देश में सीएए-एनआरसी को लेकर चल रहे विरोध-प्रदर्शनों के बीच भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद का नाम चर्चाओं में है. बीते दिनों दिल्ली में जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर हाथों में संविधान लिए उनकी तस्वीर सुर्खियों में रही. सीएए-एनआरसी के विरोध में हिस्सा लेने पर उनके खिलाफ दिल्ली पुलिस ने उपद्रव और अन्य धाराओं में मुकदमा दर्ज किया और उन्हें कई दिन जेल में रहना पड़ा. बाद में उन्हें कई शर्तों के साथ जमानत मिली और रिहा होते ही वे फिर पूरे देश में सीएए-एनआरसी के खिलाफ चल रहे धरनों में शामिल होने लगे. अभी दिल्ली में हुए प्रदर्शन में गिरफ्तारी के बाद वह रिहा हुए ही थे कि उन्हें हैदराबाद में फिर गिरफ्तार कर लिया गया.

ऐसे वक्त में जब मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां सोशल मीडिया और प्रेस कान्फ्रेंस के जरिये राजनीति कर रही हैं तो बिना किसी पार्टी से जुड़े चंद्रशेखर का बार-बार जेल में जाना ध्यान तो खींचता ही है. यह इसलिए भी ध्यान खींचता है क्योंकि चंद्रशेखर आजाद अभी तक भीम आर्मी के बैनर तले ही अपनी गतिविधियां चलाते हैं और मुख्यधारा की विपक्षी राजनीति में उनकी भूमिका क्या है, यह अभी साफ नहीं है. लेकिन इस अस्पष्टता के बावजूद यह साफ है कि फिलहाल वह केंद्र की मोदी सरकार के विरोध के बड़े चेहरों में एक होते जा रहे हैं. मुख्य धारा की विपक्षी पार्टियों के पास बरसों की स्थापित राजनीति है, बड़े चेहरे हैं और संगठन हैं. ऐसे में चंद्रशेखर की यह उपलब्धि कम नहीं आंकी जा सकती है. इस उपलब्धि को इससे भी जांचा जा सकता है कि चंद्रशेखर धीरे-धीरे सार्वजनिक जीवन में जो पहचान बना रहे हैं उससे मुख्यधारा के राजनीतिक दल अलग-अलग वजहों से परेशान हैं.

चंद्रशेखर आजाद का दलित चेहरा होना मोदी सरकार के लिए भी परेशानी का सबब बन रहे हैं. चंद्रशेखर दलित युवाओं में लोकप्रिय हैं और उनका लगातार मोदी विरोध भाजपा की दलितों में पैठ बनाने की कोशिश में मुश्किल खड़ी कर सकता है. इसके अलावा सीएए के विरोध प्रदर्शनों और उससे पहले भी वे जिस तरह से दलित-मुस्लिम एकता की बातें करते रहे हैं, वह भी भाजपा के एजेंडे के अनुकूल नहीं है. लेकिन, चंद्रशेखर की अति सक्रियता सिर्फ भाजपा में ही खीझ नहीं पैदा कर रही है, बल्कि बसपा भी उनसे परेशान है.

सीएए-एनआरसी के विरोध को लेकर बसपा ने उन पर आरोप लगाया कि चंद्रशेखर आजाद चंदे के लिए ऐसा करते हैं. बसपा चंद्रशेखर पर पहले भी ऐसे आरोप लगाती रही है. खुद मायावती ने कई बार कहा कि चंद्रशेखर ऐसा भाजपा के इशारे पर कर रहे हैं. बहुत सारे राजनीतिक विश्लेषणों में भी यह कहा गया था कि चंद्रशेखर आजाद जिस तेजी से उभरे उसी तेजी से वे भुला दिए जाएंगे. लेकिन, फिलहाल यह गलत साबित होता दिख रहा है.

चंद्रेशेखर आजाद के इस उभार का क्या मतलब है? यह किस दिशा में जाता दिखता है. दलित राजनीति पर शोध कर रहे लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र सुधीर कुमार कहते हैं, ‘पहली बात तो यह है कि चंद्रशेखर के तरीके उस राजनीति से अलग नजर आ रहे हैं, जहां आप विपक्ष में बैठकर केवल सत्ता का इंतजार करते हैं. बहुजन और पिछड़ों के नाम पर राजनीति करने वाले नेता जहां विरोध की रस्म अदायगी भर कर रहे हैं. वहीं, चंद्रशेखर विरोध में जेल जाने से भी पीछे नहीं हटते हैं. वे आगे कहते हैं, ‘इसके अलावा चंद्रशेखर दलित राजनीति के पारंपरिक दायरे को तोड रहे हैं. दलित आंदोलन के कार्यकर्ताओं के साथ आम तौर पर दिक्कत होती है कि वे सामाजिक सरोकार के अन्य आंदोलनों से आसानी से नहीं जुड़ पाते हैं. लेकिन, चंद्रशेखर इस मामले में अलग हैं. वे छात्र आंदोलन से भी संवाद रखते हैं और सीएए-एनआरसी जैसे मुद्दे से सीधे जुड़ने से भी परहेज नहीं करते हैं.’

