज़ील की खूब आलोचना हुई कि उनकी असहयोगी हठधर्मिता के कारण कई महत्वपूर्ण निर्णय नहीं हो पाये और सम्मेलन की अवधि को 40 घंटों के लिए बढ़ाना पड़ा. इसी कारण समापन घोषणा तैयार करने में भी बहुत विलंब हुआ, हालांकि तब भी उसमें कोई ठोस बात नहीं कही जा सकी.

भारत अपने वादों को निभाने के लिए प्रतिबद्ध

सम्मेलन में कुछ समय तक उपस्थित रहे भारत के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि भारत 2015 के पेरिस सम्मेलन के समय किये गये अपने वादों को निभाने के लिए प्रतिबद्ध है. वह कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 21 प्रतिशत के बराबर पहले ही घटा चुका है. और पेरिस में किये गये वादे के अनुसार वह उत्सर्जन में इस समय 35 प्रतिशत कमी लाने के रास्ते पर है. किंतु, खुद अपने लक्ष्यों से पीछे रह गये जर्मनी जैसे यूरोपीय देश चाहते हैं कि भारत और अधिक महत्वाकांक्षी लक्ष्य घोषित करे.

जावड़ेकर ने कुछ आकड़े देते हुए बताया कि पेरिस समझौते के अधीन भारत ने 175 गीगावाट (1 गीगा= 1अरब) नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता जुटाने का लक्ष्य घोषित किया था. इसमें से 83 गीगावाट की क्षमता अब तक उसे प्राप्त हो चुकी है. प्रधानमंत्री मोदी ने इस बीच 450 गीगावाट का नया लक्ष्य घोषित किया है. भारत सौर, जैव और पवन ऊर्जा के दोहन पर एक साथ काम कर रहा है. और उसने कार्बन डाईऑक्साइड के प्रति टन उत्सर्जन पर छह डॉलर के बराबर कर भी लगा रखा है. वनरोपण और हरियाली बढ़ाने के कार्यक्रमों के अलावा भारत पांच करोड़ डॉलर लगा कर जलसंचय की कई परियोजनाओं पर भी काम कर रहा है. इसी प्रकार पेट्रोल में इथेनॉल की मात्रा को बढ़ाते हुए 2030 तक उसे 20 प्रतिशत के बराबर कर देने का भी एक नया लक्ष्य उसने रखा है.

उत्सर्जन अधिकारपत्र

माद्रिद सम्मेलन को मुख्य रूप से उन अधिकारपत्रों (एमिशन सर्टिफ़िकेट) के अंतरराष्ट्रीय लेन-देन के नियमों को तय करना था, जो कल-कारख़ानों द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को सीमित करने पर लक्षित होते हैं. इसके लिए सबसे पहले यह तय होना चाहिये कि किसी समय-सीमा के भीतर, किसी जगह पर, कितनी मात्रा में, किस गैस के उत्सर्जन के कितने अधिकारपत्र वितरित किये जाने चाहिये ताकि जलवायु और औसत तापमान पर उसका कोई अवांछित प्रभाव नहीं पड़े. इन अधिकारपत्रों का प्रति टन के हिसाब से मूल्य तय किया जाता है. इसके बाद विभिन्न सरकारें मांग और उपलब्धि के आधार पर इन अधिकारपत्रों का बाज़ारभाव तय करती हैं और इन्हें अपनी कंपनियों को बेचती हैं.

मान लें कि किसी कंपनी ने एक साल के भीतर कार्बन डाईऑक्साइड के 10 हज़ार टन के बराबर उत्सर्जन के अधिकारपत्र ख़रीदे थे. अगर वह यह प्रमाणित कर सकती है कि उसने वास्तव में केवल आठ हज़ार टन के बराबर ही उत्सर्जन किया, तो बाक़ी के दो हज़ार टन वाले अधिकारपत्र बाज़ारभाव पर वह किसी दूसरी कंपनी को बेच सकती है. इसी प्रकार तय सीमा से अधिक उत्सर्जन होने पर वह किसी दूसरी कंपनी के अधिकारपत्र ख़रीदकर अपना काम चला सकती है.

