इस बार हो रहे दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने मुख्यमंत्री पद के लिए किसी उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है. जबकि सत्ताधारी आम आदमी पार्टी एक बार फिर से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का नाम आगे करके चुनाव लड़ रही है. केजरीवाल अपनी हर चुनावी सभा में और साक्षात्कारों में इसे मुद्दा भी बना रहे हैं. वे कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थोड़े ही दिल्ली की गद्दी संभालने वाले हैं इसलिए दिल्ली की जनता को यह जानने का हक है कि भाजपा का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है.
जानने वाले बताते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के अंदर कई स्तरों पर इस बात को लेकर काफी माथापच्ची हुई कि भाजपा को भी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए या नहीं. इस विचार-विमर्श में शामिल लोगों में से कुछ लोगों ने इस बारे में सार्वजनिक बयानबाजी भी की. केंद्रीय मंत्री और दिल्ली चुनावों के लिए भाजपा की ओर से सह-प्रभारी बनाए गए हरदीप सिंह पुरी का एक सभा में कहना था कि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी और जीत के बाद उन्हें दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाएगी. लेकिन बाद में न सिर्फ उन्हें अपने बयान से पीछे हटना पड़ा बल्कि भाजपा के दूसरे नेताओं ने भी ऐसी किसी योजना से इनकार किया.
इस बार के उलट 2015 के विधानसभा चुनावों में भाजपा मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के साथ मैदान में उतरी थी. उस चुनाव में पार्टी ने किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था. तब भाजपा को दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से सिर्फ तीन पर ही जीत हासिल हुई थी.
इससे पहले 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अंतिम समय में दिल्ली प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता डॉ हर्षवर्धन को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था. उस चुनाव में आम आदमी पार्टी के तेज उभार के बावजूद 31 सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. भाजपा की सहयोगी शिरोमणि अकाली दल को भी उस वक्त एक सीट मिली थी. इस लिहाज से देखें तो भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को 2013 में 32 सीटें मिली थीं और वह बहुमत से सिर्फ चार सीटों की दूरी पर थी.
2013 में भाजपा के प्रदर्शन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि डॉ हर्षवर्धन के नेतृत्व में भाजपा दिल्ली में एक मजबूत स्थिति में थी. उस वक्त कहा जा रहा था कि अगर भाजपा ने समय पर मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर हर्षवर्धन के नाम की घोषणा की होती तो वह सरकार बनाने में कामयाब भी हो सकती थी. लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने हर्षवर्धन की जगह किरण बेदी को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि डेढ़ साल पहले विधानसभा की 31 सीटें जीतने वाली और तकरीबन छह महीने पहले हुए लोकसभा चुनावों में दिल्ली की सभी सात सीटें जीतने वाली भाजपा सिर्फ तीन विधानसभा सीटों पर ही सिमट गई.

2015 के नाकाम प्रयोग को देखते हुए पार्टी में यह बात अक्सर चलती रही कि अगर दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के सामने भाजपा अपनी स्थिति मजबूत करना चाहती है तो उसे डॉ हर्षवर्धन का नाम आगे करना चाहिए. इस बारे में भाजपा के एक महासचिव अपनी पहचान सार्वजनिक नहीं करने की शर्त पर बताते हैं, ‘पार्टी के अंदर लोगों का यह मानना है कि केजरीवाल ने अन्ना आंदोलन के दिनों से लेकर बतौर मुख्यमंत्री अपने कार्यकाल तक में एक ईमानदार नेता की छवि बनाई है. इस छवि से अगर लड़ना है तो भाजपा को भी एक ऐसे ही चेहरे को आगे करना होगा. 2013 में जब केजरीवाल बनाम हर्षवर्धन की जंग हुई थी तो उसमें हर्षवर्धन, केजरीवाल पर भारी पड़े थे. इसलिए इस बार के चुनावों में भी पार्टी का एक बड़ा वर्ग यह चाहता था कि हर्षवर्धन मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए जाएं.’
दिल्ली की राजनीति में हर्षवर्धन की वही कहानी है, जो महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी की है. 2014 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा सरकार बनी तो गडकरी और हर्षवर्धन दोनों केंद्रीय मंत्री बनाए गए. इसके बाद से दोनों को प्रदेश की राजनीति से भाजपा ने दूर कर दिया. 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के बाद गडकरी को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने का अवसर नहीं दिया गया. 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में हर्षवर्धन 2013 के विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन के बावजूद मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं बनाए गए.
2019 में जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद शिव सेना अपना मुख्यमंत्री बनाने को लेकर अड़ गई तो उस वक्त भी यह बात आई कि अगर देवेंद्र फडणवीस की जगह भाजपा गडकरी को मुख्यमंत्री बनाएगी तो महाराष्ट्र में भाजपा सरकार फिर से बन सकती है. लेकिन भाजपा ने ऐसा नहीं किया. ऐसे ही 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए हर्षवर्धन को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की मांग होती रही लेकिन ऐसा नहीं किया गया.
अब सवाल यह उठता है कि आखिर हर्षवर्धन के साथ दिल्ली की राजनीति में वैसा ही क्यों हो रहा है, जो महाराष्ट्र की राजनीति में नितिन गडकरी के साथ हो रहा है? इस सवाल के जवाब में भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘नितिन गडकरी पर जैसे कुछ बातों के लिए कोई दबाव नहीं बना सकता, उसी तरह से हर्षवर्धन भी थोड़े स्वतंत्र किस्म के नेता हैं. गडकरी मुखर हैं, वहीं हर्षवर्धन चुप रहकर अपना काम करते हैं. हर्षवर्धन की गिनती ईमानदार और निष्ठावान नेताओं में होती है. केंद्रीय मंत्री के तौर पर भी वे अपना कामकाज अपने ढंग से करते हैं. ऐसे में केंद्र सरकार में एक मंत्री के तौर पर तो वे ठीक हैं लेकिन एक प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर वे उन लोगों को ठीक नहीं लगेंगे जो अभी भाजपा में निर्णय ले रहे हैं.’
इस बारे में वे आगे कहते हैं, ‘अमित शाह के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद भाजपा की राजनीति में आपको एक ट्रेंड दिखेगा. भाजपा ने प्रदेशों में वैसे लोगों को ही मुख्यमंत्री बनाया है, जिनका अपना कोई खास जनाधार नहीं हो. हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य इसके उदाहरण हैं. उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ एक अपवाद हैं. बगैर कोई जनाधार वाले नेताओं को प्रदेश में आगे बढ़ाने की अमित शाह की रणनीति में न तो महाराष्ट्र में नितिन गडकरी फिट बैठते हैं और न ही दिल्ली में हर्षवर्धन. यही वजह है कि प्रदेश की राजनीति में नुकसान की आशंका के बावजूद हर्षवर्धन को दिल्ली प्रदेश की राजनीति से दूर रखा जा रहा है.’
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