बसपा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी भी यह बात स्वीकार करते हैं कि चंद्रशेखर आजाद के सड़क पर संघर्ष करने के तरीके से दलित युवाओं में उनकी खासी लोकप्रियता है. नाम न छापने की शर्त पर वे कहते हैं, ‘बसपा जैसे राजनीतिक दल एक बहुत लंबे समय के दलित आंदोलन का परिणाम हैं. इसलिए पार्टी के पुराने नेता मान कर चलते हैं कि हमारा जनाधार इतनी जल्दी कोई नहीं छीन सकता. यह बात काफी हद तक सही भी है. लेकिन, यह बात भी सही है कि अब बसपा जैसी पार्टी के संगठन में वह मिशनरी भाव नहीं रह गया है. पार्टी को किसी मकसद के लिए संघर्ष करते नजर आना चाहिए नहीं तो धीरे-धीरे उस जगह को चंद्रशेखर आजाद जैसे युवा भरेंगे.’

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में चंद्रशेखर आजाद खासे लोकप्रिय हैं. यहां के दलित बहुल इलाकों में बहुत सारे युवाओं को चंद्रशेखर का तरीका पसंद है. उनकी छवि एक ऐसे नेता की है, जो मौके पर आता है और तेवर के साथ बात करता है. इन युवाओं में से अभी भी बहुत से बसपा के वोटर हैं, लेकिन चंद्रशेखर के प्रति बसपा के रूख को लेकर उनके मन में एक खिन्नता है. ‘आखिर यह समझ में नहीं आता है कि बहन जी चंद्रशेखर को बसपा में शामिल करने के बजाय उनके ऊपर आरोप क्यों लगाती रहती हैं. चंद्रशेखर तेजतर्रार नेता हैं, उससे पार्टी को फायदा ही होगा’ सहारनपुर के रहने वाले और मेरठ विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले दलित छात्र विनीत कुमार कहते हैं, ‘दलितों का एक ऐसा वर्ग जो बसपा को वोट देता है, वह भी चंद्रशेखर का प्रशंसक है. अभी वो चुनावी राजनीति में नहीं है तो वे बसपा को ही वोट देते हैं, लेकिन अगर आगे ऐसा हुआ तो दलितों के वोट बंटेंगे.’

मेरठ के लिसाड़ीगेट के रहने वाले मोहम्मद शमीम कहते हैं, ‘मेरठ के सपा-बसपा के तमाम नेता उन लोगों से मिलने नहीं आए जो सीएए-एनआरसी के विरोध में हुए प्रदर्शनों के दौरान फायरिंग में मारे गए थे. लेकिन, चंद्रशेखर तिहाड़ से जैसे ही रिहा हुए उसके तुरंत बाद वे मेरठ आकर मारे गए लोगों के घर वालों से मिले.’ यह गुस्सा स्थानीय नेताओं को लेकर है. लेकिन, अखिलेश और मायावती जैसे बड़े नेताओं के प्रति भी लोग असंतोष जाहिर करते हैं.

मेरठ के एक सपा नेता इस असंतोष को स्वीकार करते हैं लेकिन यह भी कहते हैं कि सीएए-एनआरसी पर पार्टी अपने तरीके से विरोध कर रही है और हर राजनीतिक रणनीति की सीमायें होती हैं. पर मेरठ के ही रहने वाले दीपेंद्र जाटव का रैवया इस बारे में कुछ अलग है. वे कहते हैं, ‘सीएए-एनआरसी को छोड़ भी दिया जाये तो भी सपा-बसपा किसी और भी मुद्दे पर सरकार का विरोध करते नजर नहीं आती हैं. भीम आर्मी के पास इन राजनीतिक दलों के मुकाबले बहुत छोटा संगठन है, लेकिन फिर भी वह विरोध करती नजर आती है.’

मुस्लिम समुदाय के लोगों से बात करने पर भी पता चलता है कि चंद्रशेखर आजाद का नाम उनके बीच काफी जाना-पहचाना हो गया है और उनमें चंद्रशेखर को लेकर एक सकारात्मक रूख है. यानी वे भीम आर्मी की सक्रियता को दलित राजनीतिक पहचान के दायरे में रखते हुए भी अपनी छवि विस्तृत करने की जो कोशिश कर रहे हैं, उसमें उन्हें कुछ ही सही पर सफलता हासिल हो रही है.

