किताब का एक अंश:

पिछले साल अब्बू जी उसे और यावर को झील के अंदर उस तरफ ले गए थे जहां पानी में खेती करने वाले हंज़ लोग रहते हैं. तब पहली बार इकरा ने देखा था कि नदरू कैसे निकाले जाते हैं. उसे थोड़ा डर भी लगा था वहां जाते हुए. हंज़ लोगों के बारे में उसने अच्छी बातें नहीं सुनी थीं. स्कूल में उसने सुना था कि ये लोग बहुत झगड़ा करते हैं, इनकी कश्मीरी भी थोड़ी अलग तरह की होती है और ये अंदर से इंडियन होते हैं. सब्ज़ी-भाजी बेचकर या फिर सैलानियों को शिकारे पर घुमाकर थोड़े-बहुत पैसे कमाने वाले इन लोगों को देखकर उसे खराब भी लगा था. उसे नहीं पता था कि उसके श्रीनगर में इस तरह की ग़ुरबत भी देखने को मिल सकती है. यावर ने तो पूछ भी लिया था कि मस्जिद कमेटी वाले इनके लिए कुछ नहीं करते क्या. बेवक़ूफ़ यावर को इतना भी नहीं पता था कि हर मस्जिद की अपनी कमेटी होती है. बटमालू में उनकी कॉलोनी की मस्जिद अलग है और यहां इनकी अलग होगी.


पुस्तक: गर फ़िरदौस...

लेखक: प्रदीपिका सारस्वत

प्रकाशन: एमेजॉन किंडल (केवल डिजिटल संस्करण उपलब्ध)

कीमत: 95 रुपए


कश्मीर का परिचय अक्सर ही इन लाइनों के साथ दिया जाता है, ‘गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त, हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त’ (धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यही हैं). फिरदौस यानी स्वर्ग, या कहें कि एक ऐसी जगह जिसे हमारी कल्पना सबसे सुंदर जगह बताती है. यह सुंदर जगह उन सारी खूबियों से भरी हुई है जो हैं तो इसी दुनिया की लेकिन सबके लिए नहीं हैं. इसी फिरदौस से, कश्मीर की तुलना की गई है लेकिन यह उसके आज पर लागू नहीं होती.

पहले अपनी शांति और फिर अपनी सुंदरता को धीरे-धीरे गंवा रहे कश्मीर को अब फिरदौस कहने में तमाम किंतु-परंतु है. पहले से ही जटिल रहे यहां के हालात छह महीने पहले तब कुछ और हो गये जब भारत सरकार ने विशेष दर्जा खत्म करके जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश बना दिया. उसके बाद से कई दिन बंद रहने के बाद आज यहां पर स्कूल, कॉलेज, धंधे और इंटरनेट खुले भी हैं और नहीं भी. बेबसी, कई पाटों में पिस रहे यहां के आम आदमी की सबसे बड़ी खासियतों में से एक है.

लेकिन ऐसा नहीं है कि कश्मीर में सबकुछ बुरा ही है या एक आम जिंदगी का यहां कोई अस्तित्व ही नहीं है. गर फिरदौस इसी कश्मीर से आपकी खरी-पूरी मुलाकात करवाती है. यह किताब बताती है कि यहां वे बच्चे भी हैं जो स्कूल-कॉलेज और आगे के अपने भविष्य की सोचते हैं. वे रिश्तेदार-दोस्त भी जो वीकेंड पर मिलने के प्लान बनाते-बिगाड़ते रहते हैं. और वे प्रेमी भी जो एक-दूसरे की बाहों में जिंदगी गुजार देने के बारे में सोचकर अपने दिन-रात बिताया करते हैं. हिंसा, तनाव और हर तीसरे दिन के कर्फ्यू के बीच ये किस्से उतनी और वैसी ही सांस ले रहे हैं जैसी किसी उत्तर-दक्षिण भारतीय कस्बे या शहर में लिया करते हैं. सीधे से कहें तो प्रदीपिका सारस्वत की किताब ‘गर फिरदौस’ आपको उस ज़िंदा कश्मीर से मिलवाती है जो अखबारों की सुर्खियों, टीवी चैनल की रपटों और सैलानियों का ध्यान अपनी ओर नहीं खींच पाता है.

