बजट सत्र के पहले दिन संसद में आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 पेश किया. इस बार भी इसमें भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर तरह-तरह की बातें की गई हैं. यह बताने की कोशिश की गई है कि कैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार प्रतिकूल वैश्विक परिस्थितियों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था को बहुत बुरी स्थिति में जाने से बचाए हुए है और कैसे इसमें आने वाले दिनों में और सुधार की उम्मीद है.
आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक चालू वित्त वर्ष के लिए जीडीपी की विकास दर पांच प्रतिशत रहने का अनुमान है. वहीं अगले वित्त वर्ष यानी 2020-21 के लिए जीडीपी की विकास दर 6 से 6.5 फीसदी के बीच रहने की बात कही गई है. हर क्षेत्र के विकास से संबंधित आंकड़ों का जिक्र आर्थिक समीक्षा में है. लेकिन इन आंकड़ों के बीच आर्थिक सर्वेक्षण में कुछ ऐसी विचित्र बातें हैं जिन पर यकीन करना आम लोगों के लिए मुश्किल है. ऐसा इसलिए क्योंकि इनमें जिस तरह के दावे किए जा रहे हैं, जमीनी स्थिति उससे अलग है. ऐसी ही पांच बातों का यहां जिक्र करना प्रासंगिक है:
2025 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था
वित्त वर्ष 2019-20 के आर्थिक सर्वेक्षण में मोदी सरकार के उस पुराने वादे को फिर से दोहराया गया है जिसमें 2025 तक भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य रखा गया है. पिछले काफी दिनों से यह बात सुनी जा रही है. लेकिन अर्थव्यवस्था में जिस तरह की सुस्ती बनी हुई है, उसे देखते हुए सरकार के समर्थक माने जाने वाले अर्थशास्त्रियों ने भी इस लक्ष्य को हासिल किए जाने की उम्मीद छोड़ दी है.
जो भी लोग आर्थिक मामलों को समझते हैं, उन सभी का कहना है कि अगर इस लक्ष्य को हासिल करना है तो भारत की जीडीपी की विकास दर मौजूदा स्तर से काफी अधिक होनी चाहिए. साथ ही अन्य क्षेत्रों में भी उसी अनुपात में विकास होना चाहिए. वैश्विक आर्थिक संस्थाओं ने भी मोदी सरकार के इस लक्ष्य को हासिल किए जाने पर संदेह जताए हैं. लेकिन इसके बावजूद मोदी सरकार की ओर से फिर से 2025 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का सपना बेचने की कोशिश की गई है. जाहिर है कि आर्थिक मंदी को महसूस कर रहे आम लोगों के लिए इस बात पर यकीन करना आसान नहीं होने जा रहा है.
आम आदमी की थाली सस्ती
आर्थिक सर्वेक्षण में पहली बार ‘थालीनॉमिक्स’ के नाम से एक नया अध्याय जोड़ा गया है. इसमें यह बताया गया है कि कैसे आम आदमी की थाली सस्ती हुई है. इस अध्याय में अप्रैल, 2006 से लेकर अक्टूबर, 2019 तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है. इसमें 2015-16 को ऐसा साल माना गया जब खाने की थाली की कीमतों में व्यापक बदलाव हुआ है. आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन करके यह बताया गया है कि 2015-16 के बाद खाने की थाली की कीमतों में जो कमी आई है, उससे हर शाकाहारी परिवार को औसतन हर साल 10,887 रुपये की बचत हुई है. वहीं मांसाहारी थाली की कीमतों में आई कमी की वजह से मांसाहारी परिवार को हर साल औसतन 11,787 रुपये की बचत हुई है.
इन आंकड़ों के बाद सहज बुद्धि वाले लोगों के मन में यह सवाल पैदा होगा कि अगर पूरे देश में तकरीबन 25 करोड़ परिवार हैं तो पूरे देश में सिर्फ थाली की कीमत तक होने की वजह से हजारों करोड़ रुपये की बचत हुई और इस वजह से अर्थव्यवस्था में तेजी दिखनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा नहीं हो रहा. वहीं दूसरी तरफ आम लोगों को खाने की थाली की कीमतों में यह कमी व्यावहारिक तौर पर महसूस नहीं हो रही है. बल्कि लोगों का अनुभव यही है कि खाने की थाली की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी ही होती जा रही है.
