जीनियस होने की एक कसौटी सिद्धान्तों को सरल करने की क्षमता भी है. आइंस्टीन का मास-एनर्जी समीकरण बच्चे-बच्चे को पता है. स्टीफ़न जे हॉकिंग्स की ‘ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम’ इसलिए मशहूर हुई क्योंकि ब्लैक-होल के कठिन सिद्धांतों को उन्होंने बड़ी आसान सी लगने वाली भाषा में समझाया. महात्मा गांधी ने सत्याग्रह के सिद्धांत का प्रयोग इस तरह समझाया कि हर भारतीय उनके साथ खड़ा हो गया. इसी श्रेणी में अनुपम मिश्र को भी रखा जाना चाहिए. आज हम ‘आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस’ से पानी को सुलभ कराने की बात कर रहे हैं. वहीँ दूसरी तरफ़, ‘गुजरात का सिंचाई मॉडल’ देश भर में लागू किये जाने की मांग है. इन सबसे इतर, अनुपम जी जिस सरलता से जल संरक्षण के पारंपरिक तरीकों का ज़िक्र करते हैं, हर बच्चा पानी को बचाने की जंग में एक सैनिक बन जाए.
अनुपम साहित्य
उनकी क़िताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में तालाबों की आर्थिक, सामाजिक और न्यायिक व्यवस्था के साथ साझेदारी का जिक्र है. दुर्भाग्यवश यह साझेदारी अब टूट गई है. इसमें हर प्रान्त में तालाबों से जुड़े हुए लोग, अनुष्ठान, प्रकिया और उनके संचालन का शाब्दिक चित्रण है. इसमें वे बताते हैं कि कैसे तालाबों की तामीरी होती? किन महुर्तों में, शुभ दिनों में काम शुरू होता? नामकरण किस प्रकार होते? कौन रखवाली करता? और, पानी का बंटवारा किसकी ज़िम्मेदारी थी, दंड व्यवस्था में तालाब क्या हैसियत रखते थे? और कैसे राजा प्रजा के साथ मिलकर इन तालाबों को बनाते थे?
वे लिखते हैं कि ‘सैकड़ों, हज़ारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे. इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की तो दहाई थी बनाने वालों की. इकाई दहाई मिलकर सैकड़ा हज़ार बनाती थी’. यह क़िताब पूरे हिंदुस्तान में तालाबों की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक यात्रा है.
भारत सरकार की रिपोर्टों के हवाले से
2013-2014 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ अब देश में सिर्फ़ 2,41,715 ही तालाब बचे हैं. अनुपम मिश्र लिखते हैं कि ‘बीसवीं सदी की शुरुआत में देश में कुल 11-12 लाख छोटे-बड़े तालाब भरते थे. इसमें ख़ाली रह जाने की संख्या जोड़ने पर यह आंकड़ा और भी ऊंचा हो जाएगा.’
यानी, ‘अच्छे-अच्छे काम करते जाना, तालाब बनाते जाना’ भूले ही नहीं, हम तो साढ़े नौ लाख तालाब ही लील गए! यानी पिछले 119 सालों में 22 तालाब रोज़ ख़त्म हुए!’
तालाब बनने क्यों बंद हुए?
अनुपम मिश्र कहते हैं ‘कोई एक हज़ार वर्ष तक अबाध गति से चलती रही इस परंपरा में पंद्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएं आने लगीं’. ऐसा क्यों हुआ अनुपम जी इस बात को साफ़ नहीं करते. शायद इसलिए कि उनकी प्रवृत्ति दोषारोपण की नहीं थी.
सोलहवीं शताब्दी में मुग़ल आये. तालाबों के बनने की गति में अवरोध का यह कारण भी हो सकता है कि मुग़लों ने राजनैतिक शक्ति के केन्द्रीकरण की शुरुआत की. इसमें पानी की व्यवस्था भी राज के हाथों में चली गई.
संभव है, इस वजह से लोग इस परंपरा से दूर हुए हों. फिर अंग्रेज़ों के आने के बाद, नहर परियोजनाएं लागू होने लगीं, और औद्योगिक क्रांति से रही-सही कसर पूरी हो गई. अब डिग्रियों से लैस इंजिनियरों ने कमान अपने हाथों में ले ली है और व्यवहारिक ज्ञान लगभग ख़त्म हो चुका है. अनुपम जी बेहद साफगोई से लिखते हैं ‘...पिछले दो सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने उस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया.’
तो क्या कह सकते हैं कि तालाब बनाना एक हज़ार वर्ष पुरानी परंपरा थी, जो बाद में प्रक्रिया बनी और फिर बंद हो गई? क्या पानी के मोर्चे पर आज आ रही मुश्किलों के लिए राज-व्यवस्था ज़िम्मेदार है? अगर हां, तो फिर ‘गुजरात मॉडल’ कैसे सफल होगा!
क्या है गुजरात मॉडल?
गुजरात राज्य के ‘गुजरात मॉडल’ में नहर पर सिंचाई विभाग द्वारा टंकी का निर्माण किया जाता है और पाइपलाइन द्वारा दूर के खेतों को इससे जोड़ा जाता है. नीति आयोग द्वारा जारी वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स में गुजरात अव्वल नंबर पर है. पानी के संरक्षण, जलभराव और भूजल के क्षेत्र में हुए सकारात्मक बदलाव सफलता के कारण हैं. गुजरात ने एक नया कानून भी बनाया है जिसके तहत पानी चुराने, या मवेशियों को नदी के मुहाने पर पानी पिलाने पर बड़ा जुर्माना लगाया जाएगा.