‘गर फिरदौस’ को तीन किरदारों की नज़र से लिखा गया है, इकरा, शौकत और फिरदौस. इन तीनों के अपने-अपने कश्मीर हैं जो मिलकर असली कश्मीर बनाते हैं. इकरा, 21 साल की एक ऐसी लड़की है जो पढ़ाई-लिखाई, दोस्ती-इश्क, रंग-रोशनी की बातें सोचती है. ठीक वैसे ही, जैसे उसकी उम्र की बाकी लड़कियां हिंदुस्तान के बाकी कोनों में बैठकर सोचा करती हैं. कई बार, कश्मीर में होकर भी वह यहां के हालात से उतनी ही नावाकिफ लगती है. इकरा सरीखी लड़कियां न सिर्फ इस उपन्यासिका की बल्कि कश्मीर के इतिहास-भविष्य की भी सबसे निर्दोष किरदार हैं. ये किसी और चीज की न सही लेकिन एक सामान्य जिंदगी की हकदार तो थीं ही मगर अफसोस कि इन्हें इतना भी नहीं मिल सका.

किताब के दूसरे किरदार फिरदौस की बात करें तो इकरा से कुछ ही साल बड़ा फिरदौस, कश्मीर के उस तबके का प्रतिनिधित्व करता है जो वहां से बाहर निकल चुका है. उसके जैसे युवाओं को हिंदुस्तान के बाकी हिस्सों का माहौल देखने के बाद, वे मसाइल कहीं ज्यादा शिद्दत से चुभते हैं जिनसे उसका इलाका जूझ रहा है. वहीं तीसरा किरदार, शौकत उन लोगों का प्रतीक है जो जिहादियों और मुल्कपरस्तों के बीच में पिसते हैं. इन्हें कभी जान, कभी परिवार तो कभी धर्म के नाम पर धमकाया जाता है और निरपराध होकर भी ये हर दिन डर-डर के जीने को अभिशप्त हैं. फिरदौस और शौकत के बहाने प्रदीपिका फौजों का जिक्र भी करती हैं, सीमा पार से होने वाली हलचलों को बयान करती हैं और उन फसानों का अंदाजा भी देती हैं जिन्हें आम भारतीय कश्मीर से आने वाली एक रुटीन खबर समझकर नज़रअंदाज कर देता है.

प्रदीपिका एक लंबे समय तक कश्मीर में रह चुकी हैं, वहां से रिपोर्टिंग कर चुकी हैं और इसीलिए वहां के माहौल से जुड़ी कुछ बहुत बारीक जानकारियां और शब्द उनकी किताब का हिस्सा बन पाए हैं. अगर इस किताब में कोई कमी निकालनी हो तो कहा जा सकता है कि यह कुछ कश्मीरी शब्दों के अर्थ और जगहों के बारे में हमें ठीक-ठीक अंदाजा नहीं देती है. यानी यह ई-किताब हमें यह नहीं बताती है कि इन शब्दों के सही मायने क्या हैं. या किताब में शामिल कुछ इलाके किस बात के लिए जाने जाते हैं. लेकिन ऐसा शायद उपन्यासिका की लय न टूटने देने और कश्मीरियत को अधिक से अधिक कहानी में पिरो देने की कोशिश के चलते हुआ है. ‘गर फिरदौस’ की एक बड़ी खासियत यह भी है कि इसमें कश्मीर से जुड़ी घिसी-पिटी चीजों को शामिल नहीं किया गया है. कहने का मतलब है कि केसर, चनार, बर्फबारी, झीलों आदि के जिस जिक्र से कश्मीर पर आधारित ज्यादातर फिल्में और किताबें अब तक भरी रहती हैं, वे यहां पर नहीं है. अगर डल का जिक्र है भी तो उतना ही जितना दिल्ली की कहानियों में यमुना का होता है.

कुल मिलाकर, अगर आप अक्सर इस बात पर आश्चर्य करते हैं कि क्यों बेहद पढ़े-लिखे, प्रोफेशनल लोग मिलिटेंसी जॉइन कर लेते हैं. या क्यों कई बार कश्मीरी चाहकर भी भारत के साथ नहीं आ पाते हैं. या आम जिंदगियों पर मिलिट्री और मिलिटेंसी दोनों की उपस्थिति का क्या असर होता है, तो यह उपन्यासिका पढ़िए. यह किताब आपको इन सारे सवालों के सरल और ईमानदार जवाब देगी. हालांकि ये बहुत संक्षिप्त जवाब हैं लेकिन इसे पढ़ने के बाद आपको कश्मीर पर मिल-दिख रही चीजें और ज्यादा समझ में आने लग सकती हैं. तब कश्मीर हममें से कइयों के लिए अनजान लोगों वाला एक सुंदर जमीन का टुकड़ा भर नहीं रह जाएगा.

क्योंकि ‘गर फिरदौस’ से मिलने के बाद कश्मीर से जुड़ी किसी भी चीज़ से मिलने पर आपको इकरा, शौकत और फिरदौस अपने सामने खड़े दिख सकते हैं, झिंझोड़कर यह पूछते हुए - हमारे बारे में कुछ सोचा?