2022 तक किसानों की आय दोगुनी
वित्त वर्ष 2016-17 का बजट पेश करते वक्त मोदी सरकार की ओर से पहली बार यह बात आई थी कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा गया है. लेकिन इसके बाद से इस दिशा में सरकार ने जो भी कार्य किए, उन्हें इस लक्ष्य को हासिल करने के लिहाज से पर्याप्त नहीं माना गया. कृषि विकास दर भी इतनी तेज नहीं हो पाई कि जिसके आधार पर इस बात पर आम लोग यकीन कर सकें कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी.
इसके बावजूद मोदी सरकार ने जो आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया है, उसमें फिर से इस लक्ष्य को दोहराया गया है. लेकिन इस लक्ष्य को कैसे हासिल किया जाएगा, इसके लिए आर्थिक सर्वे में कोई स्पष्ट रोडमैप नहीं दिया गया है. जाहिर है कि ऐसे में इस वादे पर यकीन करना आम लोगों के लिए बेहद मुश्किल है.
अदृश्य हाथों पर भरोसा
जब से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार केंद्र की सत्ता में आई है, तब से केंद्र सरकार की हर अच्छी पहल का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया जाता है. इस लिहाज से देखें तो प्रधानमंत्री इस सरकार के सबसे अधिक दिखने वाले चेहरे हैं. देश की हर छोटी-बड़ी उपलब्धि पर सरकार के मंत्रियों और सत्ताधारी पार्टी के नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हाथ बताया. लेकिन इस बार की आर्थिक समीक्षा में सरकार अर्थव्यवस्था के पहिये को सही ढंग से चलाए रखने में अदृश्य हाथों की अहम भूमिका की बात मान रही है.
यह बात इस नाते भी विचित्र लग रही है कि सरकार अर्थव्यवस्था को अधिक से अधिक औपचारिक बनाने पर जोर देती आई है. इसके लिए हर छोटे-बड़े लेन-देन को उसने डिजिटल बनाने की कोशिश की. इसका मकसद यह था कि हर लेन-देन को रिकॉर्ड किया सके और उसकी जानकारी सरकार के पास रहे. लेकिन इस सोच पर चलने वाली सरकार अर्थव्यवस्था में अदृश्य हाथों की अहमियत को स्वीकार कर रही है.
असेंबल इन इंडिया फॉर दि वर्ल्ड
इस बार की आर्थिक समीक्षा में ‘असेंबल इन इंडिया फॉर दि वर्ल्ड’ की बात की गई है. इसका मतलब यह हुआ कि सरकार भारत को एक ऐसी अर्थव्यवस्था बनाने की दिशा में काम करने की बात कर रही है जहां से विश्व को निर्यात किया जा सके और भारत, चीन की तरह निर्यात के एक प्रमुख केंद्र के तौर पर उभरे. आर्थिक समीक्षा में ‘असेंबल इन इंडिया फॉर दि वर्ल्ड’ को ‘मेक इन इंडिया’ से जोड़ने की बात कही गई है. ताकि भारत के निर्यात बाजार का हिस्सा 2025 तक लगभग 3.5 प्रतिशत और 2030 तक छह प्रतिशत तक बढ़ सके.
लेकिन इस बात पर यकीन नहीं करने की वजहों का जिक्र खुद आर्थिक समीक्षा में है. चीन से तुलना करते हुए आर्थिक समीक्षा में बताया गया है कि चीन निर्यात के हब के तौर पर इसलिए विकसित हो पाया क्योंकि उसने अपने श्रम बल को प्रशिक्षित किया है. लेकिन भारत के श्रम बल के लिए यही बात नहीं कही जा सकती. श्रम बल को प्रशिक्षित करना एक दीर्घकालिक कार्य है. ऐसे में अगर भारत अभी से भी निर्यात हब बनने के लक्ष्य के साथ काम करता है तो श्रम बल को प्रशिक्षित करते हुए इस लक्ष्य को हासिल करना एक दीर्घकालिक कार्य होगा. इस लक्ष्य पर इसलिए भी आम लोगों को यकीन नहीं हो रहा कि इसे जिस मेक इन इंडिया के साथ जोड़ने की बात कही गई है, वह योजना भी अपनी शुरुआत के चार साल से अधिक वक्त के बाद भी उम्मीदें जगाने में नाकाम साबित हुई है.
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