जो कंपनिया बिना अधिकारपत्र के उत्सर्जन करती पायी जायेंगी, उन्हें भारी ज़ुर्माने भरने पड़ेंगे. सरकारें उत्सर्जन की सीमा या अधिकारपत्रों की संख्या घटाते हुए अपने क्षेत्र या देश के भीतर हो रहे उत्सर्जन पर नियंत्रण रख सकती हैं. इस युक्ति का एक दूसरा बड़ा लाभ यह है कि हर कंपनी या कारख़ाने के लिए ज़रूरी नहीं है कि उसे एकसमान मात्रा में उत्सर्जन घटाना है. दूसरी कंपंनियों के साथ अधिकारपत्रों के लेन-देन के द्वारा हर कंपनी, बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के, अपनी घटती-बढ़ती ज़रूरतों का पूरा ध्यान रख सकती है.

भारत, चीन और ब्राज़ील की मांग अस्वीकार

भारत, चीन और ब्राज़ील जैसे कुछ देश चाहते थे कि तथाकथित क्योतो प्रोटोकोल के अंतर्गत जो पुराने अधिकारपत्र जारी किये गये थे, उन्हें अब भी वैध माना जाये. इसे अनावश्यक अड़ंगा बताते हुए पश्चिमी देशों के प्रतिनिधियों का कहना था कि यह बहुत ही संदिग्ध है कि उस समय के अधिकारपत्रों पर जितना टन लिखा रहा होगा, कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन वाकई उतना ही रहा होगा. संभावना यही है कि इस सीमा का ईमानदारी से पालन नहीं किया गया होगा.

‘कार्बन मार्केट वॉच’ नाम की एक संस्था का कहना था कि उसके हिसाब से उस समय के अधिकारपत्रों के आधार पर तो कोयला जलाकर बिजली बनाने वाले 700 तापबिजलीघर, आज भी, अगले दस वर्षों तक अपना काला धुंआ उगलते रह सकते हैं. अकेले उनके कारण ही पृथ्वी का औसत तापमान 0.1 डिग्री तक बढ़ सकता है.

जर्मन सरकार की नयी योजना

माद्रिद सम्मेलन में तापमानवर्धक गैसों के उत्सर्जन पर लगाम लगाने के अधिकारपत्रों के बारे में कोई सर्वमान्य निर्णय तो नहीं हो पाया. किंतु सम्मेलन के समापन के एक ही दिन बाद, जर्मनी की सरकार ने अपनी जनता के लिये एक दिलचस्प निर्णय ज़रूर सुनाया. कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी को घर-घर और जन-जन तक ले जाने के लिए जर्मनी की सरकार ने तय किया है कि मोटर-वाहन चलाने और सर्दियों में घरों को गरम रखने के लिए जो ईंधन लगता है, उससे पैदा होने वाले कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन के लिए, 1 जनवरी 2021 से, अधिकारपत्र ख़रीदने होंगे. ये अधिकारपत्र ईंधन विक्रेता कंपनियां ख़रीदेंगी, पर अंततः उनकी कीमत तो उपभोक्ताओं को ही अदा करनी पड़ेगी.

इन अधिकारपत्रों का मूल्य आरंभ में 25 यूरो (लगभग 2000 रूपये) प्रतिटन होगा, जो समय के साथ बढ़ते हुए 2026 तक 55 से 65 यूरो प्रतिटन भी हो सकता है. यह नियम लागू होते ही पेट्रोल की क़ीमत काफी बढ़ जायेगी. बदले में नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहन देने के लिए घरेलू बिजली के बिल पर लगने वाले अधिभार को कम किया जा सकता है. साथ ही मोटर-वाहन कर का आधार भी अब वाहन से निकले कार्बन डाईऑक्साइड की प्रति किलोमीटर मात्रा हुआ करेगा.

आपदाओं के कारण क्षतिपूर्ति का प्रश्न

माद्रिद सम्मेलन को विकासशील देशों की इस मांग का भी उत्तर देना था कि जलवायु परिवर्जन के कारण सूखे, बाढ़ या तूफ़ान जैसी आपदाओं से उन्हें जो भारी क्षतियां होती हैं, उनकी पूर्ति के लिए जो कोष बनना है, उसका क्या हाल है. इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया जा सका. अगले दशक में इन क्षतियों के अनुमान 50 अरब से लेकर 580 अरब डॉलर प्रतिवर्ष तक जाते हैं. पेरिस वाले सम्मेलन में कहा यह कहा गया था कि इस कोष के लिए 2020 से हर वर्ष 100 अरब डॉलर जमा किये जायेंगे.

