26 जनवरी 2015 को 93 साल की उम्र में पुणे के एक अस्पताल में आख़िरी सांस लेने से पहले आरके लक्ष्मण ने एक भरा-पूरा जीवन जिया - ऐसा जीवन जिसमें बोलने की आज़ादी का उल्लास और एहसास दोनों शामिल थे. ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के एक कोने में बैठा उनका कॉमन मैन बरसों नहीं, दशकों तक सबको कभी गुदगुदाता, कभी नाराज़ करता रहा, समाज, राजनीति और जीवन में बढ़ती धूल लगातार दिखाता और झाड़ता रहा.
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हालांकि लक्ष्मण अपने समकालीनों या शंकर या अबू अब्राहम की तरह शुरू में बहुत तीखे नहीं थे और न ही बहुत गहरे अर्थों में राजनीतिक थे. वे सच्चे अर्थों में कॉमन मैन- यानी आम आदमी थे- जिसे महंगाई तंग करती थी, भ्रष्टाचार मायूस करता था, गुल होती बिजली नाराज़ करती थी, सड़कों के गड्ढे परेशान करते थे, सरकारी दफ़्तर निराश करते थे और नेता कभी विदूषकों की तरह तो कभी खलनायकों की तरह दिखाई पड़ते थे.
एक तरह से देखें तो उदारीकरण के पहले की सरकारी संस्कृति वाले हिंदुस्तानी दफ़्तरों की सबसे अच्छी और प्रामाणिक तस्वीरें आरके लक्ष्मण के कार्टूनों में थीं. मुक्तिबोध की भाषा में जिरह बख़्तर (कवच) पहन कर बैठी हुई भूल-गलती को वे बार-बार भेदते रहे, लेकिन इस तरह कि जिरह-बख़्तर को महसूस होते-होते वक़्त लग जाता.
वैसे लक्ष्मण को जो आज़ाद भारत मिला, वह कई मायनों में बहुत खुला और सहनशील था. यह वह दौर था जब राजनीति और विचारधाराएं व्यंग्य का बुरा नहीं मानती थीं और कार्टूनों पर हंसने का सलीका जानती थीं. लेकिन आरके लक्ष्मण शब्दों या कथ्य को जिस तीखेपन से बचाए रखते थे, वह उनकी रेखाओं में बोलता था. जो उनके शब्द नहीं कहते थे, वे रेखाएं कहती थीं.
उनके दफ़्तरों की अराजकता में बिल्कुल आसमान छूती फाइलें होतीं, उलटी हुई मेज़ें होतीं और कुर्सी में दबा-सिमटा एक आदमी होता. उनके नेता लॉकर तोड़कर कंधे पर बोरी रख कर फरार हो रहे किरदार होते जो यह दावा करते जाते कि उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं है.
नब्बे के दशक में बढ़ती सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार के दौर में आरके लक्ष्मण ने किसी को बख़्शा नहीं. राम मंदिर आंदोलन के दिनों में उनके कई कार्टूनों में लालकृष्ण आडवाणी मुकुट लगाए और त्रिशूल लिए दिखा करते. जाहिर है, तीखे होते माहौल में एक तरह का तीखापन उनके कार्टूनों में भी आया था.

इस तीखेपन के बावजूद उनकी कलात्मकता हमेशा बनी रही. दरअसल रेखाओं को जैसे वे जादू की छड़ी की तरह इस्तेमाल करते थे. वे कभी लाठी बन जातीं, कभी सांप हो जातीं और कभी सीढ़ी बन जातीं. बहुत बचपन से उन्होंने रेखाओं को साधा था. अपनी आत्मकथा ‘द टनल ऑफ टाइम में उन्होंने लिखा भी है कि किस तरह वे अपने कमरे की खिड़की से बाहर दिखने वाली सूखी डालों को, हरे पत्तों को, रेंगती छिपकलियों और लकड़ी काटते नौकरों को अपनी रेखाओं में उतारने की कोशिश करते थे.
यह भले इत्तेफाक हो कि जब भारत अपनी लोकतांत्रिकता का जश्न मना रहा था, तब भारत के सबसे मशहूर कार्टूनिस्ट ने अपनी आख़िरी सांस ली, लेकिन इस इत्तेफाक में वह विडंबना अलक्षित नहीं रह जाती जो हमारे विचार करने और बोलने की आज़ादी में लगातार बढ़ते दखल के तौर पर सामने आ रही है. भारत में कार्टूनिस्टों के लिए यह बुरा वक़्त है. पेरिस में आतंकवादियों ने शार्ली एब्दो के जिन कार्टूनिस्टों को मार दिया, वे फिर भी जीत गए. आतंकवाद मुंह छुपाता दिखा जबकि शार्ली एब्दो के कार्टून दुनिया भर में फैल गए. भारत में हालात दूसरे और कहीं ज़्यादा जटिल हैं. जैसे एक अदृश्य हाथ लेखकों-कलाकारों-कार्टूनिस्टों की गर्दन, कलम और कूंची पर है और वह कसता जा रहा है. उम्मीद करें कि आरके लक्ष्मण की स्मृति हमें वह थोड़ी सी रोशनी देगी जिसमें हम इस अदृश्य हाथ को कुछ बेहतर ढंग से पहचान सकेंगे.
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