चंद्रशेखर के गृह जिले के वरिष्ठ पत्रकार अवनींद्र कमल कहते हैं, ‘चंद्रशेखर राजपूत-दलित झगड़े की एक घटना से उभरे. उन पर रासुका लगाई गई और वे लंबे समय तक जेल में रहे. जेल से आने के बाद भी उन्होंने अपने तेवर बरकरार रखे. सीएए-एनआरसी से पहले भी वे दिल्ली में रविदास मंदिर के मुद्दे पर जेल गए. और भी तमाम जगहों पर पुलिस-प्रशासन के सामने आते रहे. इसने उनकी छवि एक ऐसे शख्स की बनाई जो मुद्दों के लिए सड़क पर उतरकर संघर्ष करने से पीछे नहीं हटता.’ वे चंद्रशेखर की राजनीति की सीमायें भी बताते हैं. अवनींद्र कहते हैं, ‘चंद्रशेखर दिल्ली या हैदराबाद में अपने प्रदर्शनों या गिरफ्तारी से चर्चा में आ जा रहे हैं. मीडिया और अकादमिक जगत उनकी चर्चा कर रहा है. लेकिन,यही वह समय है जब उन्हें एक्टिविज्म और राजनीति में फर्क समझ लेना चाहिए. उनके पास जो लोकप्रिय समर्थन है उसकी चुनावी राजनीति में भी अभिव्यक्ति हो, इसके लिए उन्हें जमीनी स्तर पर काम और संगठन निर्माण में जुट जाना चाहिए.’

मुजफ्फरनगर जिले में के खतौली के रहने वाले राम पाल सैनी कहते हैं, ‘चंद्रशेखर जिस तरह से मेरठ के हॉस्टल में छात्रों की दिक्कत से लेकर सीएए तक में लोगों के साथ खड़ा रहता है, उससे फर्क तो पड़ेगा ही. मायावती और अखिलेश को इससे कुछ सीखना चाहिए.’ राम पाल सैनी एक जमाने में बसपा के कार्यकर्ता रह चुके हैं और मौजूदा समय में पार्टी की कार्यप्रणाली से गहरी नाराजगी जाहिर करते हैं.

मेरठ के बहुजन समाज पार्टी के एक मुस्लिम नेता इस बारे में कहते हैं, ‘सीएए जैसे मुद्दे पर विपक्ष इस कारण खुलकर सामने नहीं आता है क्योंकि उसे डर है कि उनके ऐसा करने पर भाजपा हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण कर इन पार्टियों पर मुस्लिमपरस्त होने के आरोप तेज कर सकती है. चंद्रशेखर के पास फिलहाल इस तरह की कोई चिंता नहीं है, इसलिए वे ऐसा कर पा रहे हैं.’ वे आगे कहते हैं, यह तो रणनीतिक और सैद्धांतिक बात हो गई, लेकिन यह भी सच्चाई है कि सपा-बसपा का शीर्ष नेतृत्व सड़क की राजनीति भूल चुका है. दूसरे, चंद्रशेखर जैसे संघर्षशील युवा नेताओं की इन दलों में जगह भी बनती नहीं दिखती क्योंकि इस तरीके के संघर्ष वाली राजनीति से जो नेता उभरेंगे वे नेतृत्व की प्रथम पंक्ति में नहीं तो दूसरी पंक्ति में जगह जरूर चाहेंगे. और सपा-बसपा में इसकी गुंजाइश भी नहीं दिखती. ऐसे में ये पार्टियां इससे कुछ सीखेंगी, ऐसा नहीं लगता.’ वे आगे कहते हैं, ‘सभी राजनीतिक पार्टियों को काम या संघर्ष के बजाय समीकरणों की राजनीति में भरोसा है.’

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के मामले में ये बातें काफी हद तक सही लगती हैं. इन दोनों के बनिस्बत कांग्रेस अपेक्षाकृत ज्यादा सक्रिय नजर आ रही है. सीएए के विरोध प्रदर्शन में गिरफ्तार किए गए लोगों से मिलने के लिए और कुछ अन्य मुद्दों पर प्रियंका सड़क पर उतरीं. लेकिन, राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि कांग्रेस के इन प्रदर्शनों में एक तरह का पैटर्न है. प्रियंका गांधी दिल्ली से लखनऊ या किसी शहर में आती हैं तो पूरे प्रदेश के कांग्रेस नेता सड़क पर उतरते हैं, लेकिन उनके वापस लौटते ही हाल फिर वैसा ही हो जाता है. इन प्रदर्शनों में निरंतरता की जरूरत है. यूपी में कांग्रेस के पास शायद अभी ऐसा संगठन नहीं है कि बगैर किसी बड़े नेता के वह लगातार ऐसे प्रदर्शन कर सके, इसलिए प्रियंका और अन्य बड़े नेताओं को वहां लगातार सक्रिय रहने की जरूरत है.

उत्तर प्रदेश कांग्रेस के एक बड़े नेता कहते भी हैं, भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद जो कर रहे हैं,वह शुद्ध राजनीति नहीं है, बल्कि राजनीति का उत्प्रेरक है. विपक्ष को इनसे सीख लेनी चाहिए क्योंकि संघर्ष का तरीका राजनीति में कभी पुराना नहीं पड़ता.’