इस समय स्थिति यह है कि विकासशील देशों में जलवायु-जनित जो प्राकृतिक आपदाएं आती हैं, उनसे होने वाली क्षतियों के केवल पांच प्रतिशत का ही कोई बीमा कराया गया होता है. दूसरी ओर, द्वीप देश चाहते हैं कि समुद्री जलस्तर के उठने से भविष्य में जो द्वीप डूब जायेंगे, उनके निवासियों के अन्य जगहों पर पुनर्वास के लिए भी आपदा-क्षतिकोष से पैसा मिलना चाहिये.

उल्लेखनीय है कि इस कोष के लिए पैसा औद्योगिक देशों को देना है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन लाने वाली तापमानवर्धक गैसों का सबसे अधिक उत्सर्जन अब तक वे ही करते रहे हैं. यह समस्या पिछले दस वर्षों से हर जलवायु रक्षा सम्मेलन का पीछा करती आयी है. किंतु, औद्योगिक देशों को लगता है कि अगर वे इसके लिए तैयार हो गये तो क्षतिपूर्ति की मांग अकल्पनीय सीमा तक बढती जा सकती है. अतः इस मांग को जब तक हो सके टालते रहना है.

माद्रिद में केवल इतना ही तय हो पाया कि तापमानवर्धक गैसों के उत्सर्जन को घटाने के लिए जो ‘हरित जलवायु कोष’ (ग्रीन क्लाइमेट फंड/ जीसीएफ़) बनने वाला है, उसका प्राकृतिक आपदाओं से हुई क्षति की पूर्ति के लिए भी उपयोग किया जा सकता है.

सम्मेलन के लिए आये वैज्ञानिकों ने बताया कि उनकी गणनाओं के अनुसार, कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन का यदि इस समय का ढर्रा आगे भी बना रहा, तो वैश्विक औसत तापमान का बढ़ना अगले केवल आठ वर्षों में ही 1.5 डिग्री सेल्सियस वाली लक्षमणरेखा को लांघ जायेगा. इन वैज्ञानिकों ने कई दूसरे निराशाजनक शोध परिणाम भी सार्वजनिक किये. कुछ उदाहरणः

* विश्व जलवायु परिषद ने पाया है कि वैश्विक औसत तापमान, पूर्व-औद्योगिककाल की अपेक्षा एक डिग्री सेल्सियस पहले ही बढ़ चुका है. संयुक्त राष्ट्र मौसम विज्ञान संगठन ने कहा कि मौसम अवलोकन के पूरे इतिहास में पिछले चार वर्ष सबसे गरम थे.

* स्विट्ज़रलैंड के वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि दुनिया भर में पिघल रहे हिमनद (ग्लेशियर) अब तक 335 अरब टन बर्फ खो चुके हैं. यह मात्रा यूरोप के आल्प्स पर्वतों पर मौजूद सभी हिमनदों वाली बर्फ के तीन गुने के बराबर है.

* संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ‘यूनेप’ ने आगाह किया कि विश्व की जनता यदि आगे भी वैसे ही रहती-जीती रही जैसे अब रह रही है, तो वैश्विक औसत तापमान इस सदी का अंत आते-आते 3.4 से 3.9 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जायेगा. इस बढ़ोत्तरी को यदि 1.5 पर ही नहीं रोका जा सका, तो सारी पारिस्थितिकी (इकोसिस्टम) अपना संतुलन खो बैठेगी और प्रतिगामी बन जायेगी.

* विश्व जलवायु परिषद का मानना है कि जलवायु परिवर्तन को यदि समय रहते रोका नहीं नहीं गया, तो समुद्री जलस्तर इस सदी के अंत तक एक मीटर से अधिक ऊपर उठ चुका होगा.

* कार्बन डाईऑक्साईड का उत्सर्जन निरंतर बढ़ता ही जा रहा है. अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) का मत है कि यह उत्सर्जन अगले वर्षों में घटने की जगह 2040 तक 10 प्रतिशत तक बढ़ जायेगा.

कहने की आवश्यकता नहीं कि दुनिया जलवायु परिवर्तन के एक ऐसे कगार पर पहुंच गयी है, जहां से यदि पीछे नहीं लौटी, तो उसका रसातल में गिरना तय है. यह चेतना अविकसित एवं विकासशील देशों में जितनी अधिक है, उपभोगवादी उन्नत औद्योगिक देशों में उतनी ही कम दिखती है.