वितरण के नाम पर सरकार ने पानी पर कब्ज़ा कर लिया है. पानी सबका था, जहां से बहता वहां का और जहां नहीं था, वे लोग भी प्यासे नहीं मरते थे. उनके अपने इंतज़ाम थे. अनुपम जी लिखते हैं कि एक हिस्से के लोगों का पानी चुराकर दूसरे हिस्से को देना कोई ठीक बात नहीं.
ग़रीब पानी नहीं चुरा रहा, बल्कि उसका पानी चुरा लिया गया है. यह कोई और नहीं, बल्कि सरकारें ही करती हैं और फिर सीनाज़ोरी भी. राजस्थान के टोंक ज़िले में, जहां से बनास नदी बहती है स्थानीय लोगों को नाममात्र का पानी ही मिलता है, और बाकी जयपुर या अन्य शहरों में भेजा जा रहा है. टोंक के किसानों ने जब इसके विरोध में आंदोलन किया, तब उन पर गोलियां चलाई गई थीं. इसी प्रकार राजस्थान के ही घडसाना में पानी को लेकर किसानों पर गोलीबारी की गई.
क्या गुजरात मॉडल सफल होगा?
हर राज्य की अपनी अलग भौगौलिक परिस्थितियां हैं. कहीं नदियों का जाल, कहीं एक भी नदी नहीं है. ऐसे में ताज्जुब होता है कि कैसे किसी एक राज्य का मॉडल पूरे देश में लागू किये जाने की बात उठाई जाती है. नदियों को जोड़ने के पर्यावरण पर दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं. सरकार कभी इजराइल का मॉडल, तो कभी गुजरात का मॉडल लागू करने की बात करती है, किसी राज्य या प्रान्त के अपने सरल मॉडल पर ही वह काम क्यों नहीं करती?
क्यों केन्द्रीयकृत मॉडल सफल नहीं होते
सरकार मॉडल के नाम पर कानून बनाती हैं. पारंपरिक तरीक़े इस प्रकार बनाये जाते थे कि वे संस्कृति का हिस्सा बन जाते थे. कानून अक्सर टूट जाते हैं क्योंकि वे नीरस, बेरंग और थोपे हुए लगते हैं. वहीँ, संस्कृति का हिस्सा बन गई समाज की परंपराएं लंबे अरसे तक साथ निभाती हैं. पानी का सहेजना संस्कृति है न कि क़ानून.
सरकार प्रांतीय मॉडलों पर काम क्यों नहीं करती
सरलीकरण की प्रकिया का लक्ष्य होता है अधिकाधिक जन भागीदारी और विकेंद्रीकरण (डी-सेंट्रलाईज़ेशन). इससे संसाधनों पर सर्वशक्तिमानों का कंट्रोल ख़त्म हो जाता है. सरकारों को यह पसंद नहीं.
‘राजस्थान की रजत बूदें’ में अनुपम जी लिखते हैं कि मरुसमाज के गांव-गांव, शहर-शहर ने वर्षा की बूदों को सहेजकर रखने के अपने तरीके खोजे और जगह-जगह इनको बनाने का एक बहुत ही व्यावहारिक, व्यवस्थित और विशाल संगठन खड़ा किया. इतना विशाल कि पूरा समाज उसमें एक हो गया. इसका आकार इतना बड़ा था कि सचमुच निराकार हो गया. वे आगे लिखते हैं कि ‘ऐसे निराकार संगठन को समाज ने न राज को, यानी सरकार को, न आज की भाषा में निजी क्षेत्र को सौंपा.’
अग़र सबसे आसान तरीके से पानी चाहिए तो उसे बचाना होगा और उसके लिए पूरे समाज को जोड़ना होगा. दुबारा गजधर, सिलावट, सिरभाव सूत्रधार, पथरौट, टकारी, राजलहरिया, बुलई, चुनकर, कोरी आदि जाति के लोग ढूंढने होंगे, उनके चरण पखारने होंगे, उनसे तालाब बनाने और बचाने की तकनीक सीखनी होगी. इंजीनियरों को उनके साथ मिलकर काम करना चाहिए. आखिर व्यावहारिक ज्ञान तो इन्हीं लोगों के पास था. पुराने गजेटियर खंगालने होंगे, तालाबों की पालों के किनारे रखे इतिहास को पढ़ना होगा, अतिक्रमण हटाने होंगे. अनुपम मिश्र जी के काम को समझना होगा.
अंततः
अनुपम जी को नवोदित साहित्यकारों को भी पढना चाहिए. इनकी लेखन शैली में बहते पानी सा प्रवाह है. और कभी-कभी तो गध्य पद्य लगने लगता है. तालाबों, पानी, बादलों के पर्यायवाची जितने इन्होंने बताए, शायद किसी ने नहीं. उन्हें पढ़कर तालाबों से जुड़े हुए शब्द नेष्टा, आगौर, आगर, पाल आदि का ज्ञान होता है, तो उन जुडी हुई विभिन्न जातियों के बारे में भी जानकारी मिलती है. उनकी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ का नाम ‘तालाब एक खोज’ भी हो सकता था.
जहां उनका लेखन आश्चर्य बोध कराता है, वहीँ दूसरी तरफ़ हमें उन तालाबों के मुहाने पर ला खड़ा करता है, जो अब नहीं है. उनका लेखन वैचारिक तृप्ति देता है तो दूसरी तरफ़ बहुत गहरा अपराध बोध भी पैदा करता है. तालाब गायब करने के अपराधी तो हम सभी हैं.
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